Manobal ka Pehla Aadhar hai Vivek – मनोबल का पहला आधार है विवेक
पिछले प्रकरणों से यह बात बहुत साफ हो गई है कि हमारी मानसिक निर्बलताएँ तभी उठती हैं जब हम परिस्थितियों के अनुरूप मानसिक समत्व स्थापित नहीं कर पाते। मन में समत्व स्थापित करना या समचेष्ट होना वृत्तियों का कार्य नहीं है। इन्द्रियाँ तो स्वभाव-नियत कार्य में ही प्रवृत्त होती हैं। यह कार्य बुद्धि का, प्रज्ञा का, विवेक का है। तभी बुद्धि को वृत्तियों से श्रेष्ठ कहा गया है। बुद्धि अपने मार्ग का निश्चय करने या प्रस्तुत विकल्पों में से चुनाव करने में स्वतन्त्र है। बुद्धि के चुनाव को हम अपना ही चुनाव कहते हैं । बुद्धि की सहायता से यह काम करने के कारण ही हम उसे बुद्धि का काम कह देते हैं।
इस चुनाव में आप स्वतन्त्र हैं। आप चाहें तो उस मार्ग का चुनाव कर लें जो आपको समता या व्यवस्थिति की ओर ले जाता है, अथवा उसे पसन्द कर लें जो विषमता व उन्माद की ओर ले जाता है। यह पढ़कर आप पूछ उठेंगे, भला कोई अपनी पसन्द से भी उन्मादी होना चाहता है? यह सच है कि हम जान-बूझकर उन्माद का चुनाव नहीं करते, किन्तु यह भी सच है कि हम जान-बूझकर ऐसे मार्ग का चुनाव ज़रूर करते हैं जो हमें उन्माद की खाई में गिराने वाला होता है। विकृत व्यक्ति एक विशेष प्रकार के कार्यक्रम का अनुसरण शुरू कर देता है, और वह अपनी कठिनाइयों के लिए विशेष प्रकार के समाधानों का चुनाव शुरू कर लेता है।
वह अपने सुकृतदुष्कृतों के लिए एक विशेष प्रकार के बहाने गढ़ना और उनकी आड़ लेना प्रारम्भ कर देता है। उसका यह चुनाव तर्कसंगत नहीं होता। इसे विवेकयुक्त चुनाव नहीं कह सकते। हमारी बुद्धि यदि विवेकयुक्त चुनाव के योग्य हो सके तो हम मानसिक रोगों के कभी शिकार न बनें। हम सबके सामने जब कोई मानसिक समस्या पेश होती है तो हम उसके समाधान के लिए अपनी-अपनी चुनाव-पद्धति से अपने मार्ग का निश्चय करते हैं। इस चुनाव के अवसर पर ही हमें सावधान होने की आवश्यकता है, और यही अवसर है जब हम मानसिक रोगों को दूर करने का कोई क्रियात्मक उपाय कर सकते हैं। चुनाव के ये क्षण हमारे भावी जीवन के लिए बड़े महत्त्व के होते हैं।
केशव का उदाहरण लीजिए। उसने अपनी कठिनाइयों का मुकाबला न करके आत्मघात का चुनाव किया। केशव बहुत संकोची, एकान्तरत और शरीर से दुबला लड़का था। खेल-कूद में उसकी रुचि नहीं थी। परिवार के अन्य साथियों के खेलों में भी वह भाग नहीं ले सकता था। स्कूल में जाकर भी वह अलग-सा रहा। उसकी शारीरिक निर्बलता ने उसे सबसे मेल-जोल नहीं करने दिया। कॉलेज में जाकर भी किसी समारोह में भाग नहीं लेता था।
उसे डर था कि अन्य लड़के उसपर हँसेंगे। कॉलेज जीवन में उसने मित्र नहीं बनाए, उसे विश्वास था कि कोई लड़का उसका मित्र बनना पसन्द नहीं करेगा। वह अपने को सबसे तुच्छ समझता रहा। आखिर इस हीन भावना ने उसे अपनी जान लेने पर मजबूर कर दिया। आत्महत्या भी एक तरह का उन्माद है। यह सच है कि उसने स्वयं उन्माद का चुनाव नहीं किया, किन्तु सबसे अलग रहकर उसने उन्माद के मार्ग का चुनाव अवश्य कर लिया।
