Khandav Van ka Vinash – द्रौपदी स्वयंवर में पाण्डवों के जीवित होने का रहस्य खुल चुका था। उनके जीवित होने का समाचार पाते ही धृतराष्ट्र व्याकुल हो उठे थे। जब उन्होंने पाण्डवों की मृत्यु का समाचार सुना था, तब धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को हस्तिनापुर का राजा बना दिया था, मगर अब पाण्डवों के जीवित होने पर बदनामी के भय से दुर्योधन को राजसिंहासन से हटाना अनिवार्य हो गया था।

Khandav Van ka Vinash

उन्हें इस दुविधा से निकलने का कोई मार्ग नहीं सूझ रहा था, अन्त में उन्होंने एक युक्ति सोच ली। उसी युक्ति के अनुसार धृतराष्ट्र ने विदुर को भेजकर पाण्डवों को हस्तिनापुर बुला लिया और अपने पुत्रों के साथ उनका झगड़ा मिटा देने की गरज से आधा राज्य लेकर खाण्डवप्रस्थ में रहने का प्रस्ताव पाण्डवों के सम्मुख रख दिया।

युधिष्ठिर ने भी उनकी यह आज्ञा सहर्ष स्वीकार कर ली और अपने भाईयों, माता व द्रौपदी के साथ खाण्डवप्रस्थ में रहने लगे। अब युधिष्ठिर के नेतृत्व में आधे हस्तिनापुर पर पाण्डवों का साम्राज्य स्थापित हो चुका था। खाण्डवप्रस्थ में श्री कृष्ण पाण्डवों से मिलने आया करते थे, क्योंकि उन्हें पाण्डवों से बेहद लगाव था।

एक बार श्री कृष्ण पाण्डवों से मिलने खाण्डवप्रस्थ आये थे। उस शाम श्री कृष्ण व अर्जुन शीतल हवा का आनन्द लेने की इच्छा से यमुना तट पर आ बैठे। दोनो बैठे नए मंत्रियों व राज्य के अधिकारियों के विषय में बातचीत कर रहे थे। तभी, उन्होंने देखा एक लम्बे कद का मनुष्य लड़खड़ाता हुआ उन्हीं की तरफ आ रहा है। वह मनुष्य चेहरे से अत्यन्त वीर व साहसी लग रहा था, किन्तु उसकी दयनीय अवस्था, उसे रोगी सिद्ध कर रही थी।

उनके पास आकर उस मनुष्य ने बड़े ही दीन स्वर में कहा- क्या आप लोग मेरे भोजन की व्यवस्था कर सकते हैं? मैं भूख से अत्यन्त व्याकुल हो रहा हूं। हम अभी आपके भोजन की व्यवस्था करते हैं, तब आप पेटभर भोजन कीजिएगा। जब तक हम भोजन मंगवायें, आप कृपा करके बैठ जाइए और आराम कीजिए। श्री कृष्ण व अर्जुन ने एक साथ ही उत्तर दिया।

उनकी बात सुनकर वह मनुष्य तत्परता से बोला- परन्तु मुझे साधारण भोजन की अभिलाषा नहीं है। मुझे कुरकुरा, आनन्दमय व मन को लुभाने वाला ऐसा स्वादिष्ट भोजन चाहिए, जिसके एक ग्रास में ही पेट भर जायें। उस मनुष्य की विचित्र अभिलाषा सुन श्री कृष्ण व अर्जुन असमंजसता में पड़ गये। दोनों उसे गौर से देखने लगे। उन्हें अपनी तरफ इस तरह से देखते हुए देख, वह मनुष्य बोला- लगता है, आप दोनों ने मुझे पहचाना नहीं। मैं अग्नि हूं।

दोनों चैंककर उठे और उनके निकट आकर ध्यान से देखने लगे। वास्तव में, वे अग्निदेव ही थे, किन्तु उनकी दयनीय व क्षीण काया को देख वे पहचान में नहीं आ पा रहे थे। उन्होंने तुरन्त अग्निदेव को नमस्कार किया और उनकी कुशलक्षेम पूछी- क्या आप बीमार है? अथवा कोई दुःख है। आप जैसा भोजन चाहते हैं? आप आदेश करें, वह वस्तु चाहें जितनी भी दुर्लभ क्यों न हो, उस वस्तु को प्राप्त करने में भले ही हमें कितनी भी कठिनाई का सामना क्यों न करना पड़े। वही मंगवाई जायेगी और आपके आदेश अनुसार ही उसे पकवाकर, आपको भोजन परोसा जायेगा।

