Shishupal Ka Vadh – साक्षात् भगवान नारायण के अवतार जगन्नियन्ता, देवाधिदेव,  अखिललोकपति ही वासुदेव श्री कृष्ण के रूप में पृथ्वी पर अवतरित हुए थे। उन्होंने भागवत् की तरह महाभारत में सत्य को स्वीकार किया।

Shishupal Ka Vadh

जब धर्मराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में बड़े-बड़े महर्षियों के साथ देवर्षि नारद यज्ञ की शोभा को देखने के लिए पधारे थे, तब अन्यान्य राजाओं के साथ भगवान श्री कृष्ण को सभा-मण्डप में उपस्थित देखकर उन्हें भगवान् नारायण के भूमण्डल पर अवतरित होने की बात स्मरण हो आई थी। उस समय नारद जी ने मन-ही-मन पुण्डरीकाक्ष श्री हरि का चिन्तन किया था।

कुछ ही देर बाद सभा में यह प्रश्न उठा कि आगन्तुक महानुभावों में सर्वप्रथम किसकी पूजा की जाय? तब वीर शिरोमणि महात्मा भीष्म ने कहा- मैं तो सम्पूर्ण भूमण्डल में श्री कृष्ण को ही प्रथम पूजन के योग्य समझता हूं। भीष्म जी भरी सभा में श्री कृष्ण की महिमा का बखान करते हुए बोले थे- वासुदेव ही इस विश्व के उत्पत्ति एंव प्रलय स्वरूप हैं और इस चराचर प्राणि जगत् का अस्तित्व उन्हीं के लिए है।

वासुदेव ही सनातन कर्ता और समस्त प्राणियों के अधीश्वर हैं, अतएव परम पूजनीय हैं। देवर्षि नारद ने भी भीष्म जी के इस प्रस्ताव का समर्थन किया था। यही नहीं उस प्रस्ताव का अनुमोदन करने वाले सहदेव परदेवताओं ने आकाश से पुष्प वृष्टि की थी और आकाशवाणी द्वारा साधु-साधु कहकर उनकी सराहना की थी।

भीष्म पितामह के उपुर्यक्त प्रस्ताव का विरोध करते हुए चेदिराज शिशुपाल ने जो श्री कृष्ण का जन्म से ही विरोधी था तथा अपनी बहन रूक्मिणी के श्री कृष्ण द्वारा हरण के बाद से उनसे और भी ईष्र्या करता था। उसने बालकपन में श्री कृष्ण द्वारा पूतना, बकासुर, केशी, वृषासुर और कंस के मारे जाने, गोवर्धन पर्वत के उठाने की निंदा की थी।

उस समय शिशुपाल ने श्री कृष्ण को तथा उनकी प्रशंसा करने वाले भीष्म पितामह को बहुत खरी-खोटी सुनाई थी। परन्तु श्री कृष्ण वीरतापूर्वक उसके सारे अपराधों को सहन करते रहे। अन्त में जब उन्होंने देखा कि अन्य सभासदों के समझाने पर भी वह किसी प्रकार शान्त नहीं हो रहा, तब उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र का स्मरण किया और सबके देखते-ही-देखते उस तीखी धार वाले चक्र से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया था।

उस समय सभा में उपस्थित सब लोगों ने देखा था कि शिशुपाल के शरीर से धड़ कटने के बाद तेज का पुंज निकला था और वह श्री कृष्ण को प्रणाम कर उन्हीं के शरीर में प्रवेश कर गया था। इस अलौकिक घटना से श्री कृष्ण की भगवत्ता तो प्रमाणित होती ही है, साथ ही जो लोग यहां उपस्थित थे, उन्हें भी इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण मिल गया कि चाहे कोई कैसा भी पापी क्यों न हो, भगवान् के हाथ से मारे जाने पर उसकी मुक्ति हो जाती है, वह भगवान के स्वरूप में विलीन हो जाता है। यही उनकी अनुपम दयालुता है। वे मारकर भी जीवन का उद्धार करते हैं।

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