Shri Krishna Ka Bal Mahabharat ki Kahani – श्री कृष्ण ने पृथ्वी का भार उतारने के उद्देश्य से ही अवतार लिया था और वे अपने इस उद्देश्य को पूर्ण भी कर चुके थे। पृथ्वी का भार उतारने के साथ-साथ उनके अवतरण का एक अन्य कारण और भी था, वह कारण था शिवजी को ब्रह्महत्या के दोष से मुक्त करना। एक बार देवाधिदेव महादेव व उनकी अद्र्धागिनी माता पार्वती कैलाश शिखर पर बैठे विक्षोप कर रहे थे। तभी वहां से पांच वृषभों (सांडों) सहित कामधेनु गाय होकर निकली। उनको देख पार्वती ने हंस कर कहा- हे महादेव! जिस कामधेनु को समस्त देवता व समस्त प्राणी प्रणाम करते हैं, वह कामधेनु इस प्रकार पांच वृषभों के साथ घूमती लज्जित नहीं होती।

Shri Krishna Ka Bal

पार्वती के कटाक्ष पर कामधेनु ने उन्हें श्राप दे दिया- हे पार्वती, मेरा उपहास उड़ाने के कारण तुम मानव योनि में जन्म लोगी और पांच पतियों की पत्नी बन पांचाली कहलाओगी। मेरा यह वचन सत्य होगा। कामधेनु के शापित वचनों को सुन माता पार्वती इस श्राप से दुःखी हो महादेव से बोली- हे नाथ! कृप्या मुझे इस श्राप से मुक्त करने का उपाय कीजिए। तब महादेव जी ने कुछ पल विचार कर ब्रह्मा जी के पास जाने का निश्चय किया और नन्दीगण के साथ ब्रह्मा जी के सम्मुख जा पहुंचे।

महादेव जी को अपने सम्मुख देख ब्रह्मा जी अपने चारों मुखों से उनकी स्तुति करने लगे, सहसा तभी ब्रह्मा जी के एक मुख से महादेव के प्रति अपशब्द निकलने लगे। इस पर क्रुद्ध होकर महादेव जी ने ब्रह्मा जी के मुख को हाथ में पकड़े, ब्रह्म-हत्या के भय से कैलाश पर चले गये। महादेव जी के हाथ में थमे ब्रह्म मुख से रक्त धार बह रही थी। यह देख पार्वती भयभीत हो उठी और बोली- यहां मत आओ।

महादेव जी पार्वती के वचनों को सुन निराश भाव से, ब्रह्म-हत्या के पाप से मुक्त होने के लिए पुण्य स्थान काशी नगरी में आ गये और ब्रह्मा जी के कटे शीश को गंगा में प्रवाहित कर स्वयं तट पर बैठ तपस्या में लीन हो गये। इधर भगवान शिव ब्रह्म-हत्या के पापों से मुक्त होने के लिए तप कर रहे थे, उधर त्रिपुर नामक दैत्य सब देवताओं को कष्ट देने लगा।

तब समस्त देवतागण इस विपत्ति से छुटकारा पाने का उपाय सोचने लगे। विचार-विमर्श कर वे विष्णु जी सहित महादेव के पास पार्वती आश्रम में पहुंचे। जब देवताओं ने उनसे भगवान शंकर जी के विषय में पूछा, तो पार्वती जी कहने लगी- प्रभु यात्रा के उद्देश्य से मृत्युलोक में गये हैं। पार्वती जी से ऐसा सुन सभी देवतागण काशी में महादेव जी के पास पहुंचे।

देवताओं को देख शिवजी कहने लगे- हे देवताओं! आप किस प्रयोजन से आये हो…मुझसे कहो। तब देवताओं ने उनकी स्तुतिकर कहा- हे प्रभु! त्रिसुरासुर दैत्य ने त्रिलोकी तक को विजय कर लिया है, अतः आप कैलाश चलकर उस दुष्ट का वध करके, हमारा उद्धार कीजिए। शिवजी उदास स्वर में बोले- हे विष्णु! जब तक मैं ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त नहीं हो जाता, तब तक आपके साथ ना जा सकूंगा। शिवजी का कथन सुन विष्णु जी ने हत्या को बुलाया और कहा- हे हत्या! तू वर मांग ले, किन्तु शिवजी का पीछा छोड़ दे।

