Urvashi ka shrap bana vardan mahabharat kahani in hindi – जब पाण्डव लोग दूसरी बार जुए में हारकर वन में रहने लगे, उस समय एक दिन महर्षि वेदव्यास जी उनके पास आये और युधिष्ठिर को एकान्त में ले जाकर समझाने लगे- अर्जुन नारायण का सहचर महातपस्वी नर है। इससे कोई भी जीत नहीं सकता, यह अच्युत स्वरूप् है। यह तपस्या एंव पराक्रम के द्वारा देवताओं के दर्शन की योग्यता रखता है।
अतः तुम इसे अस्त्र विद्या प्राप्त कराने के लिए भगवान शंकर, देवराज इन्द्र, वरूण, कुबेर तथा धर्मराज के पास भेजो। यह उनसे अस्त्र प्राप्त करके अति पराक्रमी बनेगा और तुम्हारा खोया हुआ राज्य वापस ला देगा। युधिष्ठिर ने वेदव्यास जी की आज्ञा मानकर, अर्जुन के महर्षि की दी हुई मन्त्रविद्या सिखाकर इन्द्र के दर्शन के लिए इन्द्रकटिका पर्वत पर भेज दिया।
वहां पहुंचने पर एक तपस्वी के रूप में इन्द्र के दर्शन हुए। वहां पहुंचने पर एक तपस्वी के रूप में इन्द्र के दर्शन हुए। इन्द्र ने इन्हें स्वर्ग के भोगों एंव ऐश्वर्य का प्रलोभन दिया, परन्तु इन्होंने सब कुछ ठुकराकर उनसे अस्त्रविद्या सिखाने का आग्रह किया। इन्द्र ने कहा- पहले तुम तप द्वारा भगवान शंकर के दर्शन प्राप्त करो।
उनके दर्शन से सिद्ध होकर तुम स्वर्ग में आना, तब मैं तुम्हें सारे दिव्यास्त्र दे दूंगा। अर्जुन मनस्वी तो थे ही, वे तुरंत कठोर तपस्या में लीन हो गये। इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर एक भील के रूप में इनके समक्ष प्रकट हुए। एक जंगली सुअर को लेकर दोनों में विवाद उत्पन्न हो गया और फिर दोनों में युद्ध छिड़ गया। अर्जुन के युद्ध कौशल को देखकर भगवान शंकर प्रसन्न हो गये। वे बोले- हे अर्जुन! तुम्हारे अनुपम कार्य से मैं प्रसन्न हूं।
तुम्हारे जैसा धीर, वीर क्षत्रिय दूसरा नहीं है। तुम तेज और बल में मेरे समान हो। तुम सनातन ऋषि हो। मैं तुम्हें दिव्यज्ञान देता हूं। तुम देवताओं को भी जीत सकोगें। इसके बाद भगवान शंकर ने अर्जुन को देवी पार्वती सहित अपने वास्तविक रूप के दर्शन कराये और विधिपूर्वक पाशुपातास्त्र की शिक्षा दी। इस प्रकार देवाधिदेव महादेव की कृपा से कृतार्थ हो वे स्वर्ग जाने की बाबत सोच ही रहे थे, तभी! वरूण, कुबेर, यम एंव देवराज इन्द्र, ये चारों लोकपाल वहां आकर उपस्थित हो गये।
यम, वरूण व कुबेर ने इन्हें दण्ड, पाश एंव अन्तर्धान नामक अस्त्र दिये और इन्द्र उन्हें स्वर्ग में आने पर अस्त्र देने को कह गये। इसके बाद इन्द्र के भेजे हुए रथ पर अर्जुन स्वर्गलोक गये और वहां पांच वर्ष रहकर इन्होंने अस्त्र ज्ञान प्राप्त किया और साथ ही चित्रसेन गन्धर्व से गन्धर्व विद्या सीखी।
इन्द्र से अस्त्र विद्या सीखकर जब अर्जुन सब प्रकार के अस्त्रों को चलाने में निर्पुण हो गये तब देवराज ने उनके निवातकवच नामक दानवों का वध करने के लिए कहा।
