Pandavo ke agyatvas ki avdhi mahabharat kahani in hindi – बारह वर्ष का वनवास काटने के बाद, पाण्डवगण अज्ञातवास के समय राजा विराट की नगरी विराट नगर जा पहुंचे। वहां उन्होंने राजा विराट के दरबार में नौकरी कर ली। राजा विराट के यहां युधिष्ठिर ने कंक नामक ब्राह्मण के रूप में नौकरी की, भीमसेन बल्लव नाम से रसोइया बने, अर्जुन वृहन्नला नामक हिजड़े के रूप में रनिवास में रहने लगे, नकुल ग्रंथिक नाम से अश्वशाला में कार्य करने लगे तथा सहदेव सन्निपाक नाम से गोशाला के संरक्षक बने, जबकि महारानी द्रौपदी सैरन्ध्री के नाम से राजा विराट की महारानी सुदेष्णा की श्रृंगार परिचारिका के रूप में नियुक्त हुई।
इस प्रकार द्रौपदी सहित पाण्डवगण विराट नगर में सुरक्षित रूप से अज्ञातवास की अवधि पूरी करने लगे परन्तु पाण्डवों के भाग्य में अभी सुख के क्षण नहीं लिखे थे। राजा विराट की रानी सुदेष्णा का भाई कीचक दुष्ट व अत्याचारी प्राणी था, उससे सभी भय खाते थे, यहां तक की उसकी दुष्ट प्रकृति से स्वयं राजा विराट भी भयभीत रहते थे। वे स्वयं उससे घृणा करते थे, किन्तु पत्नी का भाई होने के कारण वे इस अधर्मी मानव को सहन कर रहे थे। द्रौपदी महारानी सुदेष्णा की सेवा में हर क्षण तत्पर रहती थी।
एक दिन रानीवास में सुदेष्णा का भाई कीचक आया। वहां उसने अत्यन्त रूपवती द्रौपदी को अपनी बहन की परिचारिका के रूप में देखा तो, देखता ही रह गया। उसने अपनी बहन से द्रौपदी का परिचय पूछा। तब सुदेष्णा बोली- ये मेरी सेविका सैरन्ध्री है। कीचक द्रौपदी के अप्सराओं जैसे सौंदर्य पर मुग्ध हो गया। द्रौपदी उसके मनोभावों को भली-भांति परख चुकी थी। उस समय तो कीचक चला गया, किन्तु एक दिन अवसर पाकर उसने एकान्त में द्रौपदी को रोक लिया और अत्यन्त प्रेम पूर्ण स्वर में बोला- सैरन्ध्री! तुम्हारे इस स्वर्ग की अप्सराओं जैसे रूप-लावण्य ने मेरे मन को मोह लिया है।
तुम्हें देखकर कदाचित यह भ्रम होता है, जैसे तुम किसी राज्य की राजकुमारी हो। द्रौपदी उसके वचनों को सुन, कीचक के मन में उत्पन्न पाप पूर्ण भावों को समझ गई। वह भीतर-ही-भीतर कांप उठी, बड़ी कठिनाई से वह बोली- मैं मात्र एक सेविका हूं। कीचक बोला- जानता हूं, किन्तु तुम्हें एक सेविका के रूप में देखकर मेरा हृदय व्यथित हो रहा है। तुम परिचारिका बनने योग्य नहीं, वरन् किसी राज्य की महारानी बनने योग्य हो। किन्तु मैं परिचारिका के रूप में ही संतुष्ट हूं। द्रौपदी ने तत्परता से कहा।
परन्तु मैं तुम्हारे इस रूप से संतुष्ट नहीं। द्रौपदी ने क्रोधपूर्ण दृष्टि से कीचक को देखा, किन्तु दुष्ट कीचक पर द्रौपदी की उस आग्नेय दृष्टि का कोई प्रभाव न पड़ा, वह निर्लज्जता से बोला- सैरन्ध्री मैं तुमसे विवाह कर, तुम्हें अपनी रानी बनाना चाहता हूं। मैं तुम्हें वचन देता हूं कि संसार के समस्त सुख मैं तुम्हारे चरणों में अर्पित कर दूंगा। परन्तु मुझे आपका यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं। द्रौपदी ने साहसपूर्ण स्वर में कहा। द्रौपदी के इस उत्तर पर, कीचक आपे से बाहर हो गया, वह क्रोध से सुलगता हुआ बोला- इस नगर में कोई प्राणी ऐसा नहीं है, जो मेरी बात का अनादर करे। सैरन्ध्री! तुम्हें मुझसे विवाह करना ही होगा……अन्यथा मैं तुम्हारी वह दुर्दशा करूंगा, जिसकी कल्पना मात्र से तुम थर्रा उठोगी। ऐसा कहकर नीच कीचक चला गया।