वह अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग करता तो परिस्थितियों के अनुरूप अपनी भावी प्रवृत्तियों को व्यवस्थित कर सकता था, और अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए शारीरिक उत्कर्ष से अन्य क्षेत्रों में प्रवृत्त हो सकता था। वह चाहता तो कॉलेज की वाद-विवाद परिषद् में भाग लेता; नाटक, संगीत, सभा में योग देता, या कॉलेज की अध्ययन-सम्बन्धी प्रतियोगिता में भाग लेकर अपने योग्य सम्मान पाने का यत्न कर सकता था। इन चुनावों में वह अपने सहपाठियों में स्वाभिमान की भी रक्षा कर लेता। किन्तु, उसने चुनाव के उन क्षणों में बुद्धि से काम नहीं लिया। जीवन की समस्याओं का अन्त करने के स्थान पर उसने जीवन का ही अन्त कर दिया। दोनों विकल्प उसके सामने थे।
कठिनाइयों से युद्ध या कठिनाइयों से पलायन । सीधे मार्ग पर चलते-चलते वह उस दोराहे पर आ गया था जहाँ दो दिशाओं में अलग-अलग रास्ते फटते हैं। दाईं ओर का रास्ता ऊपर चढ़ाई का रास्ता है जो अन्त में मानसिक प्रासाद और मानसिक समता तक ले जाता है। बाईं ओर का रास्ता नीचे खाई की ओर जाता है जो हमारे थके शरीर और पीड़ित पाँवों के लिए बहुत सुलभ प्रतीत होता है।
यहाँ मैं यह कहकर आपको धोखा देना नहीं चाहता कि मानसिक समता तक ले जाने वाला दायें हाथ का रास्ता बहुत सीधा-सरल रास्ता है। सचमुच वह ऐसा नहीं है। कम से कम प्रारम्भ में तो वह बिलकुल सीधा नहीं है। सफलता का सच्चा रास्ता अवश्य है। और दूसरी ओर विफलता व विनाश है, वह सरल है, लेकिन सर्वनाश की खाई में ले जाता है।
इस दोराहे पर पहुँचकर ही मनुष्य को उपयुक्त चुनाव में सहायता की आवश्यकता होती है। केशव को यदि समय पर यह सहायता मिल जाती तो वह दक्षिण दिशा के मार्ग का ही चुनाव करता। यदि उसमें विवेक-बुद्धि होती तो वह उस मार्ग की कठिनाइयों से युद्ध करते हुए भी उसी मार्ग पर बढ़ने का निश्चय करता, और अन्त में अपने स्वभाव-नियत कार्यों में सफलता पाकर गौरव अनुभव करता। दुर्भाग्य से वह इस तत्त्वदर्शिनी प्रज्ञाबुद्धि से रिक्त था । तत्त्वदर्शी वह है जो अनेक आवरणों में छिपे सत्य या तत्त्व को भी देख ले। सच्चाई कई पर्दों में छिपी हुई होती है, स्वयं को पहचानने में भी इसीलिए मनुष्य भूल कर जाता
इस भूल में सुधार भी हो सकता है। आपमें से कई ऐसे होंगे जिन्होंने नीचे जाने वाले रास्ते का चुनाव किया होगा। चुनाव करते समय आपने विवेक-बुद्धि का प्रयोग नहीं किया। आप उस क्षण के महत्त्व को नहीं समझ सके जो जीवन के भविष्य का निश्चय करता है। प्रस्तुत पुस्तक का अध्ययन करने के बाद यदि अब भी आप अपनी भूल को समझ गए हैं तो इस रास्ते से वापस लौट पड़िए, अब भी समय है।
