Pandavo ka Lakshagrah Dahan – पाण्डव अपनी नम्रता, दयालुता, सदाचार व विचारशीलता के कारण अत्यधिक लोकप्रिय हो गये थे। धृतराष्ट्र इनके गुणों की प्रशंसा सुन-सुनकर म नही मन उनसे कुढ़ने लगे थे। इसी कारण वह दुष्ट दुर्योधन की उचित-अनुचित सभी तरह की बातें सहज ही स्वीकार कर लेते थे। दुर्योधन चाहता था कि यदि किसी तरह पाण्डव कुछ दिनों के लिए हस्तिनापुर से चले जायें, तो उनकी अनुपस्थिति में उनके पैतृक अधिकारों को छीनकर, स्वंय राजा बन जाऊंगा।
ऐसी इच्छा से उसने अपने अन्धे एंव प्रज्ञाहीन पिता को पट्टी पढ़ाकर इस बात के लिए राजी कर लिया। धृतराष्ट्र ने पुत्र मोह में मानसिक रूप से भी अन्धें होकर पाण्डवों को बुलाया और कहा- पुत्र युधिष्ठिर! वारणावत में अति पावन मेला लगा है, मैं चाहता हूं कि तुम अपनी माता व भाइयों के साथ उस मेले को देखने जाओ।
मैं तो अन्धा हूं, मेला देखने जाऊं भी, तो क्या लाभ होगा? दुर्योधन हठी है, मैं जानता हूं, वह वहां जाने के लिए तैयार न होगा, अतः तुम चले जाओ। धर्मराज युधिष्ठिर धृतराष्ट्र का बहुत आदर करते थे, इसी कारण उन्होंने उनकी आज्ञा का उल्लंघन करना उचित नहीं समझा और बोले- जो आज्ञा! युधिष्ठिर अपने चारों भाइयों व माता कुन्ती सहित वारणावत के लिए प्रस्थान कर गये।
पाण्डव दुर्योधन द्वारा रचित षड्यंत्र से अनभिज्ञ थे। वे नहीं जानते थे कि धृतराष्ट्र ने पुरोचन की आज्ञा दे वारणावती में पहले ही लाक्षागृह लाख से बना महल बनवा दिया था। वारणावत पहुंचने से पूर्व पाण्डवों को भाग्य से राह में विदुर जी मिल गये और विदुर जी ने धर्मराज को दुर्योधन द्वारा रचा सम्पूर्ण षड्यंत्र बता दिया, परन्तु धर्मराज भयभीत नहीं हुए और अपनी माता व भाइयों के साथ उसी भवन में रहने का निश्चय किया।
युधिष्ठर के निर्णय को सुनकर विदुर जी मुस्कुराकर बोले- हे धर्मराज! मैं पहले से ही जानता था कि आप धृतराष्ट्र की आज्ञा का उल्लंघन किसी भी रूप में नहीं करेंगे, इसी कारण मैंने आप सब की प्राण रक्षा के लिए लाक्षागृह में पहले ही सुरंग खुदवानी आरम्भ कर दी है। जिसका एक गुप्त द्वार लाक्षागृह में है और दूसरा द्वार जंगल में खुलता है।
विदुर जी की नीति पूर्ण योजना को सभी पाण्डव तत्क्षण ही समझ गये और उनसे विदा ले, वारणावत में बने लाक्षागृह में जा पहुंचे। विदुर जी की योजना के अनुसार जिस दिन सुरंग बनकर तैयार हो गई, उसी रात महाबली भीम ने लाक्षागृह में आग लगा दी तथा अपनी माता व भाइयों को कन्धे पर बैठा सुरंग में प्रवेश कर गये।
उस सुरंग द्वारा वे छहों प्राणी जंगल में जा पहुंचे। इधर लाक्षागृह के जल जाने व पाण्डवों का उसमें भस्म हो जाने का समाचार सुन धृतराष्ट्र व दुर्योधन बहुत खुश हुए, परन्तु लोग दिखावे के लिए उन्हें शोकातुर होने का अभिनय करना पड़ा। कुछ दिन बाद धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को चुपचाप हस्तिनापुर का राजा बना दिया।
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