मन को शक्तिशाली बनाने से पूर्व आपको अपने से यह प्रश्न करना होगा कि आपका मानसिक स्वास्थ्य कैसा है।

इस प्रश्न का उत्तर आप क्या देंगे? एक दिन मैंने यही प्रश्न अपने एक मित्र से किया था। वह पहले तो कुछ चौंका, सहमा और फिर उसने बड़ा नपा-नपाया उत्तर दिया। मेरा विश्वास है, आप भी वही उत्तर देंगे। उसने कहा, “जैसा मानसिक स्वास्थ्य आपका है, वैसा ही मेरा भी है।” उसने सच ही कहा था। हम सभी समझते हैं कि हम पूर्णतया स्वस्थ हैं, और हमारा मानसिक सन्तुलन आदर्श है। हम पढ़े-लिखे हों या अनपढ़, अपनी मानसिक क्षमता में एक-सा विश्वास रखते हैं। अपनी विवेक-बुद्धि पर हमें कभी सन्देह नहीं होता। हमें ही नहीं, शायद पागलखाने के दुर्भाग्यग्रस्त लोगों को भी नहीं होता। वे भी उक्त प्रश्न का यही उत्तर देंगे। एक बार एक दर्शक पागलखाने में गया । वहाँ एक पागल को बिलकुल स्वस्थ-सी हालत में देखकर वह उसके पास पहुँचा और पूछा, “दोस्त! तुम यहाँ कैसे पहुँचे? तुम्हारे दिमाग में कौन-सी खराबी है?” उसने उत्तर दिया, “कोई भी खराबी नहीं; फर्क इतना ही है कि तुम्हारे जैसों की संख्या अधिक है। मेरे जैसों की कम। मुझमें और तुममें इतना ही अन्तर है।”

Mansik Swasthya ki Parakh

यह स्वाभाविक ही है कि हम सब अपने को अद्वितीय बुद्धिमान और मानसिक दृष्टि से स्वस्थ समझें। किन्तु, यह भी सच है कि हम सब कभी-कभी ‘थोड़ा-सा विचित्र’ अवश्य हो जाते हैं। यह ‘थोड़ा-सा’ ही समय पाकर ‘विकट’ बन सकता है, इस कारण यह प्रश्न सचमुच बहुत विकट है। लेकिन इसमें भयभीत होने का कोई कारण नहीं। थोड़ी-सी अन्तर्दृष्टि, बुद्धिमत्ता और विवेक के बल पर हम इस सम्भावना को सदा दूर रख  सकते हैं।

आपका मानसिक स्वास्थ्य कैसा है, आप सब जैसे हैं या कुछ विचित्र व सनकी ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए आप थोड़ा ठिठक जाते हैं, चिन्ता में पड़ जाते हैं। चिन्ता की कोई बात नहीं। जीवन के सफर में हम कभी-कभी ऐसा अनुभव करने लगते हैं कि ‘रास्ता छोड़कर खड़े हो गए हैं, जैसे गाड़ी पटरी से उतर गई हो। जब यह अनुभूति हमारे मस्तिष्क को देर तक सताती रहे तो हम स्वयं को ‘हीन भावना प्रताड़ित’ मानते हैं। हम सबको अपने काम में विफल- मनोरथ होने के बाद समय-समय पर थोड़ी देर के लिए ऐसी मानसिक मन्दता का सामना अवश्य करना पड़ता है। यह क्षणिक मन्दता विस्तृत और गहरी होकर हमारी मानसिक स्वस्थता पर स्थायी प्रभाव भी डाल सकती है।

हम अनेक भयजनक वस्तुओं से डरते हैं। रोग, विफलता, मृत्यु, हिंस्र जन्तु इनसे हमें भय लगता है। एक मर्यादा तक यह भय हमारे मन में केवल भय निवारण के उपायों को प्रोत्साहित करने में सहायक होता है किन्तु एक सीमा से आगे इसी भय का भूत हमारी सम्पूर्ण मानसिक गतियों को निश्चेष्ट भी बना सकता है तब हम उसी भय को अपने मानसिक स्वास्थ्य के लिए अभिशाप कहेंगे। वह भय हमारे नियन्त्रण से बाहर हो जाएगा। उसे दूर करने में भी हमें सफलता नहीं मिलेगी, क्योंकि वह हमारी मानसिक निर्बलता का अंग बन चुका है।