अग्निदेव ने क्षीण स्वर में कहा- कुछ मंगवाने या पकवाने की आवश्यकता नहीं है। मेरा खास भोजन तो तैयार ही है। तब श्री कृष्ण ने आश्चर्य से पूछा – कहाँ? अग्निदेव ने बताया- खाण्डव वन। अग्निदेव का उत्तर सुन श्री कृष्ण ने पूछा- आपका मतलब वह वस्तु खाण्डव वन में है? तब अग्निदेव बोले- नहीं। खाण्डव वन ही वह वस्तु है, जिसे मैं अपने भोजन के रूप में ग्रहण करना चाहता हूं।

अग्निदेव की बात सुनकर श्री कृष्ण व अर्जुन दोनों चैंक पड़े। अग्निदेव उनके मनोभावों को भली-भांति समझ गये थे। वे बोले-चैंकिए मत! मेरी इस अभिलाषा के पीछे एक कारण है। वह क्या? श्री कृष्ण ने पूछा। आपने राजा श्वेतकि का नाम सुना है। हां……हां । अर्जुन बोले- वहीं राजा श्वेतकि, जिन्होंने बहुत दान, पुण्य, यज्ञ-हवन और बलि आदि कराकर बहुत यश प्राप्त किया है। हां वहीं…..। अग्निदेव उदास होकर बोले- वह राजा अपने पुण्य कर्मो द्वारा अवश्य ही स्वर्ग जायेगा, किन्तु जब तक वह इस पृथ्वी लोक में जीवित है, तब तक एक भी ब्राह्मण उससे सम्बन्ध नहीं रखेगा।

अर्जुन ने विस्मय से पूछा- ऐसा क्यों? अग्निदेव ने बताया- उनके यज्ञ आदि कराते-कराते सभी ब्राह्मण अन्धे हो गये। वह कैसे? श्री कृष्ण स्वयं भी आश्चर्यचकित थे। प्रतिदिन धुएं के सामने बैठकर जब कोई सारा दिन वेद मंत्र पढ़ता रहेगा, तब और क्या होगा? अग्निदेव बोले- यज्ञ के हवनकुण्ड में डाली गई समस्त सामग्री मुझे ही ग्रहण करनी होती थी, इस कारण मुझ पर भी इसका सीधा प्रभाव पड़ा है, जब देश की सारी सूखी लकड़ियों को हवनकुण्ड में स्वाह किया जा चुका था, जब कच्ची हरी टहनियां हवनकुण्ड में डाली गई। कच्ची हरी टहनियों से उठता गहरा धुआं, बेचारे ब्राह्मणों की आंखों व गले में इस तरह भर गया कि उन्हें कुछ दिखाई ही नहीं देता था।

फिर राजा ने अपने अन्तिम यज्ञ को पूर्ण करने के लिए पड़ोसी राज्यों से ब्राह्मण बुलायें। -तो क्या ये यज्ञ आदि बहुत समय से हो रहे हैं? श्री कृष्ण ने पूछा। हां, कई वर्षो से! अग्निदेव ने उत्तर दिया- एक यज्ञ समाप्त होता, तो श्वेतकि दूसरा यज्ञ आरम्भ कर देते। उन्होंने चार तरह की बलि चढ़ाई, जो हर क्षत्रिय राजा का धर्म समझाा जाता है। एक ऐसा यज्ञ किया, जिसके पूर्ण होने पर हजार ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा दी गई। इसके तुरन्त बाद एक यज्ञ और किया गया, जिसका उद्देश्य स्त्रियों व बच्चों का कल्याण था। अग्निदेव के वचन सुनकर श्री कृष्ण बोले- इतने अधिक यज्ञ तो किसी धर्मपरायण राजा के लिए भी अधिक हैं।