अब भी आप अपनी विवेक- बुद्धि पर भरोसा कर सकते हैं। अब भी आप अपनी प्रज्ञा को इतना विकसित कर सकते हैं कि वह आपका जीवन के भावी चुनाव में पथ-प्रदर्शन कर सके। अपनी विचार-शक्ति को कुण्ठित न होने दीजिए। यही शक्ति है जो आपको संसार के विरोधी प्रवाहों के विरुद्ध तैरने में समर्थ कर सकती है। किन्तु प्रश्न यह है कि इस विवेक-बुद्धि से हमारा अभिप्राय क्या है? आपमें से अधिकांश व्यक्तियों का विश्वास है कि विवेक-बुद्धि मनुष्य के जन्म के साथ ही पैदा होती है। यह एक ऐसा गुण है जो सभी मनुष्यों में विद्यमान है।
मेरी सम्मति में विवेक-बुद्धि की यह व्याख्या बहुत भ्रमोत्पादक और अपर्याप्त है। इसके दो कारण हैं : प्रथम यह है कि इस व्याख्या से कोई नैतिक व सामाजिक प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। इसके अनुसार बड़े से बड़ा अपराधी भी विवेक-बुद्धि से युक्त माना जाएगा। दूसरा कारण यह है कि यह व्याख्या कुछ लोगों को भ्रम में डाल देती है कि वे विवेक की दृष्टि से इतर लोगों की अपेक्षा हीन हैं, और उन्हें जीवन में सफलता के बहुत कम अवसर हैं। इस धारणा से मनुष्यों के मानसिक स्वास्थ्य में उन्नति करने के स्थान पर अवनति होती है।
अतः हमें विवेक-बुद्धि का कोई सप्रयोजन अर्थ ढूँढना चाहिए। जब हम यह कहते हैं कि एक व्यक्ति बहुत बुद्धिमान है तो हमारा यह अभिप्राय नहीं होता कि वह केवल सोचने की योग्यता रखता है, बल्कि यह भी होता है कि उसका ज्ञान विस्तृत है, उसकी बुद्धि तत्त्वदर्शिनी है, वह भले-बुरे की परख कर सकता है, और उसका दृष्टिकोण सामाजिक हितों के अनुकूल है। यदि साधारणतया सोचने वाले व्यक्ति को बुद्धिमान कहा जा सके तब बड़े से बड़ा पापी भी बुद्धिमान कहलाएगा।
मेरी सम्मति में जिस विवेक-बुद्धि की चर्चा मैं कर रहा हूँ वह अवस्था अनुभव और ज्ञान के साथ बढ़ती है। उचित-अनुचित के परखने का विवेक बहुत अनुभव, अन्तर्दृष्टि और विस्तृत अनुशीलन के बाद उत्पन्न होता है। सामाजिक दृष्टिकोण का विकास तभी होता है जब संस्कृति की सहायता से मनुष्य की संकीर्ण और स्वार्थ-प्रधान मनोवृत्ति नष्ट हो जाती है।
अतः विवेक-बुद्धि ऐसी वस्तु है जिसे उपलब्ध करना पड़ता है, जो दीर्घकाल की साधना से प्राप्त होती है। उक्त साधना से ही बुद्धि में परिपक्वता आती है। हमारे ग्रन्थों में इसी परिपक्व बुद्धि को ‘प्रज्ञा’ कहा गया है। जिसकी प्रज्ञा परिस्थितियों के प्रवाह में व्यवस्थित रहती है वही ‘स्थितप्रज्ञ’ कहलाता है ।
प्रत्येक मनुष्य अपनी जन्मजात बुद्धि का विकास करके उसे प्रज्ञा का रूप दे सकता है। हमें यह देखना है कि बुद्धि में कौन-से ऐसे विशिष्ट गुण हैं जिनके कारण यह हमें उचित-अनुचित मार्ग के चुनाव में सच्चा रास्ता दिखला सकती है, और जिन गुणों से युक्त होकर यह हमें मानसिक विकृतियों से बचा सकती है। बुद्धिपूर्ण व्यवहार की परीक्षा भी इन्हीं गुणों से होती है। वे गुण ये हैं- स्वतन्त्र विचार, कल्पना, अनुरूपता, साहस, भावनात्मक परिपक्वता और सामाजिक चेतनता।