अभिप्राय यह कि हमारे साधारण मानसिक उपकरणों के कुछ भाग ऐसे हैं जो धीरे-धीरे, सीढ़ी दर सीढ़ी बढ़ सकते हैं और यहाँ तक बढ़ सकते हैं कि उनमें विकृति आ जाए। इस प्रकार पहले के प्रकृत और बाद के विकृत में केवल दर्जे का फर्क है। उदाहरणार्थ, जब हम उदास होते हैं तो प्रकृतिस्थ होते हैं, लेकिन जब हम सीमा से अधिक अतिशय उदास हो जाते हैं तो विकृत हो जाते हैं। केवल भयभीत होकर ही हम विकृति के दर्जे पर नहीं पहुँचते, लेकिन जब हमारा सम्पूर्ण व्यक्तित्व, हमारी सब चेष्टाएँ भय की भावना से व्याप्त हो जाएँ, तब हम विकृत हो जाते हैं। यही हाल हमारे मानसिक उपकरणों का है।

एक बात और स्मरणीय है। हमारे मानसिक स्वास्थ्य की मात्रा इस बात पर आश्रित है कि हम परिस्थितियों के अनुकूल अपने मानसिक उपकरणों के बनाने में किस मात्रा तक सफल होते हैं। कामयाबी का वह दर्जा ही हमारे मानसिक स्वास्थ्य के दर्जे का फैसला करता है। जब कोई व्यक्ति अपनी परिस्थितियों से पर्याप्त और सन्तोषजनक सन्तुलन करता हुआ नहीं चलता तो उसका मानसिक सन्तुलन अस्त-व्यस्त हो जाता है। इस अवस्था के दो परिणाम होते हैं: व्यक्ति की जीत या व्यक्ति की हार। यदि जीत हो जाए तो व्यक्ति को सुख-सन्तोष मिलता है, हार होने से मानसिक सन्तुलन बिगड़ जाता है। यह बिगाड़ पहले क्षणिक होता है-किन्तु निरन्तर होने के बाद यही स्थायी विकृति का रूप ले लेता है जो व्यक्ति के सम्पूर्ण चरित्र को छिन्न-भिन्न कर देती है।

इससे पूर्व कि मैं उन अवस्थाओं का विवेचन करूँ, जिनमें व्यक्ति अपनी परिस्थितियों में समत्व स्थिर नहीं कर सकता, यह आवश्यक है कि प्रकृत व्यवहार व विकृत व्यवहार का भेद समझ लिया जाए। मानसिक अस्वस्थता की प्रकृत से विकृत रूप में आने की युक्ति का भी पूरा अर्थ तभी समझ आएगा जब हम यह निश्चित कर लें कि प्रकृत और विकृत शब्दों से हमारा क्या अभिप्राय है और कौन-सी सीमान्त रेखा इन दो तरह के व्यवहारों का विभाजन करती है।

जब हम यह कहते हैं कि हमारी मोटर ठीक है तो हमारा अभिप्राय यह होता है कि उसके सब उपकरण अपना पूरा काम कर रहे हैं। थोड़े-से अपवादों को छोड़कर जो अंग-भंग के अभिशाप से ग्रस्त हैं, हमारे शारीरिक व मानसिक उपकरण प्रायः एक समान ही होते हैं। हम सबके पास दो हाथ, दो पैर, दो आँखें, दो कान, एक नाक और मस्तिष्क है। अनुभूति, भावना, कल्पना, स्वभाव, स्मृति आदि की सम्पत्ति सभी मनुष्यों के पास है अतः प्रकृत मनुष्य स्वभाव से ही सन्तुलित और सफल होता है।

इसके विपरीत वह मनुष्य है जिसे पुलिस ने किसी अपराध में गिरफ्तार किया है। उसने जो पाप किया है उसके लिए उसके हृदय में सन्ताप भी नहीं है और उसकी भावनात्मक चेतना इस हद तक लुप्त हो चुकी है कि अपने किसी भी पापपूर्ण व्यवहार के लिए उसके हृदय में कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। यह स्वाभाविक नहीं है। इस तरह जो व्यक्ति अपनी स्मरण-शक्ति खो देता है और अपने प्रियजनों में से भी किसी को नहीं पहचानता, उसका व्यवहार भी विकृत है।

