Mansik Murcha Ka Upchar-मानसिक मूर्च्छा का उपचार

मन की अस्वस्थता का एक रूप है मानसिक मूर्च्छा या निश्चेष्टता । जब हम सफलता के मार्ग की किसी बाधा को दूर करने में हार जाते हैं, या किसी विरोध के प्रबल आघात से पीड़ित होते हैं, तो स्वभावतः हमारा मन मूर्च्छा का अनुभव करता है। यह मूर्च्छा अगली असफलता का भी हेतु बन जाती है, जिससे हम और भी निश्चेष्ट हो जाते हैं। इस तरह असफलता और मूर्च्छा का यह घातक आवर्त्त शुरू हो जाता है। अपने जीवन की किसी अवस्था में हम इस आवर्त्त का शिकार अवश्य बन जाते हैं। हममें से विरला ही कोई होगा जो इस भँवर में न फँसा हो ।

Mansik Murcha Ka Upchar

मानसिक मूर्च्छा क्या है? हमारे जीवन की क्रिया-प्रतिक्रिया में एक स्वाभाविक समरसता होती है। उसके भंग होने पर जो विषमता पैदा होती है, वह कभी-कभी असाधारण अनुपात में बढ़ जाती है। मानसिक मूर्च्छा उसी परिवर्धित विकृति का नाम है। हममें से अधिकांश व्यक्ति दिन में निरन्तर परिश्रम करते हैं और रात को विश्राम लेते हैं। जब तक थककर चूर नहीं हो जाते तब तक हम निरन्तर परिश्रम करते जाते हैं और तब दूसरे दिन के लिए नई शक्ति संग्रह करने के अर्थ हम सो जाते हैं।

दुर्भाग्य से यदि हमें इस नूतन शक्ति-संचय में सफलता प्राप्त न हो तो हमारे शरीर व मन के उपकरणों का तनाव बढ़ जाता है और उसका सन्तुलन कम-से-कम अस्थायी तौर पर विषम हो जाता है। इस विषमता की छाया हमारी मानसिक तरंगों पर पड़ती है, हम मूर्च्छा अनुभव करते हैं। किन्हीं अवसरों पर हमारा मन किसी दुष्प्राप्य लक्ष्य की प्राप्ति के बाद हर्ष का स्पन्दन अनुभव करता है। कभी हमारी मानसिक तरंगों पर असफलता या किसी प्रियजन की विदाई का दुःखजनक प्रतिबिम्ब पड़ता है। उन क्षणों में भी हमें मूर्च्छा की प्रतीति होती है।

आप अपने से कुछ साधारण प्रश्न पूछिए। सामान्यतया आप प्रसन्न- मन व्यक्ति हैं या खिन्नमन? विरोधी अवस्थाओं का आघात आपको इतना परास्त तो नहीं कर देता कि पुनः प्रयत्न करने की प्रेरक भावना ही नष्ट हो जाती हो और आप अपने को निढाल व निराश अनुभव करते हों? यदि आपकी यह अनुभूति लम्बे काल तक स्थिर रहती है और आप निराशावृत्त रहने में विश्रान्ति का अनुभव करते हैं तो आप ‘साधारण’ प्रकार के व्यक्तियों से भिन्न हैं।

ऐसी प्रकृति वालों को दुर्भाग्य या असफलता का सामना करते हुए सावधान रहना चाहिए कि कहीं इस विश्रान्ति में परित्राण पाने की उनकी यह मनोवृत्ति उनकी प्रकृति का अंग न बन जाए। क्योंकि इस विश्रान्ति में परित्राण पाने की इच्छा ही हमारी अस्थायी मानसिक अवस्थाओं को उन्माद की चरम सीमा तक ले जाती है।

मेरे एक मित्र की मानसिक अवस्था इसी प्रकार की निर्बलता से ग्रस्त थी। मैंने उसे मूर्च्छा व गहरी उदासी के बार-बार आने वाले प्रबल झोंकों से कई बार बचाया। उसका व्यक्तित्व आकर्षक और प्रभावशाली था । साहित्य के क्षेत्र में उसने गौरवास्पद स्थान पाया था। जब वह अपनी उमंग में होता था तो अपने आकर्षक व्यक्तित्व से पास वालों को मुग्ध कर लेता था।

उसकी प्रतिभा और प्रवचन शैली सुनने-देखने वालों को चित्रलिखित-सी बना देती थी। कार्यशक्ति का भी उसमें अक्षय कोष था । लिखने बैठता तो दिन-रात एक हो जाते। मनोवस्था स्वस्थ होती थी तो वह अतीव आशावादी, सजग और अनथक परिश्रमी था। किन्तु कार्यशक्ति की इस ऊँची सतह पर मनुष्य की क्षमता का दाह उस नवीन क्षमता से अधिक हो जाता है जो उसकी स्थानपूर्ति करती है। परिणाम यह होता है कि शीघ्र ही अन्तिम थकान का अवसर आ जाता है।

