Manushya ke Mann ke Bhavukta Rog-मनुष्य के मन के भावुकता रोग

मनुष्य की अतिशय भावुकता भी उसे असामाजिक बना देती है, उसकी चेष्टाएँ अस्त-व्यस्त हो जाती हैं। इस भावात्मक विकृति का आरम्भ प्रायः माता-पिता की निरोध-नीति से होता है। उसे रचनात्मक कार्यों में प्रवृत्त करने से ही उसकी विकृति का उपाय हो सकता है।

मानसिक रोग का एक रूप यह भी है कि मनुष्य अपनी अतिशय भावुक मनोवृत्ति के कारण समाज के साथ सन्तोषजनक सम्पर्क नहीं बना सकता। इस असमर्थता के मूल में उसकी मानसिक विकृति नहीं होती, बल्कि सामाजिक समरसता बनाने के गुणों का अभाव ही अधिक होता है।

उसकी कठिनाइयाँ मानसिक क्षेत्र में नहीं, बल्कि भावात्मक जगत से अधिक सम्बन्ध रखती हैं। उसके हार्दिक आवेशों का सन्तुलन सामाजिकता के अनुकूल नहीं होता। वह बहुत भावुक, अस्थिर, उत्तेजनशील और उन्मादी स्वभाव का हो जाता है। अपने उद्वेगों या अपनी चेष्टाओं पर नियन्त्रण रखने की क्षमता उसमें नहीं होती।

ऐसा शीघ्र उत्तेजित होने वाला व्यक्ति किसी भी सामाजिक कार्य को नहीं निभा सकता। वह किसी के भी साथ मिलकर काम नहीं कर सकता, किसी की बात को शान्ति से नहीं सुन सकता, किसी के अधीन काम नहीं कर सकता और न किसी की भूलों को क्षमा कर सकता है। व्यापार-व्यवसाय में इस मनोवृत्ति का व्यक्ति कभी सफल नहीं होता। नौकरी वह कर नहीं सकता। धनोपार्जन के सब काम परस्पर आदान-प्रदान के हैं। दूसरों की सुविधा देखकर ही हमें अपना मार्ग निश्चित करना पड़ता है। उक्त प्रकृति का व्यक्ति इस झंझट झमेले में पड़ना पसन्द नहीं करता ।

Mann ke Bhavukta Rog

उसका व्यक्तित्व सबसे निराला बन जाता है। उसके विकास के लिए उसे नीले आकाश का सम्पूर्ण विस्तार भी पर्याप्त नहीं होता। राजस्थान के निर्जन मरुस्थल भी शायद उसके विस्तार के लिए छोटे साबित हो। इस तरह के भावुक व्यक्ति की सामाजिक चेतनता कभी इतनी व्यवस्थित नहीं हो पाती कि वह अपने साथियों के साथ सफल सम्पर्क बना सके। उसकी भावनाएँ कभी इतनी परिपक्व नहीं हो पातीं कि वह दूसरों के साथ शान्ति से रह सके।

इसलिए वह सामाजिक मेल-जोल से दूर भागता है। यह असामाजिकता कभी-कभी इतनी तीव्र हो उठती है कि वह सम्पूर्ण समाज से विद्वेष करने लगता है, घृणा करने लगता है। यह विद्वेष उसे किसी भी उद्योग में सफल नहीं होने देता। यह असफलता उसकी असामाजिक वृत्तियों को और भी उकसा देती है। वह समाज से बदला लेने की ठान लेता है। उसकी हिंसात्मक भावनाएँ प्रचण्ड हो उठती हैं। भावुक तो वह होता ही है। उसकी चिनगारियाँ समाज के विरुद्ध भभक उठती हैं।

ऐसा व्यक्ति सबकी आलोचना करता है। रचनात्मक सुझाव उसके पास नहीं होते। सुधार की योजनाएँ वह नहीं सोच सकता। केवल नुक्ताचीनी कर सकता है। किसी विस्फोटक रसायन की तरह वह शीघ्र भभक उठता है मानो वह बारूद का बना हो। ऐसे व्यक्ति को विवाह की रस्म में बांधना दो व्यक्तियों का जीवन बरबाद करना है। पत्नी के साथ उसका निभाव हो ही नहीं सकता। ऐसे विकृत-मस्तिष्क व्यक्ति ही उत्तेजित होकर खून करते हैं। उनके हाथ में बन्दूक देना मनुष्य-जीवन को सस्ता बनाना है।

इस प्रकार के व्यक्तियों का अपने आवेशों पर नियन्त्रण नहीं होता। उस अनियन्त्रण के परिणामस्वरूप ही उसकी चेष्टाएँ अस्त-व्यस्त रूप से होती हैं। मनोभावनात्मक विकृति के रोगियों का एक वर्ग ऐसा भी है जिनकी चेष्टाएँ इनसे भिन्न होती हैं। भावात्मक क्रिया-प्रतिक्रिया में वे प्राकृत रूपों से विभिन्न होते हैं। उनके भावनासूचक उपकरणों में कुछ असाधारण न्यूनता होती है। असामाजिक होने के साथ उनकी चेष्टाओं में अन्य विपर्ययसूचक प्रवृत्तियाँ भी आ जाती हैं।