सहज के परखने की और भी कसौटियाँ हैं। उनमें से एक है हमारी मानसिक व भावात्मक प्रतिक्रिया का परिस्थिति के अनुकूल होना। एक प्रतिक्रिया एक परिस्थिति में युक्तियुक्त मालूम होती है, और दूसरी परिस्थिति में वही अयुक्तियुक्त जँचती है। एक मोटर ड्राइवर गाड़ी टकराने पर दूसरी गाड़ीवाले को क्रोधवश भला-बुरा कहता है, दूसरा ड्राइवर भी उस परिस्थिति में क्रोध से भर जाता है, किन्तु उसका क्रोधावेश इस हद तक पहुँच जाता है कि उसके मुख से शब्द ही नहीं निकलता। क्रोध की प्रतिक्रिया साधारण है, किन्तु क्रोध में निःशब्द हो जाना असाधारण और परिस्थिति की दृष्टि से सर्वथा अयुक्तियुक्त है। इसे हम विकृत व्यवहार कहेंगे।

प्रश्न यह है कि मानसिक निर्बलताजन्य कौन-सा व्यवहार इतना असाधारण हो जाता है कि व्यक्ति को मानसिक रोगों के अस्पताल की शरण लेनी पड़ती है। संक्षेप में, किस प्रकार की असाधारणता उन्मादजनक होती है? इस प्रश्न का उत्तर बड़ा कठिन है। कोई भी रेखा दोनों में स्पष्ट विभाजन नहीं करती। केवल कम अधिक, मध्यम तीव्र का भेद ही दोनों को अलग करता है। कोई भी विक्षेप तीव होकर उन्माद के रूप में बदल सकता है। समझ लीजिए, दीनदयाल एक साधारण व्यक्ति है जो अनेक प्रकार के भव, सन्देहों से ग्रस्त है किन्तु भयपीड़ित होने से ही वह पागल नहीं बन गया। दूसरा व्यक्ति केशव भी उसी भय से पीड़ित है किन्तु वह पागल घोषित कर दिया जाता है। कारण यह है कि उसका भय इस सीमा तक पहुँच गया है कि उसे चारों ओर देव-दानव ही दिखाई देते हैं। हर वृक्ष की आड़ में वह अपने सशस्त्र शत्रु से मारे जाने की कल्पना करता रहता है। उसका भय बहुत ही विकट रूप धारण कर चुका है।

हीनता की अनुभूति भी इसी मनुष्य के मन को विक्षिप्त करती है। किन्तु यह अनुभूति स्वयं में विशेष असाधारण नहीं है। कुछ लोग उम्र भर इस अनुभूति से पीड़ित रहते हैं फिर भी अपने नित्यनैमित्तिक कामों को करते रहते हैं। हीनता की भावना उनके मार्ग में रुकावट जरूर डालती है, फिर भी वे उससे संघर्ष करते हुए जीवन की यात्रा में आगे बढ़ते जाते हैं। दूसरा व्यक्ति इस हीन भावना की प्रताड़ना से इतना निश्चेष्ट हो जाता। है कि अपने बिछौने से सिर नहीं उठा सकता। उसके हाथ पर अवसन्न हो जाते हैं, उसकी प्रेरणात्मक शक्ति सर्वथा नष्ट हो जाती है। इसलिए यह मानना ही पड़ेगा कि असाधारणता केवल अस्वस्थता की अधिक मात्रा का ही परिणाम है। मूल आधार दोनों का एक ही है।

“यह हीनत्व ग्रन्थि ही हमारे जीवन के अनेक विक्षेपों का कारण बनी हुई है। अधिकांश युवक इसके शिकार होकर जवानी की स्फूर्तियों से वंचित रह जाते हैं। बचपन में हम माता-पिता से दबते हैं; बड़े भाई-बहिन से दबते हैं; अपने शिक्षकों से, अपने पूज्य प्रशंसित व्यक्तियों से दबते हैं, और कई बार किसी भी क्षेत्र में सफल व्यक्ति से हीनता का अनुभव करके अपनी तुच्छता पर लज्जित होते रहते हैं। किसी अपने से अधिक आकर्षक व्यक्ति से, विनोदी स्वभाव के हँसमुख व्यक्ति से या किसी भी सफल लोकप्रिय व्यक्ति के सम्मुख आते ही हम हीनता का अनुभव करने लगते हैं। किन्तु यह हीनता हमें सर्वथा निश्चेष्ट नहीं करती। किसी न किसी तरह हम उसका समाधान करते ही रहते हैं। बाद में हम स्वयं भी अपना व्यक्तित्व बना ही लेते हैं, दुनिया में अपनी प्रतिष्ठा का स्थान पा लेते हैं तब यह हीन भावना स्वयं नष्ट हो जाती है।

