Korvon ka ant aur Gandhari ka Shrap Mahabharat ki Kahani –  पाण्डवों की तरफ से सन्धि लेकर जब स्वयं श्री कृष्ण हस्तिनापुर गये, तब उन्होंने भी दुर्योधन को बहुत समझाया था, परन्तु दुर्योधन हठी था। उसकी हठ देखकर धृतराष्ट्र ने देवी गांधारी को बुलाकर कहा था- अब तुम्हीं अपने पुत्र को समझाओं, वह हमारी किसी की भी बात नहीं सुनता। अपने पति के वचनों को सुन गांधारी बोली थी- हे राजन्! आप पुत्र के मोह में फंसे हुए हैं, अतः इस विषय में सबसे अधिक दोष आपका ही है। आप यह जानकर भी कि दुर्योधन महापापी है, आप उसी की बुद्धि के सहारे चलते रहे। दुर्योधन को तो काम, क्रोध, लोभ ने अपने चंगुल में फंसा रखा है।

Korvon ka ant aur Gandhari ka Shrap

अब आप बलपूर्वक भी उसे इस मार्ग से नहीं हटा सकते। आपने इस मूर्ख, दुरात्मा, कुसंगी तथा लोभी पुत्र को बिना विचारे राज्य की बागडौर सौंप दी, उसी कर्म का फल आप आज भोग रहे हैं। ऐसा करके आप पाण्डवों की दृष्टि में स्वयं को हास्यास्पद बना रहे हैं । यदि साम या भेद से ही विपत्ति टाली जा सकती हो, तो कोई भी बुद्धिमान स्वजनों के प्रति दण्ड का प्रयोग क्यों करेगा? गांधारी की यह सीख निर्भीक, निष्पक्ष, हितकारी, नीतिपूर्ण एवं सच्ची थी।

अपने पति से बात कर गांधारी ने अपने पुत्रों को बुला उन्हें समझाने का प्रयास किया । वे बोली- हे पुत्र! मेरी बात सुनो। तुमसे तुम्हारे पिता, पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और विदुर जी ने जो बात कही है, उसे स्वीकार कर लो। यदि तुम पाण्डवों से सन्धि कर लोगे तो सच मानो, इससे पितामह भीष्म जी की, तुम्हारे पिताश्री, स्वयं मेरी, द्रोणाचार्य आदि तुम्हारे हितैषियों की, तुम्हारे द्वारा बड़ी सेवा होगी। हे पुत्र! राज्य को प्राप्त करना, उसे सुरक्षित कर भोगना स्वयं अपने हाथ की ही बात नहीं है।

जो पुरूष जितेन्द्रिय होता है, वहीं राज्य की रक्षा कर सकता है। काम और क्रोध तो मनुष्य को अर्थ से च्युत कर देते हैं। इन दोनों शत्रुओं को जीतकर ही राजा सम्पूर्ण पृथ्वी को जीत सकता है। जिस प्रकार उदण्ड घोड़े मार्ग में ही मूर्ख सारथी को मार डालते हैं, ठीक उसी प्रकार यदि मनुष्य अपनी इन्द्रियों को वश में न रख पाये, तो उसका विनाश निश्चित है।

जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों को वश में कर लेता है, वह हर कार्य सोच-विचार कर करता है। उसके पास लम्बे समय तक लक्ष्मी वास करती हैं। हे पुत्र! तुम्हारे दादा भीष्म जी ने और गुरू द्रोणाचार्य जी ने जो बात कही वह सत्य है। वास्तविकता यही है कि श्री कृष्ण व अर्जुन पर कोई विजय प्राप्त नहीं कर सकता। अतः तुम श्री कृष्ण की शरण में जाओ। यदि वे प्रसन्न रहेंगे, तो दोनों पक्षों के लिए हितकर होगा। हे वत्स! युद्ध करने में कल्याण नहीं है।

उसमें न धर्म है, न अर्थ, तो सुख कहां से आयेगा? यदि तुम अपने मंत्रियों सहित राज्य भोगना चाहते हो, तो पाण्डवों का जो न्यायोचित भाग है, वह उन्हें दे दो। पाण्डवों को तेरह वर्ष तक बाहर रखा गया, यह भी बड़ा अपराध हुआ। अब सन्धि करके प्रायश्चित कर लो। संसार में लोभ करने से किसी को सम्पत्ति नहीं मिलती। अतः तुम लोभ छोड़कर पाण्डवों से सन्धि कर लो।

गांधारी ने दुर्योधन को जो मार्मिक व हितपूर्ण उपदेश दिया, उससे उनके उच्च व्यक्तित्व का परिचय मिलता है। वे विदुषी होने के साथ-साथ श्री कृष्ण व अर्जुन की महिमा शक्ति से भी परिचत थी। दुष्ट दुर्योधन पर अपनी माता के उत्तम उपदेशों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह अपनी मिथ्या हठ पर अटल रहा। जिसका परिणाम यह हुआ कि दोनों तरफ से युद्ध की तैयारियां होने लगीं।