विष्णु जी के वचन सुन हत्या बोली- हे देवताओं! यदि आप मुझे अट्ठारह अक्षौहिणी सेना का रक्त पिला दें, तो मैं शिवजी का पीछा छोड़ दूंगी और त्रिसरासुर का वध भी हो जायेगा। हत्या की इच्छा सुन, विष्णु जी ने उसे वचन दिया कि – द्वापर के अन्त होने तक मैं तेरी अभिलाषा पूर्ण कर दूंगा। हत्या ने शिवजी का पीछा छोड़ दिया, तब शिवजी ने कैलाश पहुंचकर त्रिसुरासर से युद्ध कर उसका वध किया। कुछ दिन बाद ब्रह्माजी ने शिवजी से कहा- आप ब्रह्म-हत्या के निवारण का उपाय कीजिए। ब्रह्मा जी के कहने पर शिवजी चिन्तित हो उठे।

वे विष्णु जी के पास पहुंच, उनकी स्तुतिकर कहने लगे- हे नारायण! मेरे शुद्ध होने का उपाय कीजिए। इस पर भगवान विष्णु जी ने कहा- हे महादेव! जब तक मैं हत्या को अट्ठारह अक्षौहिणी सेना का रक्त नहीं पिला देता, तब तक आप ब्रह्म-हत्या के पाप से मुक्त नहीं हो सकेंगे। अतः अब मुझे गोलोक में जाकर भगवान कृष्ण में लीन होना होगा और उनके रूप में ही, श्री कृष्ण के नाम से पृथ्वी लोक पर अवतार लेकर पृथ्वी को पाप के भार से मुक्त करूंगा, जिसमें महाभारत जैसा भयानक युद्ध होगा। इस युद्ध में अट्ठारह अक्षौहिणी सेना मरेगी और हत्या उसका रक्तपान करेगी।

इस प्रकार आप पाप मुक्त हो जायेंगे। महादेव से यह कहकर विष्णु जी गोलोक पहुंचे और अपनी गामा शक्ति से भगवान श्री कृष्ण की देह में विलीन हो गये। गोलोक वासी भगवान् पारब्रह्म श्री कृष्ण ने भगवान शंकर को आदेश दिया कि- हे महादेव! आप पांच शरीर धारण कर पृथ्वी पर क्षत्रियवंश में अवतार धारण करो और पार्वती जी को राजा द्रुपद के यहां उनकी कन्या के रूप में अवतरित करो।

इस प्रकार भगवान शंकर के अंश से पांचों पाण्डव का जन्म हुआ और पार्वती द्रौपदी बन कर हवनकुण्ड से प्रकट हुई। श्री कृष्ण ने शिवजी को ब्रह्म-हत्या के पाप से मुक्त करने के लिए यदुवंश में जन्म लिया था। महाभारत युद्ध के पश्चात् श्री कृष्ण के प्रभाव से समस्त यादवकुल का संहार हो चुका था।

अनिरूद्ध के पुत्र वज्रनाभ को यदुवंशियों का राजा बनाकर श्री कृष्ण अपने परमधाम लौटना चाहते थे, परन्तु अभी एक कार्य शेषा था। उन्होंने अर्जुन को बुलाया और कहा- हे पार्थ द्वारिकापुरी समुद्र में डूबने वाली है। अतः तुम वहां जाओ और रानिवास की सभी स्त्रियों को वहां से निकालकर सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दो। श्री कृष्ण की आज्ञा के अनुसार अर्जुन द्वारिका के लिए प्रस्थान कर गये।

अर्जुन के जाने के बाद श्री कृष्ण परमधाम चले गये। जब अर्जुन द्वारिका पुरी से समस्त यादव स्त्रियों, (उनमें श्री कृष्ण की हजारों पत्नियां भी थी) को बाहर निकाल, उन्हें अपने साथ लेकर चल पड़े। उनके साथ धन, मणि, रत्न व आभूषणों से लदे अनेक रथ भी थे। अपने कंधे पर गाण्डीव धनुष धारण किये अर्जुन अकेले ही उन सबकी रक्षा करते हुए पंचनद देश (अब पंजाब) में जा पहुंचे। यात्रा लम्बी होने के कारण सभी थक गये थे।