हो सकता है, आपमें से कुछ इस सूची से सन्तुष्ट न हों और यह चाहते हों कि कुछ अन्य गुणों का भी इसमें समावेश कर दिया जाए। इनमें से एक विनोदप्रियता का गुण भी हो सकता है, जिसका मानसिक अस्वास्थ्य के निवारण में बहुत उपयोग है। विनोदप्रियता हमें अपनी आलोचना स्वयं करने का अवसर देती है। जीवन के अनेक संकटग्रस्त क्षणों में वह हमें हँसना सिखती है। और बड़ी से बड़ी समस्या पर हल्के दिल से सोचने का अवसर देती है। अन्य कई गुणों का समावेश भी इस सूची में हो सकता है, लेकिन यहाँ मैं उपर्युक्त कसौटियों पर ही बुद्धि को परखने का यत्न करूँगा ।
पहली कसौटी है ‘स्वतन्त्र विचार’ । स्वतन्त्र विचार हर तरह की शिक्षा और प्रत्येक विषय में अन्तर्ज्ञान के लिए आवश्यक है। संकीर्ण मन किसी भी नये ज्ञान को ग्रहण नहीं कर सकता। विकृत-मस्तिष्क मनुष्य के मन के द्वार पहले ही बन्द हो जाते हैं। मानसिक विकृति का यह पहला संकेत है। वैज्ञानिक तथ्यों के अन्वेषण में भी वही व्यक्ति सफल होते हैं जो मुक्त भाव से नये-नये परीक्षण कर सकते हैं। उनका दृष्टिकोण ही यह होता है कि जगत् में अन्तिम सत्य कोई भी नहीं है।
प्रतिदिन नया सत्य सामने आता है। सत्य शोधकों में संकीर्णता या कट्टरता के लिए कोई स्थान नहीं है। शोधक का मन नित्य नई खोज में लगा रहता है। वह अपनी परिधि में कभी बन्द नहीं होता। उसकी वृत्तियाँ सदा पराङ्मुखी रहती हैं। हमें भी अपनी विचार-शैली में इसी तरह की विस्तृत भावना भरनी चाहिए। विस्तार की यह मनोवृत्ति ही जीवन की निशानी है। जितने अंशों में हम अपनी शक्तियों को समेटते हैं, या संकीर्ण दायरे में बन्द करते हैं, उतने अंशों में ही हम निर्जीव होते जाते हैं। बुद्धि के द्वार सदा खुले रहने चाहिए, तभी हमारे व्यवहार बुद्धिपूर्ण होंगे।
मानसिक विकृति-युक्त मनुष्य का मन अपने द्वारों को बन्द कर लेता है। उसकी धारणाएँ एक निश्चित रेखा पर चलती हैं। उस रेखा की सीमा के पार जाना उसके लिए कठिन होता है। वह किसी भी नये मार्ग का चुनाव कर ही नहीं सकता। किसी भी विरोधी विचार-सरणी से वह प्रभावित नहीं होता। नये विचार उसके स्वनिर्मित दुर्ग को भेदकर प्रवेश नहीं कर सकते। जिस तरह कोई कमज़ोर राजा शत्रु के आक्रमणों से बचने के लिए पहाड़ी किले में जा छिपता है, उसी तरह विकृत मनुष्य दुनिया से छिपकर अपनी अँधेरी कोठरी में जा बैठता है। बाहर के प्रकाश से वह भयभीत होता है।
‘कल्पना’ से मेरा अभिप्राय उस विचार-शक्ति से है जो नये परीक्षणों का प्रयोग करती है। जब हम किसी नई समस्या से घिर जाते हैं तो उसका समाधान करने के लिए अपनी कल्पना में ही कई योजनाएँ बनाते हैं और कल्पना से ही उन योजनाओं के फलाफल की परख करते हैं। समाधान के जितने भी विकल्प हमारे सामने आते उन सबकी परीक्षा करने के बाद ही हम कार्य का प्रारम्भ करते हैं।
