Mansik Rogo ke Bhed – हमारे मन की कुछ साधारण प्रवृत्तियाँ जब विकृत रूप धारण कर लेती हैं तभी मनुष्य को विक्षिप्त कहा जाता है। यह उपक्रम जब एक सीमा को पार कर जाता है, मनुष्य अपना विवेक इतना खो देता है कि वह अपनी रक्षा आप नहीं कर सकता, तो समाज हस्तक्षेप करके उस मनुष्य को मानसिक रोगों के अस्पताल में इलाज के लिए रख देता है। अदालत उस मनुष्य को पागल घोषित कर देती है। प्रश्न यह है कि वह कौन-सा विशेष रोग है जो हममें से हज़ारों आदमियों को प्रतिवर्ष पागलखाने में भेज देता है; उन्हें हम अपने में से कैसे पहचान सकते हैं? और कौन-से उपाय हैं जो इन दुर्भाग्यग्रस्त व्यक्तियों को पागलखाने से बचा सकते हैं।

Mansik Rogo ke Bhed

मानसिक विक्षेप के रोगियों की परिगणना से मालूम हुआ है कि उन्हें छह प्रकार के विभिन्न वर्गों में विभक्त किया जा सकता है। उनमें उनकी गणना नहीं है जो किसी शारीरिक व्याधि से पीड़ित होकर विक्षिप्त हो गए हैं। उनकी चर्चा इस पुस्तक का विषय नहीं है। यहाँ मैं केवल मानसिक अस्वस्थता से ग्रस्त व्यक्तियों का विश्लेषण करूँगा। उनकी अस्वस्थता के बाह्य चिह्न कौन से हैं?

वे अस्वस्थ क्यों हुए? क्या उन्हें अस्वस्थ होने से रोका जा सकता था? इन प्रश्नों का उत्तर ही यहाँ दिया जाएगा। इस विवेचन का सम्बन्ध केवल पागलखाने में बन्द असाधारण व विचित्र व्यक्तियों से नहीं है। वे भी एक दिन हम जैसे ही थे। हममें थे; जैसे हम सोचते हैं, वैसे ही वे सोचते थे; जैसे हम रहते हैं, वैसे ही  वे भी रहते थे। हम उनसे जुदा नहीं, अन्तर केवल मात्रा का है। ये विचित्र हैं, हम भी अनेक बार विचित्र व्यवहार करते हैं; वे असाधारण हैं, हम भी अनेक समय असाधारण हो जाते हैं। उनकी समस्याएँ हमारी समस्याएँ हैं।

उनके और हमारे बीच केवल एक रेखा की दूरी है। इस रेखा को समझना बहुत जरूरी है। तभी हम उस रेखा के पार जाने से बच सकेंगे। हमें अपनी निगरानी करते रहना होगा। अपने व्यवहारों का विश्लेषण करते रहना होगा। अपनी परीक्षा करनी होगी। आत्मपरीक्षा की चेतना जाग्रत् होने के बाद हमें बड़े से बड़ा दुर्भाग्य भी उस रेखा के पार की दुनिया में घसीटकर नहीं ले जा सकता। इस आत्मपरीक्षा या आत्मनिरीक्षण को सरल बनाने के लिए ही मैं मानसिक अस्वास्थ्य के विभिन्न रूपों का विभाजन कर रहा हूँ।

मानस-चिकित्सकों ने इन अस्वस्थ व्यक्तियों के रोगों को छह वर्गों में बाँटा है। परन्तु हमें इतनी बारीकी में जाने की आवश्यकता नहीं है। इस विभाजन को भी हम शत-प्रतिशत आप्त नहीं मानते। चिकित्सकों ने अपनी सुविधा के लिए इन्हें परिगणित वर्गों में विभक्त कर दिया है। हम इन्हें इन वर्गों से अधिक भागों में भी बाँट सकते हैं; और इनसे अतिरिक्त प्रकार के मानसिक रोगों की गणना कर सकते हैं। इसलिए, मैं इस वर्गीकरण को अधिक महत्त्व नहीं दूँगा। और अगले पृष्ठों में उक्त प्रकार के मानसिक रोगों का स्वरूप प्रकट करने की कोशिश साधारण बोलचाल की भाषा में करूँगा ।