अतः उन्होंने वहीं सबके साथ एक स्थान पर विश्राम करने का निश्चय किया। सभी यादव स्त्रियां अर्जुन के सुरक्षा घेरे में विश्राम करने लगी। जिस स्थान को उन्होंने विश्राम के लिए चुना था, वह स्थान अन्नार्मी, मलेच्छ लुटेरों के क्षेत्र में था। जब उन लुटेरों ने अपार धन-सम्पदा से भरे रथ तथा हजारों सुन्दर स्त्रियों को देखा तो वे सब उन्हें लूटने का विचार करने लगे। इन सबकी सुरक्षा के लिए उन्हें वहां एक पुरूष (अर्जुन) दिखाई दे रहा था। वे आपस में कहने लगे- भाईयों! देखो तो यह अकेला धनुर्धारी इतनी सारी सम्पत्ति व स्त्रियों को लेकर जा रहा है। जबकि हम संख्या में अधिक हैं।

यदि अब भी इसको न लूट सके तो हम पर धिक्कार हैं आओ चलो, इस धन व इन सभी स्त्रियों को उससे छीन लें। ऐसा विचार कर उन मलेच्छों ने अपने लाठी, डण्डे व पाषाण निर्मित (पत्थर से बने) हथियार उठाये और अर्जुन पर अपने दल-बल के साथ आक्रमण कर दिया। उन्हें इस प्रकार आक्रमण करते देख, अर्जुन उपहास जनक स्वर में बोले- अरे दुष्ट, पापियों! यदि तुम्हारी मरने की इच्छा न हो तो तत्काल लौट जाओ। अन्यथा तुम्हारी मौत निश्चित है।

कदाचित तुम मुझसे परिचित नहीं हो। मैं वही अर्जुन हूं, जिसने न जाने कितने बड़े-बड़े योद्धओं, महाबलियों को अपने इस गांडीव से यमपुरी पहुंचा दिया हैं। परन्तु अर्जुन के कथन का उन मलेच्छ लुटेरों पर तनिक भी प्रभाव न पड़ा। उन्होंने आगे बढ़ गाड़ियों में लदा सारा धन लूट लिया और स्त्रियों को बलात् (जबरन) घसीट कर ले जाने लगे। यह देख अर्जुन क्रोध भरे स्वर में बोला- ठहरो! अभी तुम्हें अपने तीक्ष्ण बाणों का स्वाद चखाता हूं।

यह कहकर अर्जुन अपने दिव्य धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने लगे, किन्तु वे धनुष की प्रत्यंचा सम्पूर्ण बल लगाकर भी चढ़ा न सके। अर्जुन विस्मित थे कि आखिर ये क्या हो रहा है? जिस धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाना उनका बायें हाथ का खेल था, आज वह प्रत्यंचा चढ़ क्यों नहीं रही है। बड़ी कठिनाई से उन्होंने प्रत्यंचा चढ़ा तो ली, किन्तु वह पुनः ढीली हो गई। तब उन्होंने अपने दिव्यास्त्रों का आहृान करने हेतु मंत्रों का उच्चारण करना चाहा, पर बहुत स्मरण करने पर भी वे उन मंत्रों का ध्यान न कर सके।

वे मंत्र भूल चुके थे। अर्जुन को आश्चर्य की सीमा न रही। तब किसी प्रकार ढीली प्रत्यंचा से ही उन्होंने लुटेरों पर बाण चलाने की चेष्टा की, तो बाण अपने लक्ष्य को बेंध न सके, कुछ बाण लुटेरों को लगे भी, परन्तु वे प्रभावहीन होकर गिर गये। मात्र प्रतिबिम्ब देखकर ही मछली की आंख बेंधने वाला अर्जुन अपने सम्मुख खड़े लुटेरों का वध न कर सके। यह अनहोनी देख वे विचलित हो उठे। तब उन्होंने अग्निदेव के द्वारा दिये गये अक्षम बाणों को शत्रुओं पर छोड़ा, किन्तु आश्चर्य! वे दिव्य बाण उन लुटेरों की लाठी-डण्डों से टकराकर ही नष्ट हो गये ।

