Kunti ko Durvasa Muni ka Vardan Mahabharat Kahani in Hindi – कुन्ती भगवान श्री कृष्ण के पिता वसुदेव की सगी बहन थी । वसुदेव के पिता शूरसेन ने कुन्ती को राजा कुन्तिभोज को गोद दे दिया था । जन्म से ही वे इन्हें पृथा के नाम से पुकारते थे । राजा कुन्तिभोज के यहाँ इनका लालन पालन होने के कारण ये कुन्ती के नाम से जानी गयीं ।

Kunti ko Durvasa Muni ka Vardan

ये श्री कृष्ण जी की बुआ थीं। बालपन से ही कुन्ती बेहद सुशील, सदाचारिणी, संयमशीला तथा भक्तिमती थी । राजा कुन्तिभोज के यहाँ एक बाल एक बड़े तेजस्वी ब्राह्मण अतिथि रूप में आये। इनकी सेवा का कार्य बालिका कुन्ती को सौंपा गया । इनकी ब्राह्मणों में बड़ी भक्ति थी और अतिथि सेवा में अत्यंत रूचि थी ।

राजपुत्री पृथा आलस्य एवं अभिमान को त्यागकर ब्राह्मण देवता की सेवा में तन मन से संग्लन हो गई। उन्होंने शुद्ध मन से सेवा कर ब्राह्मण देवता को पुर्णतः प्रसन्न कर लिया । ब्राह्मण देवता का व्यवहार बेहद अटपटा था । कभी वे अनियत समय पर पधारते तो कभी नियत समय पर ही नहीं आते । कभी कभी ऐसी चीज खाने को मांगते, जिसका मिलना बेहद कठिन होता ।

किन्तु कुन्ती उनके सारे कार्य इस प्रकार कर देती, मानो उन्होंने उनके लिए पहले से तैयारी कर रखी हो । उनके शील स्वाभाव एवं संयम से ब्राह्मणों को अपार संतोष की अनुभूति होती । कुन्ती की यह बचपन की ब्राह्मण सेवा उनके लिए बेहद कल्याण प्रद सिद्ध हुई । इसी से उनके जीवन में संयम, सदाचार, त्याग एवं सेवा भाव की नीवं पड़ी । आगे जाकर इन गुणों को उनके अंदर अदभुद विकास हुआ ।

कुन्ती के भीतर निष्काम भाव का विकास भी बचपन से ही हो गया था । इन्हें उसे पूरी तत्परता एवं लगन के साथ महात्मा ब्राह्मण की सेवा करते पूरा एक वर्ष व्यतीत हो गया । इस तरह इनके सेवा मन्त्र का अनुष्ठान पूर्ण हुआ । इनकी सेवा में ढूंढने पर भी ब्राह्मण को कोई त्रुटि दिखाई नहीं दी । तब वे इन पर अत्यंत प्रसन्न होकर बोले – “हे पुत्री! मैं तेरी सेवा से बहुत प्रसन्न हूँ । मुझसे कोई वर मांग ले ।

तब कुन्ती ने ब्राह्मण देवता को बड़ा ही सुंदर उतर दिया । कुन्ती बोली थी- “भगवन! आप और पिताश्री मुझ पर प्रसन्न हैं । मेरे सब कार्य तो इसी से सफल हो गए । अब मुझे किसी वरदान को आवश्यकता नहीं रही ।

जब कुन्ती ने ब्राह्मण से कोई वर नहीं माँगा, तब उन्होंने कुन्ती से देवताओं के आवाहन का मन्त्र ग्रहण करने के लिए कहा । वे कुछ न कुछ कुन्ती को देना चाहते थे । इस बार वे ब्राह्मण के अपमान के भय से इनकार न कर सकी ।

तब ब्राह्मण ने कुन्ती के वेद के शिरोभाग में आये हुए मंत्रो का उपदेश दिया और कहा कि- “ इन मंत्रो के बल पर तू जिस जिस देवता का आवाहन करेगी, वह तेरे अधीन हो ।” ऐसा कहकर ब्राहमण तत्काल ही अंतर्ध्यान हो गए । ये ब्राह्मण और कोई नहीं, महर्षि दुर्वासा थे ।

और पढ़े

महाभारत की कहानियाँ
Our Facebook Page