द्रौपदी चिन्तित हो उठी। वह एकाएक समझ न सकी कि ऐसी विकट परिस्थिति में उसे क्या करना चाहिए? कीचक व द्रौपदी की बातें सुदेष्णा छिपकर सुन रही थी, कीचक के जाते ही महारानी सुदेष्णा द्रौपदी के पास आ गई। द्रौपदी उन्हें वहां देख चैंक पड़ी। चैंकों मत सैरन्ध्री! तुम कीचक को नहीं जानती। वह मेरा भाई ही नहीं, इस राज्य का आधार स्तम्भ भी है। तुमने कीचक के परिणय निवेदन को ठुकराकर उचित नहीं किया। मेरी मानो तो उसकी बात स्वीकार कर लो।
इसी में तुम्हारी भलाई है। महारानी सुदेष्णा के वचन सुनकर द्रौपदी आश्चर्यचकित रह गई। एक नारी होने पर भी वह जिस प्रकार दुष्ट कीचक के पाप में सम्मिलित होने के लिए कह रही थी, यह द्रौपदी के लिए गंभीर चिन्ता का विषय था। कितनी विचित्र बात थी, द्रौपदी यह सोच रही थी कि कीचक की इस दुर्भावना को वह सुदेष्णा से बताएगी, जिससे वह अपने भाई को ऐसा करने से रोकें।
किन्तु सुदेष्णा को कीचक का पक्ष लेते हुए देख, द्रौपदी मौन ही रही। वह सुदेष्णा की बात का कोई उत्तर दिये बिना अपने कार्य में लग गई। द्रौपदी चाहती तो वह यह बात पाण्डवों से कह सकती थी, किन्तु उसने ऐसा नहीं किया। अभी अज्ञातवास के कुछ माह शेष थे। वह नहीं चाहती थी कि उस अवधि में कोई विघ्न-बाधा उत्पन्न हो। भगवान मेरी रक्षा करेंगे। यही सोचकर द्रौपदी अज्ञातवास के शेष दिन सकुशल बीत जाने की प्रतीक्षा करने लगी। द्रौपदी की इस चुप्पी को कीचक ने उसकी कमजोरी समझा।
अपने इसी विचार के तहत उसने एक दिन, दिन के उजाले में, राजमहल में ही सैरन्ध्री (द्रौपदी) का हाथ पकड़ लिया। जब द्रौपदी उससे अपना हाथ छुड़ाकर भागने लगी तो, उसने उसकी साड़ी का एक छोर थाम लिया और उसे घसीटने लगा। द्रौपदी उसकी इस कुचेष्टा पर जोर-जोर से चीखने लगी। उसे चीखता देख अचानक कीचक ने द्रौपदी को छोड़ दिया।
द्रौपदी कीचक के इस अक्षम्य अपराध की प्रार्थना लेकर राजा विराट की सभा में जा पहुंची और हाथ जोड़कर विनती भरे स्वर में बोली- महाराज! कीचक से मुझ दासी की मर्यादा बचाइये। कीचक का नाम सुनते ही विराट सभा के सभासदों सहित स्वयं विराट नरेश भी मौन रह गये।
जैसे ही द्रौपदी की चीख भीम के कानों में पड़ी। वे दांत पीसते हुए तेजी के साथ उस ओर बढ़े, किन्तु धर्मराज युधिष्ठिर ने संकेत देकर उन्हें रोक लिया। इस तरह उस दिन की यह घटना, वहीं पर समाप्त हो गई, किन्तु कीचक के हाथों अपमानित द्रौपदी क्रोध में भर उठी, उसके हृदय में प्रतिशोध की ज्वाला दहकने लगी थी। कीचक की कामांधता और दुस्साहस को देख उसे यह विश्वास हो गया था, कि अब पाण्डवों के अतिरिक्त यहां उसे कीचक से बचाने वाला कोई नहीं है। एक दिन छिपते-छिपाते वह रसोईघर में भीम के पास जा पहुंची।