तब अर्जुन ने अपने धनुष से ही लुटेरों पर प्रहार करने आरम्भ कर दिये, किन्तु अर्जुन के इन प्रहारों से घायल होने के स्थान पर वे लुटेरे अर्जुन के प्रहारों का उपहास उड़ाने लगे। सहसा अर्जुन को आभास हुआ कि उनके अस्त्रों-शस्त्रों की भांति ही, उनकी शारीरिक शक्ति भी अत्यन्त क्षीण पड़ चुकी है। अत्यन्त असहाय भाव से अर्जुन लुटेरों का सामना करते रहे तथा उन्होंने अपनी क्षमता के अनुरूप उन्हें रोकने की भी चेष्टा की, किन्तु उनकी सभी चेष्टाओं व प्रयत्नों को विफल करते लुटेरों ने समस्त धनराशि लूट ली और स्त्रियों को घसीटते हुए साथ ले जाने लगे।

सभी स्त्रियां कभी अर्जुन को अपनी रक्षा के लिए पुकारती, तो कभी श्री कृष्ण का स्मरण कर रही थी, किन्तु उनकी पुकार भी निष्प्रभाव हो गई थी। अर्जुन निस्तेज व सारहीन होकर घुटनों के बल बैठ गये, मानो अब उनमें अपने शरीर का बोझ उठाने की क्षमता भी शेष न रही थी। देखते-ही- देखते लुटेरे स्त्रियों व समस्त धन के साथ चम्पत हो गये। अपने शत्रुओं को धूल चटा देने वाला महापराक्रमी, वीरवर अर्जुन आज स्वयं कुछ लुटेरों से परास्त हो गये थे।

वे अपनी इस दुर्दशा पर विलाप करने लगे और स्वयं को पुकारते हुए तीव्र स्वर में बोले- हे धनुर्धारी अर्जुन! हे श्रेष्ठ वीरवर कुन्ती पुत्र! यह आज तुझे क्या हुआ? जो इन नीच पुरूषों के हाथों तुझे इतना अपमानित होना पड़ा? अपने जिन अस्त्रों-शस्त्रों व बाहुबल पर तूने कौरवों सहित अनेक दुष्टों का संहार किया, आज वह कहां लुप्त हो गया। अवश्य ही यह सब भगवान् श्री कृष्ण के साथ रहने का ही परिणाम था, जो तूने बली-महाबली, राजाओं-महाराजाओं को पलक झपकते ही परास्त कर दिया था। आज जब श्री कृष्ण साथ नहीं, तो तेरा सर्वस्व नष्ट हो गया।

यदि आज भी वे तेरे साथ होते तो ये मलेच्छ लुटेरे तेरा बाल भी बांका न कर पाते। इस प्रकार विलाप करते, व्यथित हृदय से अर्जुन इन्द्रप्रस्थ लौट आये, किन्तु वहां भी उनका चित्त शांत न हुआ, तब वे महर्षि व्यास जी के पास पहुंचे और उनके चरणों में गिर गये। व्यास जी तो ब्रह्म देवता मुनि थे। उन्हें भूत, वर्तमान, भविष्य सबकी जानकारी थी, किन्तु फिर भी उन्होंने अर्जुन से उसके दुःख का कारण पूछा। अर्जुन व्याकुल स्वर में बोले- प्रभु! जिन भगवान श्री कृष्ण की कृपा से हम लोगों में बल, तेज, वीर्य, पराक्रम श्री व कान्ति थी, वे हमें छोड़कर चले गये हैं। उनके बिना हम तिनकों के पुतलों की मान्निद शक्तिहीन व सारहीन हो गये हैं।

जिनकी दया से भीष्म जैसे अजेय योद्धा भी मेरे सम्मुख आकर टिक न सके, वे मधुसूदन हमारा त्याग कर गये। जिनके यशस्वी प्रभाव से मैं और मेरा गाण्डीव धनुष तीनों लोकों में प्रसिद्ध थे, आज उन्हीं श्री कृष्ण की अनुपस्थिति में तुच्छ मलेच्छों ने लाठी-डण्डों के बल पर मुझे परास्त कर दिया। हे महामुने! मेरे संरक्षण में कई हजार अनाथ स्त्रियां थी, उन्हें उन पापियों से बचाने के लिए मैंने हर सम्भव प्रयास किया, किन्तु मैं उन लुटेरों का कुछ भी बिगाड़ न सका, वे मेरी आंखों के समक्ष सभी स्त्रियों व धन को सरलता से लूट कर ले गये। मुझे विस्मय व शोक इस बात का नहीं है, कि मैं श्री कृष्ण के बिना बलहीन हो गया हूं।