उनका मस्तिष्क विपरीत दिशा में चलता है। उनकी भावनाएँ विपरीत चेष्टाओं में चैतन्य होती हैं। हमारे जेलखानों में ऐसे विपरीत मस्तिष्क व्यक्तियों की कमी नहीं है। जीवन की भावनात्मक रूपरेखा में विद्यमान ये विकृतियाँ ही मनुष्य को निर्दय, निर्मम, क्रूर और हिंसक बना देती हैं। तभी उसे खूनी या क़ातिल कहा जाता है। सहज स्वाभाविक अन्तः वृत्तियों का अतिशय निरोध भी मनुष्य को विकृतिगामी बना देता है। ऐसे विपर्ययवादी विकारों में ही अपने व्यक्तित्व का विकास देखते हैं।

विपरीत चेष्टाओं में रस लेने की प्रवृत्ति तभी जन्म लेती है जब मनुष्य की भावनाओं के स्वाभाविक प्रवाह को निरोध के प्रतिबन्धों से रोका जाता है। निरोधित प्रवाह तब विपरीत मार्गों से फूट पड़ता है तो उनकी प्रवृत्तियों की दिशा ही बदल जाती है। जिन चेष्टाओं से साधारण मनुष्य को अरुचि होती है वही चेष्टाएँ इन्हें प्रिय हो जाती हैं, साधारण तथा घृणित व्यापार ही उन्हें आकर्षित करते हैं। सर्वसाधारण के प्रिय कार्यों में उनको कोई रस ही नहीं आता। हमारा समाज ऐसे विपरीतगामियों से भरा पड़ा है।

ये व्यक्ति दूसरों के कष्टों में आनन्द लेते हैं; दूसरों के रोने पर हँसते हैं। दुःख से तड़पते आदमियों का क्रन्दन इनके हृदय में उत्तेजक रोमांच पैदा कर देता है। कोमल अनुभूतियों से इनका हृदय बिलकुल खाली हो जाता है। भारी से भारी दुष्कर्म करते हुए भी इन्हें अन्तरात्मा की आवाज़ सुनाई नहीं देती। जघन्य से जघन्य पाप भी ये ठण्डे दिल और दृढ़ हाथों से कर देते हैं। केवल स्वार्थ की प्रेरणा ही इन्हें कार्यों में प्रवृत्त करती है। इनकी मानवी भावनाएँ लुप्त हो जाती हैं। जंगल का कानून ही इनका कानून हो जाता है। प्रायश्चित्त-पश्चात्ताप के झमेलों से ये दूर होते हैं।

भावात्मक विकृतियों का प्रारम्भ प्रायः बचपन में माता-पिता की निरोध-नीति से ही होता है। माँ-बाप बच्चों को समय की शिक्षा देते हुए उन्हें दैहिक प्रवृत्तियों के निरोध का भी अभ्यास करा देते हैं। बच्चों के हँसने, रोने, क्रुद्ध होने आदि आवेशों पर इतनी बड़ी रोक-थाम लग जाती है कि बच्चे मुक्तभाव से किसी भी आवेश का प्रदर्शन नहीं कर पाते। हँसने के समय वे हँसना भूल जाते हैं और रोने के समय रोना । क्रोध प्रकट करने के स्थान पर भी उन्हें क्रोध करना नहीं आता।

सभ्यता का तक़ाज़ा है कि क्रोध के आवेश पर संयम रखा जाए। यह संयम आवेश को कुण्ठित कर देता है। समय आने पर अन्याय-अत्याचार के विरुद्ध क्रोध प्रकट करना भी हम भूल जाते हैं। हमारा खून ठण्डा हो जाता है। तब हमारे मनोव्यापार स्वाभाविक दशा में नहीं होते। हम सभ्यता व निरोध के शिकार हो जाते हैं, हमारा विकास अधूरा रह जाता है। भावनात्मक शक्तियाँ निश्चेष्ट होकर सदा के लिए मर जाती हैं। हम सच्चे अर्थों में हृदयहीन हो जाते हैं।

इस तरह का हृदयहीन व्यक्ति नैतिक आदर्शों का अभाव होते ही प्रचण्ड पातकी बन जाता है। पाप-कर्म में उसे कोई संकोच नहीं होता। हो भी क्यों? अपने और अन्य व्यक्तियों में वह कोई अपनापन अनुभव नहीं करता, मानो वह दूसरे ही लोक का हो ।

प्रश्न यह है कि इस भावना शून्य व्यक्ति का क्या उपचार किया जाए? इस गम्भीर सामाजिक समस्या का अभी तक कोई उपचार नहीं मिला। उपचार के स्थान पर अवरोध ही यहाँ सफल हो सकता है। बचपन की उपयुक्त शिक्षा ही इन प्रवृत्तियों का अवरोध कर सकती है। उपयुक्त शिक्षा ही भावनाओं के उचित विकास व संयम को सम्भव बना सकती है।

इस प्रकार के मनोविकार से ग्रस्त व्यक्ति से अपना इलाज कर सकने की आशा बड़ी कठिन है। फिर भी यदि उसे अपनी शक्तियों को रचनात्मक कार्यों में लगाने की प्रेरणा दी जा सके तो इन प्रवृत्तियों पर काबू पा सकता है। निष्कर्मण्यता और निश्चेष्टता उसके सबसे बड़े शत्रु हैं।

उसकी निरोधित काम-प्रवृत्तियाँ यदि सुखी विवाहित जीवन में प्रवाहित हो सकेंगी तो यह विकार स्वयं शान्त हो जाएगा। अन्य मानसिक विकारों की तरह इसका उपचार भी विकृत मनुष्य की अपनी बौद्धिक क्षमता और परिस्थितियों की अनुकूलता पर आश्रित है। किन्तु उपचार से पूर्व विकार के लक्षणों को समझ लेना आवश्यक है—इसलिए हमने इस प्रकरण में उसके बाह्य चिह्नों पर प्रकाश डाला है।