यह थकान असीम मूर्च्छना को प्रकट करती है। व्यक्ति की इस मन्दता का भान उसकी प्रसन्नता के परिणाम से ही किया जा सकता है। विषाद का पलड़ा जितना भारी होगा, प्रसन्नता का भी उतना ही होगा। घड़ी के लटकन की तरह जिस अस्वस्थ मन व्यक्ति का मन हर्ष की एक सीमा को छूएगा वही उसकी दूसरी सीमा को भी अवश्य छूएगा। दस वर्ष पहले एक दिन अचानक ही मूच्छा के वश मेरे उस मित्र ने अपने अभागे प्राणों का अन्त कर देने में ही निर्वाण माना। अपघात का यत्न भी उसने किया, किन्तु सफलता नहीं मिली।

पाठकों में से कुछ ने अवश्य पागलखाने के लोगों को देखा होगा। वहाँ कुछ ऐसे बीमार होते हैं जो असीम मूर्च्छा के शिकार होते हैं। आप एक बार उसे मिलेंगे तो वह नाचता, गाता, धाराप्रवाह बोलता और अट्टहास करता दिखाई देगा; लेकिन, दूसरे ही क्षण वह निश्चेष्ट, बुझा, थका-हारा मालूम होगा। एक अमित थकान उसके अंग-अंग में व्याप्त हो गई होगी। आपसे बात करने को वह गर्दन भी ऊँची नहीं रख सकेगा, वह भी एक ओर झुक गई होगी।

उसकी उमंग केवल अतिशय कार्यपरता के प्रदर्शन द्वारा अपनी निश्चेष्टता की स्वाभाविक विकृति के विरुद्ध आत्मरक्षा का कार्य होगा। ऐसी विषम परिस्थितियों में हम सभी गुनगुनाकर अपने मन की घबराहट दूर करते हैं। मूर्च्छनाग्रस्त व्यक्ति अपने कल्पित भय को हराने के लिए झूठे परित्राण की तलाश करता है। उसे केवल इसी परित्राण का अनुभव है, किन्तु यह परित्राण सर्वथा निरुपयोगी है- क्योंकि इससे वस्तु-परिस्थिति में कोई अन्तर नहीं आता। समस्या का रूप यथापूर्व ही बना रहता है।

यह मानसिक मूर्च्छा जब रोग की दूसरी-तीसरी अवस्था में पहुँच जाती है तो उसका ज्ञात मन वास्तविकता के सम्पर्क से छूट जाता है। अपनी तीव्र उदासी के कारणों का उसे ज्ञान नहीं होता। हाँ-जाने-अनजाने में किए गए किसी अपराध की स्मृति उसे अवश्य रहती है। और यह कल्पना भी इसके साथ छाया की तरह लगी रहती है कि भगवान उसे उक्त अपराध का दण्ड दे रहा है।

नैतिकता का भारी बोझ उसके निर्बल व्यक्तित्व को कुचल रहा होता है, और यह भावना उसे और भी प्रताड़ित करती रहती है कि वह अपनी ही श्रद्धा के विरुद्ध आचरण करने को मजबूर है। साधारणतया धर्म मनुष्य का पथ-प्रदर्शक होता है-किन्तु इस खण्डित मन व्यक्ति के लिए धर्म ही अभिशाप हो जाता है।

अपनी मानसिक अवस्था के कारणों की तलाश में वह कुछ ऐसे कारण ढूँढ लेता है जो उसके ‘अहंभाव ‘ को झूठा सन्तोष दे सकते हैं। ऐसे अस्थिरमन व्यक्तियों को अपनी इस हो रहा प्रवृत्ति पर रोक-थाम लगाने के लिए यत्नशील रहना चाहिए। उन्हें समझ लेना चाहिए कि अस्थिर-मनस्कता निषेधात्मक प्रतिक्रिया है, यह वास्तविकता से परित्राण पाने का पलायन मार्ग है।

क्षणिक प्रतिगमन को पराजय मानकर यदि हमारे वैज्ञानिक या कलाकार बार-बार निश्चेष्ट न बैठ जाते तो हमारी दुनिया न जाने किस शिखर पर पहुँच जाती। जब भी कोई कठिन समस्या हमारे सामने आती है तो हल करने में हमें उसी क्षण सफलता नहीं मिलती। ऐसा हो जाए तो हमें उसे कठिन कहने की आवश्यकता ही न हो। उसे सुलझाने के लिए हमें स्वतन्त्र विचार, प्रखर प्रतिभा, समयानुकूल व्यवहार करने की बुद्धि, धैर्य, साहस दृढ़ संकल्प आदि सबका प्रयोग करना पड़ता है।