 अतिशय आत्मपरता मानसिक अस्वस्थता का प्रथम संकेत है

प्रथम प्रकार का अस्वस्थ व्यक्ति वह है जो अपने को स्वयं अन्य लोगों से अलग कर लेता है। वह अनुभव करने लगता है कि वह दुनिया से निराला है; पार्थिव व संसार की वास्तविकताओं से उसका सम्पर्क बहुत शीघ्र टूटने वाले पतले धागे के साथ है जो किसी भी क्षण टूट सकता है। अपने समीप व दूर के व्यक्तियों के साथ सम्पर्क रखना ऐसे व्यक्ति के लिए असम्भव कार्य हो जाता है। वह अपने में ही सिमटा-सा और संकोची स्वभाव का होता है और अकेला रहना ही पसन्द करता है। अन्य लोग उसके साथ सहानुभूति भी नहीं दिखा सकते क्योंकि वह अन्य लोगों को इसका अवसर ही नहीं देता। उसे एकान्त में पड़ा रहने दिया जाए-यही उसकी इच्छा रहती है। वह यही चाहता है :

 न कोई दोस्त-दुश्मन हो शरीक़े दर्दी-ग़म मेरा, सलामत मेरी गरदन पर रहे बारे अलम मेरा!

 अपनी दुनिया को अपने ही कन्धों पर उठाए हुए वह बदनसीब आदमी सबसे अलग रहना शुरू कर देता है। मानो वह दुनिया में ही नहीं और है भी, तो कुछ भी नहीं है |

 कुछ ऐसे हो गए ज़ारों हज़ीं हम,

 कि हैं भी और दुनिया में नहीं हम!

इस विरक्त व्यक्ति की मनोवस्था कुछ ऐसी होती है कि कछुए का स्मरण हो आता है। कछुआ अपने अंगों को अपनी ढाल में समेटकर बैठा रहता है। अपने आसपास की चुभने वाली चीज़ों से त्राण पाने के लिए वह अपने में ही सिमट जाता है। विरक्त व्यक्ति भी अपनी परिस्थितियों के विषम प्रहारों से त्राण पाने के लिए अपनी ही खुदी में सिमटकर बैठ जाता है।

अपनी तरुणावस्था में प्रायः प्रत्येक व्यक्ति किन्हीं अवसरों पर इस विचित्र विरक्ति का अनुभव करता है। उसके साथी जब उसे खेलने को बुलाते हैं तो वह पुस्तक से चिपटकर बैठे रहना चाहता है। अपने माता-पिता से भी उसे विरक्ति हो जाती है। उनका प्रेमपूर्ण व्यवहार भी उसके चेहरे पर मुस्कान की रेखा अंकित नहीं करता। दोनों के बीच एक विचित्र दीवार-सी बँधती जाती है। वह अपने मन की व्यथा किसी भी दूसरे से नहीं कहता । अपना भेद अपने तक ही सीमित रखता है। अपनी आग में आप ही झुलसा करता है।

इस अभागे व्यक्ति को एकान्त ही प्रिय होता है। उसकी सारी चेष्टाओं का मध्यविन्दु उसका अभागा ‘अहं’, ‘मैं’ ही होता है। इस ‘मैं’ की परिधि में ही उसकी दुनिया चलती-फिरती है। उसे आकाश के सूर्य-चन्द्र भी अपने ‘अहं’ की परिक्रमा करते हुए ही प्रतीत होते हैं। ‘मैं महान हूँ’, इस भ्रमपूर्ण अनुभूति को वह आत्मा की ध्वनि मान लेता है।

साधारणतया मनुष्य की अहं भावना उसके जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण भावना है। यह भावना ही उसे बाह्य आघातों से बचाती है, कार्यों में प्रवृत्त करती है और आत्माभिव्यक्ति तथा आत्मविचार के लिए तत्पर रखती है। मनुष्य स्वभाव से स्वार्थरत होता है। वह अपने हित ही जीता है और जीवन-भर उद्योग करता है। परमार्थ के कामों में भी उसकी स्वार्थबुद्धि ही प्रेरक होती है।

किन्तु अतिशय आत्मरति उसी तरह मानसिक अस्वास्थ्य की निशानी है जिस तरह आत्मविरक्ति की घातक प्रवृत्ति। यह अतिरंजित आत्मपरता उसे अपने सामाजिक दायित्वों के निभाने के अयोग्य बना देती है। मनुष्य असामाजिक हो जाता है; और बढ़ते-बढ़ते यही अस्वस्थता भयंकर रोग का रूप धारण कर लेती है।

इस भयंकर अवस्था का प्रारम्भ तब होता है जब उसकी आत्म-चिन्ताभिविमुख दृष्टि दूसरे व्यक्तियों को सन्देह से देखने लगती है । उसे यह लगता है कि दूसरे लोग उससे जलते हैं, उसे नीचा दिखाना चाहते हैं और उसके विरुद्ध षड्यन्त्र रच रहे हैं। यह कल्पना उसके मन में अपने से अन्य सभी लोगों के लिए घृणा और विद्वेष का धुआँ भर देती है।