पूरे अट्ठारह दिनों तक कुरूक्षेत्र की भूमि रक्त से सराबोर होती रही। युद्ध के दिनों में दुर्योधन प्रतिदिन अपनी मां से विनती करता- हे माते! मैं शत्रुओं से युद्ध करने जा रहा हूं, आप मुझे आशीर्वाद दीजिए, जिससे युद्ध में मेरी विजय हो। गान्धारी में पतिव्रत का अपार तेज था।

वे यदि दुर्योधन को युद्ध में विजयश्री का आशीर्वाद दे देती तो वह व्यर्थ न जाता। परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। वे जानती थी कि दुर्योधन अत्याचारी हैं। अत्याचारी के हाथों में कभी राजलक्ष्मी नहीं रूकती, अतः वे हर बार दुर्योधन को यहीं उत्तर देती- हे वत्स! जहां धर्म है वहीं विजय हैं। विजय चाहते हो तो धर्म का आश्रय लो, अधर्म का परित्याग करो।

इस प्रकार उन्होंने दुर्योधन का कभी पक्ष नहीं लिया। मगर जब उन्हें पता चला कि युद्ध-भूमि में उनके सौ-के-सौ पुत्र मारे गये तो उनमें स्वाभाविक मातृत्व भी उमड़ पड़ा। उनके मन में पुत्रों के शोक से आक्रोश उमड़ पड़ा। उन्होंने पाण्डवों को श्रापित करने का निश्चय किया। महर्षि वेदव्यास मन की बात जान लेते थे। उन्हें गांधारी के मनोभावों का ज्ञान हुआ, तब उन्होंने उनको सांत्वना देते हुए, उस असत् संकल्प से रोका। उस समय पाण्डव भी वहां उपस्थित थे।

माता गांधारी के मन में क्षोभ देखकर युधिष्ठिर उनके पास गये। स्वयं को धिक्कारते हुए जैसे ही गांधारी के चरणों की तरफ बढ़े, तभी गांधारी की क्रोध भरी दृष्टि पट्टी से पार हो धर्मराज युधिष्ठिर के नखों पर पड़ी। जिससे उनके सुन्दर रक्तिम नख उसी क्षण काले पड़ गये। यह देखकर उनके भाई भी मारे भये के इधर-उधर छिप गये। पाण्डवों को भयभीत देख गान्धारी का क्रोध शान्त हो गया। तब उन्होंने माता के समान पाण्डवों को स्नेह दिया।

उपरोक्त घटना से गान्धारी के अनुपम पतिव्रत तेज का पता चलता है। अन्त में गान्धारी ने अपना क्रोध श्री कृष्ण पर निकाला। यह भी कहा जा सकता है कि भगवान् श्री कृष्ण ने उनकी बुद्धि पलटकर अपनी ओर कर पाण्डवों को उनके कोप से बचा लिया और उनका अभिशाप स्वयं पर ले लिया। देवी गांधारी ने कुरूक्षेत्र पहुंच जब वहां का हृदय-विदारक दृश्य देखा तो वे अपने शोक को सम्भाल न सकी।

क्रोध में भरकर गांधारी श्री कृष्ण से बोली- हे कृष्ण! पाण्डवों और कौरवों के मध्य ये विनाशकारी लीला उनकी आपसी फूट के कारण नहीं हुई। यदि ऐसा था भी तो तुम तो समर्थ थे। तुमने अपने सम्बन्धियों की उपेक्षा क्यों की? तुम्हारे पास अनेक सेवक और अपार सेना पर थी। यदि तुम चाहते तो दोनों को बचा सकते थे, अपने वाक् कौशल से उन्हें समझाकर शान्त भी कर सकते थे। परन्तु तुमने जानबूझ कर कौरवों का संहार कराया। अतः अब तुम्हें ही इसका परिणाम भुगतना होगा।

मैंने अपने पति की सेवा से जो तप संचय किया है, उसी के बल पर मैं तुम्हें श्राप देती हूं कि जिस प्रकार परस्पर युद्ध करते हुए कौरव पाण्डवों के हाथों मारे गये। उसी प्रकार तुम अपने बन्धु-बांधवों का भी वध करोगे और स्वयं भी अनाथ की भांति मारे जाओगे। आज जैसे ये भरतवंश की स्त्रियां आर्तनाद कर रही हैं, उसी प्रकार तुम्हारे कुटुम्ब की स्त्रियां भी अपने बंधु-बांधवों के मारे जाने पर विलाप करेंगी।

गांधारी के इन कठोर वचनों को सुन अन्तर्यामी श्री कृष्ण मुस्कराये और बोले- मैं तो जानता था कि यह बात इसी तरह ही होने वाली है। शाप देकर तुमने होनी को ही बताया है। इसमें शंका नहीं कि कृष्णवंश का विनाश दैवी कोप से ही होगा। इसका विनाश भी मेरे अतिरिक्त कोई नहीं कर सकता। मनुष्य तो क्या, असुर या देवता भी इसका संहार नहीं कर सकते। अतः यह युदवंश आपसी कलह की ही भेंट चढ़ेगा। समय आने पर गांधारी का श्राप सत्य सिद्ध हुआ।

आगे पढ़े

महाभारत की कहानियाँ