Manushya ke Bheeti Rog ke Karan- मनुष्य के भीति रोग का कारण

मानसिक रोगों में भीति रोग सबसे अधिक प्रचलित रोग है। भय की मूल प्रवृत्ति है। भय से मनुष्य को आत्मरक्षा की प्रेरणा मिलती मनुष्य है; सीधे रास्ते पर चलने की सतर्कता मिलती है, और भय के अतिशय से ही मनुष्य का मन विकृत होकर निश्चेष्ट होता है। भय मनुष्य की कार्य-शक्ति का सबसे बड़ा शत्रु है।

अतिशय भय अनेक रूपों में मनुष्य की चेष्टाओं पर प्रभाव डालता है। चिन्ता की तरह भय-भावना भी भयानक कही जाने वाली वस्तु पर नहीं, अपितु मनुष्य की मनोवृत्ति पर ही निर्भर करती है। अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार मनुष्य अपने भयों की दुनिया आप बना लेता है। जिसमें कुछ ऐसे बन जाते हैं कि सर्वसाधारण को वह तर्कसंगत प्रतीत नहीं होते ।

Manushya ke Bheeti Rog ke Karan

कोई भय जब ऐसा असाधारण रूप पकड़ ले तो व्यक्ति को सतर्क हो जाना चाहिए। ऐसी विकृति उसे उन्माद के रास्ते पर ले चलती है। कुछ अंशों में तो यह वृत्ति हम सभी में रहती है; लेकिन जब वह उत्कट रूप में आने लगे तो सावधानी की आवश्यकता होती है।

इन भयों के अनेक विलक्षण रूप दिखाई देते हैं । उनमें से ही एक भय ‘बन्द जगह’ का भय है।

एक दिन की बात है । नाई की दुकान पर भीड़ लगी थी। कुछ लोग हजामत करवा रहे थे और कुछ प्रतीक्षा में बैठे थे। इतने में अचानक एक हजामत की कुर्सी पर बैठा आदमी चौंककर उठ खड़ा हुआ। आधी हजामत हुए चेहरे का पुता हुआ साबुन का झाग पोंछकर जल्दी से दरवाज़े के बाहर निकल भागा।

दूसरे लोग आश्चर्यचकित देखते रह गए। एक ने नाई से पूछा: “इसे क्या हो गया, अपना कोट भी छोड़ गया और हजामत के आधे में ही उठ भागा।” नाई ने जवाब दिया : “यह रोज ही ऐसे करता है। उसका ख्याल है कि वह छोटी जगहों पर बन्द होकर देर तक नहीं रह सकता। इससे उसका दम घुटता है। एक-दो घण्टे बाद वह फिर वापस आ जाएगा।

तब मैं उसकी हजामत पूरी कर दूँगा।” दूकान के दूसरे लोग इसपर हँसने लगे। किन्तु ‘बन्द जगह’ के भय से पीड़ित व्यक्तियों के लिए यह बात हँसने की नहीं थी। ऐसे आदमी बन्द कमरों में रहने से डरते हैं; लिफ्ट पर नहीं चढ़ सकते , सुरंग में से नहीं गुज़र सकते, गाड़ी के डिब्बे में यात्रा करने से घबराते हैं, हवाई जहाज़ में बँधकर नहीं बैठ सकते, और मोटर में भी देर तक टांगों को समेटकर बैठे नहीं रह सकते।

कुछ लोग तो इतने अधीर हो जाते हैं कि नाटक -सिनेमा के बड़े-बड़े हॉल भी उन्हें छोटे प्रतीत होने लगते हैं। यदि वे वहाँ जाते हैं तो सिरे वाली सीट ही रिज़र्व कराते हैं, जो दरवाज़े के पास होती है। दरवाज़ा खुला रहे तो और भी अच्छा ।

