Pandu ki Mrityu

Pandu ki Mrityu – भीष्म पितामह ने पाण्डु का विवाह राजा भोज की कन्या ‘कुन्ती’ देवताओं की तपस्या करती थी। देवताओं ने उसे प्रसन्न होकर वर दिया था कि तुम जिस भी देवता का स्मरण करोगी, वह तुम्हारे सम्मुख उपस्थित हो जायेगा। उसे दुर्वासा ऋषि ने एक मंत्र भी दिया था।

पाण्डु का दूसरा विवाह मद्रराज की बहन माद्री से हुआ था। एक दिन राजा पाण्डु शिकार खेलने हेतु वन में गये। वहाँ उनकी दृष्टि विहाररत मृग-मृगी के जोड़े पर पड़ी। राजा ने उनका शिकार करने इच्छा से बाण चला दिये। जिससे मृग रूपी किन्दम ऋषि आहत हो गये।

यह देख पाण्डु को बहुत दुःख हुआ, परन्तु अब वे क्या कर सकते थे, होनी बड़ी बलवान होती है।

ऋषि किन्दम ने अपना परिचय देकर कहा-

“हे राजन्! तुमने यह अनुचित कार्य किया है। आज जिस तरह मैं अपनी स्त्री से भोग करने की इच्छा करते समय प्राण त्याग रहा हूँ। ठीक उसी तरह जब तुम स्त्री भोग में तत्पर होंगे, तभी मर जाओगे।’’ यह कहकर ऋषि किन्दम ने प्राण त्याग दिये। इससे राजा पाण्डु को अपार दुःख हुआ और वे वन में ही तप करने लगे। उन्होंने अपनी पत्नियों को भी वन में ही रहकर तप करने को कहा।

किन्दम ऋषि ने श्राप को स्मरण रखते हुए उन्होंने स्वंय को स्त्री समागम से अलग रखा। काफी समय ऐसे ही बीतता रहा। एक दिन उन्हें विचार आया कि यदि वे बगैर पुत्र के मृत्यु को प्राप्त हो गये तो उनकी गति कैसे होगी।

इस विचार के आने पर उन्होंने कुन्ती से कहा- ‘हे प्रिये! तुम आपद्वय विधि के अनुसार देवताओं से पुत्र उत्पन्न करो।’

पति के वचन सुनकर कुन्ती ने ऋषि दुर्वासा द्वारा दिये मंत्र का आवाहन किया और उसके द्वारा धर्म को स्मरण किया। धर्म द्वारा युधिष्ठिर नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। पवन देव का स्मरण करने से भीमसेन का जन्म हुआ। वन में पाण्डु कुन्ती के साथ इन्द्रदेव की आराधना कर रहे थे। इन्द्र देव ने प्रकट होकर कुन्ती से कहा- ‘मैं तुमको एक पुत्र दूंगा।’

इन्द्र द्वारा अर्जुन नामक पुत्र पैदा हुआ।

यह देखकर पाण्डु की दूसरी पत्नी माद्री, राजा से कहने लगी-‘यदि कुन्ती उपाय करे’ तो मुझे भी सन्तान सुख की प्राप्ति हो सकती है।’ कुन्ती ने उसे सुझाव दिया- ‘माद्री तुम किसी भी देवता का स्मरण करो, जिससे तुम सन्तान की प्राप्ति चाहती हो।’

कुन्ती के वचन सुन माद्री ने अश्विनी कुमारों का स्मरण किया। तब उन दोनों ने माद्री को नकुल और सहदेव नामक पुत्र प्रदान किये। ब्राह्मणों ने इन राजकुमारों का नामकरण संस्कार इस प्रकार किया- सबसे बड़े पुत्र का नाम युधिष्ठिर, उससे छोटे का अर्जुन, फिर तीसरे का भीम तथा माद्री की प्रथम सन्तान का सहदेव, दूसरी का नकुल रखा गया।

पाण्डु की आयु पूरी हो चुकी थी, अतः वे सहसा कामवश माद्री  को बुलाने लगे। माद्री के रोकने पर भी राजा समागम में तत्पर हो गये। ऋषि श्राप के कारण तत्काल ही उनकी मृत्यु हो गई।

माद्री चीख पड़ी। कुन्ती व पाण्डु के पाँचों बालक दौड़े हुए आये। माद्री ने कुन्ती से कहा- ‘हे बहन! नकुल व सहदेव की सुरक्षा का दायित्व तुम्हें सौंपकर मैं पति के साथ जा रही हूँ।’

यह कहकर माद्री ने भी प्राण त्याग दिये। तत्पश्चात् कुन्ती पाँचों बालक सहित वन से प्रस्थान कर हस्तिनापुर आ पहुँची। उसे पहुँचाने के लिए हजारों तपस्वी भी साथ आये। तपस्वियों ने कहा- ‘ये महारानी कुन्ती और महाराज पाण्डु के पाँचों पुत्र हैं।’ यह कहकर सभी तपस्वी वापस लौट गये। तब महाराज धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर ने भीष्म के साथ वन में जाकर पाण्डु तथा माद्री की अन्त्येष्टि की।

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