यह परीक्षा अपने-आपमें लक्ष्य नहीं होती, न ही इसके लिए हम अनन्त काल तक निष्क्रिय बैठ सकते हैं, किन्तु यही एक मार्ग है जिससे हम अपनी आने वाली भूलों से बच सकते हैं। मनुष्य-बुद्धि की यह विशेषता उन विशेषताओं में से है जो उसे पशु-जगत् से ऊँचा उठाती हैं। ऐसी कल्पनाबुद्धि से युक्त मनुष्य अपने जीवन में बहुत कम भूलें करता है। एक चेष्टा करने से पहले वह कल्पना से उसकी भावी सम्भावनाओं को देख लेता है, और कोई भी निष्प्रयोजन-चेष्टा नहीं करता ।
बुद्धिपूर्वक व्यवहार की तीसरी कसौटी ‘अनुरूपता’ है। परिस्थितियों के अनुकूल बदलने वाला व्यक्ति कठिन से कठिन परिस्थिति में भी स्वस्थचित्त रहता है। इसके सम्बन्ध हम पिछले प्रकरणों में विस्तार से कह चुके हैं। उन्हें दोहराने की आवश्यकता नहीं ।
चौथा गुण है ‘साहस’। बुद्धिपूर्ण व्यवहार के लिए साहस आवश्यक गुण है। जीवन की वास्तविकताओं का सामना करने के लिए साहस चाहिए। विरोधी परिस्थितियों में अविचल रहना साहसी का ही काम है। साहस हमारी आभ्यन्तरिक शक्तियों का संकेत है, और भय हमारी निर्बलता का संकेत। साधारणतया ‘साहसी व्यक्ति’ शब्द से उस व्यक्ति का स्मरण किया जाता है जिसने किसी भयावह परिस्थिति में शौर्य प्रकट किया है।
निःसन्देह मृत्यु की अवहेलना करके रणक्षेत्र में जाने वाला सैनिक बहुत ऊँचे दर्जे का साहसी है, किन्तु हम – आप भी जब जीवन के युद्ध में अपनी छोटी-छोटी कठिनाइयों से निर्भयतापूर्वक लड़ते हैं तो हम भी साहसी कहलाने के अधिकारी होते हैं। साहस से ही हमें विजय प्राप्त होती है। कायर व्यक्ति जिस मार्ग पर चलने से डरते हैं, साहसी उस मार्ग पर निर्भयता से चल पड़ता है। साहस के बिना हम अपने लिए ऐसे मार्ग का, जो कंटकाकीर्ण होते हुए भी अन्त में हमें मानसिक समता के लक्ष्य तक पहुँचा देता है, चुनाव नहीं कर सकते।
बुद्धिपूर्ण व्यवहार की असली कसौटी ‘भावनात्मक’ परिपक्वता है। जब हम कौमार्य जीवन में प्रवेश करते हैं तो जीवन की अनेक जिम्मेदारियाँ हमारे कन्धों पर आ जाती हैं। हमारी भावनात्मक दुनिया में कई परिवर्तन होते हैं, और जब हम कौमार्यावस्था से यौवन में कदम रखते हैं तब फिर हमारे भावना जगत् में परिवर्तन आता है। कुछ मनुष्य इन परिवर्तनों के अनुरूप अपनी चेष्टाओं में परिवर्तन कर लेते हैं, किन्तु कुछ ऐसे हैं जो बचपन की चेष्टाओं को जवानी तक नहीं छोड़ सकते।
साधारणतया मनुष्य को लगभग पच्चीस वर्ष की अवस्था में गृहस्थ जीवन की जिम्मेदारियाँ उठाने के योग्य हो जाना चाहिए। किन्तु मैं कुछ ऐसे पुरुषों को जानता हूँ जो चालीस वर्ष की अवस्था तक भी स्वयं को विवाह-योग्य नहीं बना पाते। उनकी भावनाएँ विवाहित जीवन के अनुकूल नहीं हो पातीं। उनका यह व्यवहार विवेक-बुद्धि की कसौटी पर पूरा नहीं उतरता।