इस भय का निदान क्या है? उपाय क्या है? असली रूप क्या है? आदि प्रश्नों पर आज के मानसशास्त्री विचार कर रहे हैं। सबका सन्तोषप्रद उत्तर तो उन्हें नहीं मिला – किन्तु भय- पीड़ित व्यक्तियों को उनका रोग समझाने योग्य सूचनाएँ अवश्य मिल गई हैं, और ऐसे संकेत देने की योग्यता भी हो गई है कि भयभीत व्यक्ति का उपचार किया जा सके।

बन्द जगहों की इस भीति का सूचक पारिभाषिक शब्द क्लास्ट्रोफोबिया है। यह ग्रीक भाषा का शब्द है। इसका अर्थ ही ‘बन्द जगहों का डर है। इस डर से डरा हुआ आदमी बाद में अनेक स्नायवीय रोगों, हृदय रोगों, अपचन, दमा, सिरदर्द आदि रोगों से घिर जाता है।

भय का यह रोग अपचन का भी कारण बन जाता है। भय के कारण अन्तड़ियों की नसें तन जाती हैं और पेचिश, अजीर्ण तथा मूर्छना के रोग जड़ पकड़ लेते हैं । बन्द जगह का भय बड़े शहरों में आमतौर पर होता है। न्यूयार्क में अस्सी मंज़िलों के मकान हैं। इन मंज़िलों पर चढ़ने के लिए लिफ्ट बने हुए हैं। इन बन्द लिफ्टों से अस्सी मंज़िल चढ़ते चढ़ते कई भयरोग ग्रसित व्यक्ति भयाकुल होकर अनेक शारीरिक रोगों का शिकार हो जाते हैं। मैंने कई लोगों को लिफ्ट से नीचे उतरते समय व्याकुलता छिपाने के लिए दाँत पीसते देखा है। बन्द जगहों का यह भय कमज़ोर आदमी में दमा तथा अन्य रोगों का कारण हो जाता है।

मेरे एक मित्र को बन्द जगह का यह भय इतना सताता है कि वह रेलगाड़ी में पन्द्रह-बीस मील जाने के लिए भी हर स्टेशन पर गाड़ी बदलता है। वह व्यक्ति यदि स्वयं मोटर चलाए तो मीलों तक बिना किसी कष्ट के चला लेता है, इसका कारण पूछने पर उसने यह बतलाया कि “जब मैं मोटर का चालक चक्र अपने नियन्त्रण में रखता हूँ तब मैं अपने-आपको सुरक्षित अनुभव करता हूँ, किन्तु यदि वह चक्र दूसरे के हाथ में हो तो मैं पाँच-दस मिनट से अधिक धीरज नहीं रख सकता।” तंग जगहों में घबराने वाले लोग भी इसी भय से पीड़ित होते हैं।

इस भय का कारण खोजने के लिए ही व्यक्ति के बचपन की किसी घटना का निरीक्षण करना होगा। बचपन में एक आदमी को एक अँधेरी गली से गुज़रकर घर जाना पड़ता था । गली दो ओर से खुलती थी एक बाज़ार के चौड़े रास्ते की ओर, दूसरी पीछे से तंग रास्ते की ओर। उस दिन बाज़ार तक पहुँचकर उसने देखा, गली का फाटक बन्द था। जब वह पीछे मुड़ा तो एक बड़ा काला कुत्ता उसपर झपटा। गली इतनी तंग थी कि वह बचकर भाग न सका। डर के मारे गिर पड़ा और मूर्छित-सा हो गया। बचपन का यह आतंक उसके मन पर पच्चीस साल तक अंकित रहा। जब भी वह किसी बन्द जगह में होता तो यह भय उसे घेर लेता ।

एक स्त्री ने जब अपने घर की अलमारी को खोला तो खोलते ही उसकी नज़र कुण्डली बाँधे साँप पर पड़ी। उसके दिल पर इतना धक्का लगा कि वह बेहोश होकर गिर पड़ी। उसके पति ने आकर साँप को मार दिया, किन्तु बन्द जगह का भय पत्नी में इतना गहरा बैठ गया कि सारी उम्र उसे सताता रहा। हर अँधेरी व बन्द जगह में उसे साँप की कल्पना हो जाती थी। माता-पिता भी बच्चों को कभी-कभी अँधेरी कोठरियों में बन्द करने का दण्ड देकर बच्चे के मन में इस भय को जन्म दे देते हैं।