वहां भीम रसोईये के रूप में कार्य कर रहे थे। द्रौपदी ने भीम को सम्पूर्ण वृतान्त सुनाते हुए क्रोधमिश्रिण करूण स्वर में कहा- अब से पूर्व चाहे दुर्योधन हो अथवा दुःशासन या फिर जयद्रथ! मैं इन सभी लोगों के द्वारा अपमानित होकर भी मात्र तुम लोगों के कारण ही यह सब सहन कर गई, किन्तु अब यहां उस दुष्टात्मा कीचक से मेरी रक्षा करने के लिए यदि तुम आगे नहीं बढ़ोगे, तब मेरे पास आत्महत्या के अतिरिक्त दूसरा उपाय न बचेगा।
द्रौपदी की व्यथा सुन भीम व्यथित हो उठे, किन्तु काल की गति को समझते हुए, उन्होंने द्रौपदी से कहा- पांचाली! यदि मेरा वश चलता तो मैं कीचक को उसी क्षण यमलोक पहुंचा देता, जिस क्षण उसने तुम्हारे साथ अभ्रदता की थी, किन्तु धर्मराज के आदेशात्मक संकेत ने मुझे रूकने पर बाध्य कर दिया। हे द्रुपदनंदिनी! हमारे अज्ञातवास में मात्र डेढ़ मास शेष हैं। अतः अभी जो भी करना है, वह इस प्रकार करना होगा कि हमारी वास्तविकता उजागर न हो।
भीम की बात सुन द्रौपदी ने कहा- हे महाबली! आपका कहना उचित है, परन्तु उस नीच, पापकर्मी का अन्त देखे बिना अब मेरे लिए एक क्षण भी जीवित रहना असम्भव है। मैं अपमान का घूंट पीकर, घुट-घुटकर मरने को विवश हो रही हूं। कुछ पल विचार करने के पश्चात् भीम बोला- कल्याणी! तुम निश्चिंत रहो। अब वह दुष्ट तुम्हारा स्पर्श तो दूर, तुम्हें दृष्टिभर देख भी नहीं पायेगा। जैसे तुम चाहती हो वैसा ही होगा, परन्तु यह कार्य इस प्रकार सम्पन्न होना चाहिए कि हमारा भेद किसी पर उजागर न हो।
द्रौपदी ने असमंजसता भरे स्वर में पूछा- ऐसा कैसे होगा महाबली? तब भीम बोले- तुम ऐसा करो कीचक को अपनी बातों में उलझाकर रात्रि के समय राजा विराट की नृत्यशाला में ले आना। मैं उस पापी का वहीं अन्त कर दूंगा। द्रौपदी ने भीम के कहे अनुसार ही किया। कीचक तो उस पर मोहित था अथवा यूं समझो कि उसका काल उसे पुकार रहा था।
द्रौपदी द्वारा रात्रि में नृत्यशाला में जाने का निमंत्रण पाकर वह प्रसन्नता से खिल उठा। वह रात्रि में रेशमी वस्त्र धारण कर चुपचाप नृत्यशाला की तरफ चल दिया। इधर रात्रि होने पर भीम द्रौपदी की साड़ी पहन नृत्यशाला में पड़ी शैय्या पर इस तरह बैठ गये कि कीचक द्वारा देखने पर उसे यही लगे-सैरन्ध्री उसकी प्रतीक्षा में बैठी है और हुआ भी यही।
कीचक नृत्यशाला में फैली हल्की रोशनी में शैय्या पर बैठे भीम को स्पष्ट नहीं देख पा रहा था। वह केवल साड़ी को देखकर उसे सैरन्ध्री ही समझा था। जैसे ही कीचक ने भीम को सैरन्ध्री समझ उसका स्पर्श किया, भीम ने एक ही झटके में उसे उठाकर अपनी भुजाओं में जकड़ लिया। कीचक भी कम शक्तिशाली न था। उसने भीम की बलिष्ठ भुजाओं के बधंन से निकलने का भरपूर प्रयास किया, किन्तु सफल न हो सका।
भुजाओं की जकड़े कीचक को भीम ने बहुत जोर से धरती पर पटक दिया। इससे पूर्व कि कीचक संभल पाता, भीम ने अपने बलिष्ठ प्रहरों से उसके हाथों, पैरों, सिर व गर्दन आदि समस्त अंगों को उसके धड़ में घुसाकर उसका वध कर दिया। कीचक के मरते ही भीम वहां से चम्पत हो गए, किन्तु द्रौपदी वहीं एक कोने में खड़ी कीचक की दुर्दशा देख रही थी, वह ज्यों की त्यों खड़ी रही। भीम व कीचक के बीच हो रही उठा-पटक की आवाजें सुनकर शीघ्र ही राजमहल के लोग वहां चले आये।