ये समुद्र के भीतर एक दुर्गम स्थान में रहते थे। इनकी संख्या तीन करोड़ बतायी जाती थी। इन्हें देवता भी जीत नहीं सकते थे। अर्जुन ने अकेले ही जाकर उन सबका संहार कर डाला। इतना ही नहीं निवातकवचों को मारकर लौटते समय उनका कालिकेस एवं पौलोम नामक दैत्यों से युद्ध हुआ और उनको भी अर्जुन ने मार डाला।
जिस समय अर्जुन इन्द्रपुरी में रहकर अस्त्र विद्या व गन्धर्व विद्या सीख रहे थे, एक दिन इन्द्र ने रात्रि के समय उनकी सेवा के लिए वहां की सर्वश्रेष्ठ अप्सरा उर्वशी को अर्जुन के पास भेजा। उस दिन सभा में इन्द्र ने अर्जुन को उर्वशी की ओर निर्निमेष नेत्रों से देखते हुए पाया था।
उर्वशी अर्जुन के गुणों व रूप पर पहले से ही मुग्ध थी। अर्जुन ने उर्वशी को रात्रि में अकेले इस प्रकार निःसकोच भाव से अपने पास आते देखा , तो वे सहम गये। उन्होंने शीलवश अपने नेत्र बंद कर लिये और उर्वशी को माता के भांति प्रणाम किया। उर्वशी यह देख दंग रह गई।
उसे अर्जुन से इस प्रकार के व्यवहार की आशा नहीं थी। उसने स्पष्ट शब्दों में अर्जुन के प्रति कामभाव प्रकट किया। अर्जुन मारे संकोच के अपने हाथों से दोनों कान मूंद कर बोले- माता! ये क्या कह रही हो? देवी! तुम मेरी गुरूपत्नी के समान हो। देव सभा में मैंने तुम्हें निर्निमेष दृष्टि से अवश्य देखा था, परन्तु बुरे भाव से नहीं। मैं यही सोच रहा था
पुलवंश की यही माता है। इसी कारण मैं तुम्हें देख रहा था। हे देवी! मेरे सम्बन्ध में अन्य बात मत सोचना। तुम मेरे लिए बड़ों की बड़ी व पूर्वजों की जननी हो। जैसे कुन्ती, माद्री व इन्द्र पत्नी शची मेरी माताएं हैं, वैसे ही तुम भी कुरूवंश की जननी होने के नाते मेरी पूजनीय माता हो। मैं तुम्हारे चरणों में सिर झुकाकर प्रणाम करता हूं।
अर्जुन के भाषण पर उर्वशी क्रोध से आग-बबूला हो उठी। उसने अर्जुन को श्राप दिया- मैं इन्द्र की आज्ञा से कामातुर होकर तुम्हारे पास आयी थी। परन्तु तुमने मेरे प्रेम को ठुकारा दिया। अतः जाओ तुम्हें स्त्रियों के बीच में नचनियाँ होकर रहना पड़ेगा और लोग तुम्हें हिजड़ा कहकर पुकारेंगे। अर्जुन ने उर्वशी के श्राप को सहर्ष स्वीकार कर लिया, परन्तु धर्म का त्याग नहीं किया।
जब इन्द्र को यह बात मालूम हुई तो उन्होंने अर्जुन की बहुत प्रशंसा की और कहा- हे पुत्र! तुम्हारे जैसा पुत्र पाकर तुम्हारी माता धन्य हुई। तुमने अपने धैर्य से ऋषियों को भी जीत लिया। अब तुम किसी प्रकार की चिन्ता मत करो। उर्वशी ने जो श्राप तुम्हें दिया है, वह तुम्हारे लिए वरदान साबित होगा। तेहरवें वर्ष में जब तुम अज्ञातवास करोगे, उस समय यह श्राप तुम्हारे छिपने में काम आयेगा। इसके बाद तुम्हें पुरूषत्व की प्राप्ति हो जायेगी।
इन्द्र द्वारा कहे वचन सत्य सिद्ध हुए, अज्ञातवास के समय जब पाण्डवों ने द्रौपदी सहित राजा विराट के यहां शरण ली। तब स्वयं विराट भी इनकी वास्तविकता से परिचित नहीं थे। वहां छिपने के लिए अर्जुन को स्त्री के वस्त्र धारण करने पड़े थे और एक वर्ष तक उन्हें विराट के रानीवास में हिजड़े के रूप में रहना पड़ा था।
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