कारण कुछ भी हो, इस भय से छुटकारा पाने के उपाय प्रायः एक-से हैं। मुख्य बात यह है कि हमें पुरानी अनिष्ट स्मृतियों का, जो भय का कारण होती हैं, पता लगाना चाहिए सबसे बड़ी कठिनाई यही जानना है कि कौन-सी विशेष घटना इसका कारण बनी। प्रायः हम उस विशेष घटना को भूल जाते हैं, किन्तु उसके प्रभाव से मुक्त नहीं हो सकते। मानस-विज्ञान के चिकित्सक मनोविश्लेषण की उपचार पद्धति द्वारा उस विशेष घटना का जो भय के मूल में होती है, पता लगा लेते हैं। उस घटना के याद आने के बाद मनुष्य को अपने भय की निस्सारता का ज्ञान हो जाता है और वह उससे प्रायः मुक्ति पा जाता है।

संशय की तरह भय भी हमारे मन की एक वृत्ति होती है जब हम अपनी परिस्थितियों के विरुद्ध सुरक्षा के लिए लड़ते हुए भरोसा छोड़ देते हैं। भयानकता सामने वाली वस्तु में नहीं होती है, हमारे मन की कायरता में होती है। इसका उपाय भी अपनी मनोवृत्ति में आत्मविश्वास की मात्रा बढ़ाने के अतिरिक्त कुछ नहीं है ।

जब हम किसी सार्वजनिक सभा में भाषण देने से डरते हैं तो वस्तुतः हम वहाँ बोलने में नहीं डरते, बल्कि अपनी सम्भावित असफलता से डरते हैं। सम्भावनाओं की कल्पना हम स्वयं करते हैं। इसलिए वस्तुतः हम अपनी कल्पनाओं से ही डरते हैं। डर का आधार केवल हमारी कल्पना है। आत्मविश्वास की कमी ही इस कल्पना को जन्म देती है। अतः भय को जीतने का केवल यही उपाय है कि आत्मविश्वास में वृद्धि की जाए।

मनुष्य के आत्मविश्वास पर धक्का तब लगता है जब वह किसी काम में पहले प्रयत्न में असफल हो जाए। पहली असफलता दूसरी असफलता का रास्ता खोल देती है। असफलताओं के प्रहार से आत्मविश्वास नष्ट हो जाता है। जिसका आत्मविश्वास एक-दो असफलताओं से नष्ट न हो, वही सफल हो जाता है। जो निराश नहीं होता, पराजित नहीं होता, वह सफल हो फिर आत्मविश्वास को पा लेता है और निर्भय हो जाता है ।

पश्चिम के विश्वविख्यात विचारक एमर्सन ने भय दूर करने का अचूक उपाय बतलाया था। उसने कहा था

“Do the thing you fear and the death of fear is certain.”

जिस काम से तुम्हें भय लगता है वही करो, भय का अन्त हो जाएगा।

एक बार डर गए तो वह डर नस-नस में समा जाएगा। हमारी कमज़ोर कल्पनाएँ- असफलता की दुःशंकाएँ- हमें भयभीत करती हैं। और बाद में हमारा भय मानसिक निर्बलता पैदा करके उन दुःशंकाओं को और भी बढ़ा देता है। बढ़ी हुई दुःशंकाएँ भय की मात्रा में वृद्धि कर देती हैं।

इस आवर्त में हमारा व्यक्तित्व खण्ड-खण्ड जाता है। इसलिए हमें प्रथम भय का ही सिर दबा देना चाहिए। उसे अंकुरित होने का मौका ही नहीं देना चाहिए। यह तभी हो सकता है यदि हम एमर्सन के कथनानुसार, जिस काम से डर लगता है, उसे अवश्य करें। उसपर जीत पाने के बाद हमारा आत्मविश्वास इतना अटल हो जाएगा कि हम कभी भयभीत नहीं होंगे।