जैसे ही उनकी दृष्टि कीचक के दुर्गत हुए शव पर पड़ी, उनके रोंगटे खड़े हो गये। द्रौपदी वहीं खड़ी ही थी। उसे वहां देख कीचक के सम्बन्धियों ने सोचा- अवश्य ही कीचक के वध में इस दुष्ट सेविका का हाथ है। ऐसा सोचते ही वे सभी विक्षुब्ध होकर शोर मचाने लगे-ये दासी ही कीचक की मृत्यु का कारण है, इसी दुष्टा ने कीचक को मार डाला। अतः इसे भी कीचक के साथ जला दो। विराट नरेश तो पहले ही कीचक व उसके सम्बन्धियों से भयभीत रहते थे, इसी कारण उन्होंने भी उन्हें ऐसा करने की सहमति दे दी।
विराट नरेश की सहमति प्राप्त होते ही कीचक के सम्बन्धियों ने सैरन्ध्री को कीचक की अर्थी के साथ बांध दिया और उसे शमशान की ओर ले जाने लगे। द्रौपदी अपनी विवशता पर विलाप करने लगी तथा अपनी सहायता के लिए शोर मचाने लगी। भीम ने जैसे ही यह दृश्य देखा, वह उन लोगों के शमशान पहुंचने से पूर्व ही स्वयं वहां पहुंच गये और कीचक की अर्थी आने की प्रतीक्षा करने लगे। जैसे ही कीचक के सम्बन्धी कीचक की अर्थी को लेकर शमशान में पहुंचे, भीम ने तत्काल यम का विकराल रूप धारण कर एक विशाल वृक्ष उखाड़ लिया और उन सभी पर टूट पड़े।
भीम का विकराल रूप देख वे सभी भयभीत हो, अपने प्राण बचाकर भागने लगे। उनके भाग जाने पर भीम व द्रौपदी चुपचाप राजमहल लौट आये ओर अपने-अपने कार्यो में इस तरह व्यस्त हो गये, जैसे कि कुछ हुआ ही न हो। अज्ञातवास के कुछ दिन ही शेष बचे थे। अतः अन्य पाण्डवों ने भीम के इस साहस की प्रशंसा तो की, किन्तु गुप्तरूप से। जब महारानी सुदेष्णा ने इतना सब कुछ हो जाने पर भी सैरन्ध्री बनी द्रौपदी को सकुशल देखा तो वह समझ गई- सैरन्ध्री अवश्य ही पतिव्रता व सती-साध्वी स्त्री है। तब सुदेष्णा ने सैरन्ध्री से अपने व अपने भाई के अपराधों की तरफ से क्षमा मांगी।
क्षमाशील द्रौपदी ने सुदेष्णा को क्षमा तो कर दिया। किन्तु उसके बार-बार भी पूछने पर द्रौपदी ने यह नहीं बताया कि यह सब कैसे हुआ? विराटनगर में अज्ञातवास की अवधि पूरी हो जाने पर जब पाण्डवों ने खुद को राजा विराट के समक्ष प्रकट किया। उस समय राजा विराट ने कृतज्ञतावश अपनी कन्या उत्तरा कुमारी का विवाह अर्जुन से करना चाहा, परन्तु अर्जुन ने यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। उन्होंने कहा- राजन! मैं बहुत काल तक आपके रानीवास में रहा हूं और आपकी कन्या को एकान्त में तथा सबके सामने भी पुत्री के रूप में देखता आया हूं। उसने भी मुझ पर पिता की भांति ही विश्वास किया है।
मैं उसके सामने नाचता था और गाता था। इसलिाए वह मुझसे बहुत प्रेम करती है, परन्तु सदा मुझे गुरू ही मानती आई है। वह वयस्क हो गई है और उसके साथ मुझे एक वर्ष तक रहना पड़ा है। अतः आपको या किसी और को हम दोनों के प्रति अनुचित सन्देह न हो, इसलिए उसे मैं अपनी पुत्रवधु के रूप में वरण करता हूं। अर्जुन की इस पवित्र भाव की सब लोगों ने प्रशंसा की तथा उत्तरा अभिमन्यु के साथ ब्याह दी गई। अर्जुन जैसे महान इन्द्रियजयी ही इस प्रकार युवती कन्या के साथ एक वर्ष तक बेहद निकट रहकर भी स्वयं को अछूता रख सके।
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