इसी तरह कुछ लोग ऐसे हैं जो बड़े होने पर भी माँ-बाप की जुदाई सहन नहीं कर सकते। एक दिन के लिए भी अलग होने पर वे बच्चों की तरह रो उठते हैं। उनकी भावनाएँ अभी बहुत कच्ची हैं। ऐसे व्यक्तियों को बुद्धिमान नहीं कहा जा सकता। खून और चोरी के अपराध में गिरफ्तार हुआ व्यक्ति भी प्रायः अपरिपक्व भावनाओं का होता है। उसमें मानवी भावनाओं का अंश या तो बहुत कम होता है अथवा वे कुण्ठित हो चुकी होती हैं।
मनुष्य-हृदय की कोमल भावनाओं-प्रेम, दया, सहानुभूति आदि से वह व्यक्तिचि होता है। पापकृत्य में अधिक से अधिक चतुराई दिखलाने पर भी हम ऐसे पापी को बुद्धिमान नहीं कह सकते। जो बुद्धि हमें मानसिक समता की ओर न ले जाए वह बुद्धि नहीं कहला सकती; चतुराई, हस्तकौशल या अभ्यास आदि किसी भी अन्य नाम से निपुणता को भले ही लक्षित किया जाए।
अन्तिम कसौटी, जिसपर हम बुद्धिपूर्ण व्यवहार को परख सकते हैं, वह ‘सामाजिक चेतना’ है। हमारा अभिप्राय उस अनुभूति से है जो हमें दूसरों के हितों को दृष्टि में रखकर हमारे व्यवहार का निर्देशन करती है। दूसरों से आत्मवत् व्यवहार करना इसका मूलमन्त्र है। संघर्ष के इस युग में भी हम यह बात नहीं भूल सकते कि हमारा जीवन परस्पराश्रयी है, हम अपने में परिपूर्ण नहीं हैं।
अपने आहार, परिधान, मैथुन, आश्रय तथा किन्हीं प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी हम अपने ही प्रयत्न से कुछ प्राप्त नहीं कर सकते। किसी भी क्षेत्र में हम सर्वथा स्वतन्त्र रीति से एक कदम भी नहीं चल सकते। प्रतिक्षण हमें सावधान रहना पड़ता है कि कहीं एक वर्ग के स्वार्थ का बलिदान तो नहीं हो रहा है। समाज का प्रत्येक विभाग, चाहे वह श्रमिक हो या पूँजीपति, किसान हो या नागरिक, दूसरे विभाग पर आश्रित है।
जिस मनुष्य का व्यक्तित्व अपने ही दायरे में सिमटकर रह गया है वह कदापि स्वस्थ नहीं हो सकता। हमारी आवश्यकताएँ हमें स्वयं परापेक्षी बना देती हैं। परहित- चिन्ता ही आत्म-चिन्ता बन जाती है। हम दूसरों से इतना मिले हुए हैं कि दूसरों को भूलकर केवल अपने चिन्तन में व्यस्त नहीं रह सकते।
इन सबका सारांश यह है कि प्रत्येक बुद्धिपूर्ण व्यवहार को इन उपर्युक्त छह कसौटियों से परखा जा सकता है। इन गुणों से ही हम बुद्धिमान और मूर्ख व्यक्ति में भेद कर सकते हैं। कोई भी व्यक्ति बुद्धिमान है या नहीं, इसका उत्तर जानने से पूर्व हमें निम्न प्रश्नों का उत्तर जानना होगा :
क्या उसका मन अपनी परिस्थितियों के परिवर्तनों का अनुभव करने के बाद उसके अनुकूल प्रवृत्त होता है? क्या वह कल्पना द्वारा अपने कार्य के पिता है के बाद अपनी न पर है। नई परियों से नई समस्याओं के अनुपयों को आसानी से उस परिवर्तन में बहुत घर साहसी है, या पर जीवन को नी का सामना करने में हाला है उसकाएँ पर अपना अभी कान की दया हुआ है? क्या को अपना जानता है। यदि इस नों का उत्तर ही में है तो उसकी पूर्णान और जिस व्यक्ति में ये गुण हैं वह बुद्धिमान होगा. विवेकशील होगा |