वह दुनिया को अपना दुश्मन समझने लगता है। उसे अपने चारों ओर आग की लपटें दिखाई देने लगती हैं जो उसे भस्म करने को उमड़ रही हैं। चारों ओर दुश्मन ही दुश्मन नज़र आते हैं। उनसे सामना करने को वह भी अपने दिल में आग की लपटें उठाने लगता है। अकारण ही वह मरने-मारने को दौड़ने लगता है। उसकी हिंसावृत्ति उग्र रूप धारण कर लेती है। ऐसा अस्वस्थ व्यक्ति दूसरों के लिए खतरनाक हो जाता है।

विरक्ति, आत्मपरता, एकान्तप्रियता- ये गुण हैं, दोष नहीं। किन्तु विरक्ति का अभिप्राय घृणा नहीं है, आत्मपरता का अर्थ स्वार्थपरता नहीं है और एकान्तप्रियता का अभिप्राय असामाजिकता नहीं है। ये गुण ही दुर्गुण बन जाते हैं जब मनुष्य किसी असफलता से प्रताड़ित होने के बाद इनका आश्रय लेता है। इन गुणों का प्रयोजन जीवन से थके-हारे को परित्राण देना नहीं बल्कि मनुष्य की बिखरी शक्तियों को केन्द्रित करके रचनात्मक कार्य में लगाना है। जो मनुष्य परित्राण या बचाव के बहाने ढूँढता है, वह जीवन के संग्राम में कभी सफल नहीं हो सकता।

परित्राण या बहाना ढूँढने का अर्थ यह है कि मनुष्य जब अपने अभीष्ट लक्ष्य को पाने में किसी भी कारण से असफल हो जाता है तो वह अपनी असफलता के लिए किसी अन्य को दोषी ठहराने की कोशिश करता है। केवल असफलता मनुष्य को अस्वस्थ नहीं बनाती। असफलता के सच्चे कारण को जानकर जो व्यक्ति सचाई के साथ अपनी भूल या अक्षमता स्वीकार कर लेता है उसका मन जीवन-संग्राम में नए उत्साह से, नए उपकरणों के साथ जूझ पड़ने को तैयार हो जाता है।

किन्तु जो व्यक्ति अपनी पराजय का दोष दूसरों के सिर मढ़ने लगता है और दूसरों को उसके लिए जिम्मेदार समझता है वह स्वभावतः अन्य लोगों को अपना शत्रु मान लेता है, और उनसे दूर रहने लगता है। अपनी इस प्रवृत्ति पर वह रोकथाम भी नहीं लगा सकता, क्योंकि अपने आसपास के अन्य सब लोगों से उसका सम्पर्क टूट जाता है। उसकी आत्मचिन्ता इतनी विकट हो जाती है कि वह अपनी समस्याओं को दूसरों के सामने रखने का विचार ही नहीं कर पाता।

अन्त में जब विरक्ति या रोग चरम सीमा पर पहुँच जाता है तो वह अवस्था भी आ जाती है कि व्यक्ति की सम्पूर्ण चेष्टाओं और समस्त विचारों में केवल कुछ ऐसी कल्पित धारणाएँ, ख्याली सपने ही रह जाते। हैं जिनका अस्तित्व उसके मन की दुनिया तक ही होता है। जब अस्वस्थता इस सीमा तक पहुँच जाए तो उपचार की सम्भावनाएँ बहुत कम रह जाती है।

मानसिक अस्वस्थता के इन लक्षणों को पढ़ने के बाद कुछ पाठकों के मन में यह दुःशंका पैदा हो जाएगी कि उनके कुछ व्यवहारों का झुकाव भी इस प्रकार की अस्वस्थता की ओर है। उन्हें स्मरण हो जाएगा कि  वे भी सबके साथ खेलने की अपेक्षा एकान्त में बैठना पसन्द करते हैं और उन्हें सामाजिक समारोहों में भाग लेने से बचकर समुद्र-तट पर अपने में ही खोए हुए बैठे रहना अधिक भाता है। उन्हें यह भी अनुभव होने लगेगा कि वे सामाजिक सम्पर्क न बनाकर जीवन की दौड़ में बहुत पिछड़ गए । इन प्रवृत्तियों पर विजय पाकर सुखी और सफल जीवन बनाने के लिए मैं उन्हें कुछ निर्देश देना चाहता हूँ।