बचपन की यह हीनत्व ग्रन्थि हमारी युवावस्था पर भी प्रभाव डालती है। मैं एक बैंक के क्लर्क को कई वर्षों से जानता हूँ। वर्षों से वह इसका शिकार बना हुआ है। बात यह है कि उसके पास कॉलेज की डिग्री नहीं है। डिग्रीवाले अनेक युवक उसके बाद बैंक में नौकर होकर उससे ऊँचे ओहदे पर पहुँच चुके हैं। डिग्री न होना उसकी हीन भावना का कारण हो गया है। इस भावना को दूर करने के लिए उसने कई मार्गों का अवलम्बन किया। क्षति पूर्ति के अनेक उपाय ढूंढे।

सार्वजनिक सभाओं में भाषण देकर महत्त्व पाने की भी चेष्टा की-किन्तु पदवी का अभाव उसके मन में काँटे की तरह हर समय चुभता रहा। लघुत्व की भावना का यह विष उसमें आत्मविश्वास के पौधे को भी अंकुरित नहीं होने देता। उत्कर्ष के लिए योग्य उपकरणों की न्यूनता या बचपन की अधूरी शिक्षा-रूप अभाव आधुनिक युवक के जीवन को बहुत कंटकाकीर्ण बना देता है। उत्कर्ष के उपकरणों की अल्पता अनेक रूपों में प्रकट होती है।

कुछ लोग इस कारण यह अल्पता अनुभव करते हैं कि उनकी तरुणावस्था का परिपक्वावस्था तक विकास पाना किन्हीं आकस्मिक कारणों से रुक गया है। कई बार हमारा विकास अचानक ही रुक जाता है। हम आयु में बढ़ते जाते हैं, अनुभव में नहीं। अनुभव में हम निरे बालक ही रहते हैं। हमारी बुद्धि में प्रौढ़ता और परिपक्व विवेक की स्थिरता बहुत देर तक नहीं आ पाती। ऐसे कच्चे अनुभव के लोग शादी जैसी दायित्वपूर्ण संस्था के निमाने में भी सर्वथा अशक्त हो जाते हैं। वे जीवन में कोई भी दायित्व नहीं लेना चाहते।

हममें से कइयों में इतने साहस और बुद्धि का अंश नहीं रहता कि वे जीवन की अगली समस्याओं का उचित समाधान कर सकें। वे वास्तविकता से दूर रहते हैं। माता-पिता की छत्रछाया में ही रहने के लिए वे दुनिया के अन्य कामों में दिलचस्पी लेना नहीं चाहते। विवाहित जीवन में पत्नी के मन को लघुत्वसूचक भावना का प्रकाश तब मिलता है जब गृह-कार्यों में अदक्ष गृहपत्नी घर के दायित्व को छोड़ अपने मातृगृह की ओर जाने की तैयारी करती है।

बहुत से पति संसार से विरक्त होकर अज्ञातवास शुरू कर देते हैं, जवानी में संन्यास लेकर अपनी मानसिक अस्वस्थता को प्रकट कर देते हैं। यह विरक्ति और संन्यसन उनकी हीन भावना को प्रमाणित करते हैं। वे जीवन की कठोर वास्तविकताओं से अपना मानसिक समत्व स्थापित करने के यत्न से बचते हैं। साधारण व्यक्ति वह है जो विवाहित जीवन की उलझनों को सुलझाने में बुद्धि से काम ले । असाधारण वह है जो इन उलझनों से डरकर गृहत्याग कर दे या अदालत में विवाह विच्छेद की प्रार्थना करे।

किसी भी प्रकार के विच्छेद या विनाश की ओर ले जानेवाले मार्ग का चुनाव करना विकृति का सूचक है। पश्चिम की विज्ञान प्रधान सभ्यता ने यूरोप के सम्पूर्ण राष्ट्रों को असाधारण बना दिया है जिसका प्रमाण पिछले बीस वर्षों में दो नरसंहारी महायुद्धों का होना है। जब हमारे राष्ट्र-शरीर का मानसिक स्वास्थ्य बहुत निर्बल हो जाता है, तभी हम विनाश के मार्ग का अवलम्ब लेते हैं, युद्धों की घोषणा करते हैं। जिस राष्ट्र के कर्णधारों की बहुसंख्या अस्वस्थ होगी, असाधारण होगी, वह असाधारण उपायों का ही आश्रय लेगा। मानस-विज्ञान का शास्त्री जानता है कि इन विश्वयुद्धों का बीज मनुष्यों का मानसिक अस्वास्थ्य ही है।