व्यथा तो यह है कि मैं नीच पुरूषों द्वारा अपमानित व परास्त होकर भी निर्लज्जापूर्वक जीवित हूं। अर्जुन की व्यथा की बाबत जान व्यास जी ने शान्त व मधुर वाणी में कहा- हे पाण्डुनंदन! तुम अब शोक व लज्जा का त्याग कर दो, यह सब जो भी घटित हुआ वह मात्र काल की गति के कारण ही हुआ है। इस सृष्टि में जो कुछ भी व्याप्त है, उसे काल की उत्पन्न करता है, वहीं पालन करता है और वही संहार भी करता है ।

तुम मात्र यही सोचों व समझो। व्यास जी अर्जुन को समझाते हुए पुनः बोले- तुम्हारा यह कहना सर्वथा उचित है कि तुमने जो यशो-कीर्ति प्राप्त की थी, वह श्री कृष्ण का ही प्रभाव था, उन्हीं की कृपा थी। उन्होंने पृथ्वी को पाप मुक्त करने व उसका भार कम करने के लिए ही पृथ्वीलोक में अवतार लिया था। वह कार्य पूर्ण हो चुका है। अतः वे अपनी इच्छानुसार अपने परमधाम को वापस लौट गये हैं। हे पार्थ! इसलिए तुम्हें अपनी पराजय से व्यथित नहीं होना चाहिए, क्योंकि विजय व पराजय समय के अनुसार ही होती है।

फिर वे बोले- जिस समय तुमने अकेले ही भीष्म जैसे अजेय योद्धा सहित अनेक महाबलियों का वध किया था, क्या उस समय वे वीरवर योद्धा अपने से न्यून पुरूष अर्थात् तुम्हारे हाथों परास्त हो, मृत्यु को प्राप्त नहीं हुए थे? भगवान् श्री कृष्ण की कृपा व प्रभाव से जिस प्रकार वे उस समय तुम्हारे द्वारा पराजित हुए और तुम्हें विजयश्री प्राप्त हुई, ठीक उसी प्रकार तुम्हें भी उन नीच लुटेरों के हाथों परास्त होना पड़ा, क्योंकि उन पर भगवान की कृपा थी। ये जगतपति श्री कृष्ण भिन्न-भिन्न शरीरों में प्रवेश करके संसार का पालन व संहार करते है।

जब तुम्हारे अभ्युदय का समय था, तब भगवान श्री कृष्ण तुम्हारे सहायक बने थे और जब वह समय व्यतीत हो गया। तब वे तुम्हारे शत्रुओं के सहायक हो गये। अर्जुन शान्त भाव से व्यास जी के एक-एक शब्द को सुन रहे थे। व्यास जी पुनः बोले- हे पार्थ! तनिक सोचो, कौन जानता था, कि इच्छामृत्यु का वरदान पाए, गंगापुत्र भीष्म तुम्हारे हाथों मारे जायेंगे और ऐसे वीरवर योद्धा को नीच लुटेरों के हाथों परास्त होना पड़ेगा? यह भी किसी ने नहीं सोचा था।

परन्तु काल के नियमानुसार दोनों ही बातें सम्भव हुई। जिस समय श्री कृष्ण ने भूलोक का त्याग किया, उसी समय कलयुग ने यहां पैर रख दिया था। अतः हे कुन्तीनंदन! तुम काल की गति को पहचानों। यादवों के संहार के पश्चात् अब तुम लोगों के संहार का समय भी निकट है । अब तुम यहां से जाकर, धर्मराज युधिष्ठिर से मेरे द्वारा कहे गये वचनों को अवश्य कहना।

इस तरह अर्जुन के व्यथित हृदय को व्यास जी के वचनों से शान्ति प्राप्त हुई। वह उन्हें प्रणाम कर वापस लौट गये। इन्द्रप्रस्थ आकर अर्जुन ने व्यास जी के कथन को धर्मराज को सुना दिया। धर्मराज युधिष्ठिर व्यास जी के कथन में छुपे संकेत को सहर्ष समझ गये और उन्होंने तत्काल द्रौपदी व अपने भाइयों सहित महाप्रस्थान का निश्चय कर लिया।

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