अग्निदेव ने गहरी सांस ली और बोले- इतने यज्ञ होने के बाद मेरी क्या दशा हुई होगी यह आप मेरी क्षीण काया देखकर ही अनुमान लगा सकते हैं। जब मैं आपके सम्मुख उपस्थित हुआ, तो आप भी मुझे पहचान नहीं पाये थे। वर्षो से इन यज्ञों में मुझे बड़े-बड़े पात्र बर्तन भरकर माल घी ही पिलाया गया है। जरा मेरा रंग देखकर सोचिए, वर्षो तक मात्र घी पीकर रहना कितना कठिन होगा? मेरी वह चमक-दमक व आभा न जाने कहां लुप्त हो गई है, जिसे देखकर स्त्रियों को भी ईष्र्या होती थी। मैं अपने इसी तेजोमय रूप से ही पहचाना जाता था। अब मैं शक्तिहीन-सा हो गया हूं, अतः स्वास्थ्यप्रद व पौष्टिक भोजन खाना चाहता हूं।

श्री कृष्ण जी ने पूछा- तो आप इसीलिए खाण्डव वन को अपना भोजन बनाना चाहते हैं? अग्निदेव ने कुछ क्षण सोचकर कहा- खाण्डव वन में वह सब कुछ है, जो मुझे भोजन में चाहिए। सूखे कुरकुरे वृक्ष, रस भरे पौधे, सूखी झाड़ियां व लताएं। अपनी अनेक जिह्वओं से मैं उनका रसास्वादन करूंगा। अग्निदेव को भोजन की बात करने से बड़ी तृप्ति मिल रही थी।

वह बोले- खाण्डव वन को भोजन बनाने का एक अन्य कारण भी है। वह क्या? अर्जुन ने पूछा। अग्निदेव गम्भीर होकर बोले- दरअसल, खाण्डव वन देवराज इन्द्र के मित्रों व गुप्तचरों का गढ़ बन गया है। इन्द्र को हर समय यह भय व अन्देशा रहता है कि पृथ्वी लोक तथा स्वर्ग लोक में कहीं कोई गुप्त रूप से उनसे विद्रोह तो नहीं कर रहा अथवा कोई उनका सिंहासन हथियाने का षड्यंत्र तो नहीं रच रहा? इन्हीं आशंकाओं के कारण इन्द्र ने अपने गुप्तचरों को खाण्डव वन में बसा रखा है और नागराज तक्षक उन सभी गुप्तचरों का नेतृत्व करते हैं।

उनके इस रहस्योद्घाटन को सुन अर्जुन चैंके, वे बोले- तो क्या नागराज तक्षक इतने गिर गये हैं कि अब वे गुप्तचर व भेदिये का काम करने लगे हैं? अग्निदेव बोले- वे स्वयं नहीं करते, किन्तु वन में रहने वाली उनकी सर्प सेना के साथ-साथ असंख्य पिशाच, नरभक्षी, दैत्य-दानव, बेताल, प्रेत और भी अनेकों भयानक पशु-पक्षी इस कार्य में लगे हैं। वन में ऐसे भयावह प्राणियों के निवास से आस-पास के गांवों में भय का वातावरण बन गया है।

सूर्यास्त के बाद लोग वन से आने वाली भयानक आवाजें सुनकर अपने घरों से बाहर नहीं निकलते। इसी भय के चलते कई गांव खाली तक हो गये हैं। यही वह अन्य कारण है, जिसके लिए खाण्डव वन का विनाश अनिवार्य हो गया हैं। अर्जुन सोच में पड़ गये, कुछ क्षण पश्चात् वे बोले- आप अग्निदेव हैं, आप चाहते तो अकेले ही उस वन को भस्म कर डालते, फिर आप हमारे पास क्यों आये? अग्निदेव दुःखी स्वर में बोले- मैंने कई बार प्रयास किया, किन्तु सफल न हो सका।

उस वन की स्वयं इन्द्र रक्षा करते हैं। अन्त में मैं जब ब्रह्माजी के पास गया, तो उन्होंने कहा- श्री कृष्ण व अर्जुन के पास जाओ, वे ही तुम्हारी सहायता करेंगे। इसी कारण मैं आपकी शरण में आया हूं। खाण्डव वन पाण्डवों के अधीनस्थ था, इसलिए श्री कृष्ण ने इसका निर्णय अर्जुन पर छोड़ दिया। अर्जुन सोच मंे पड़ गये। कुछ देर बाद वे बोले- हम आपकी सहायता करने के लिए तैयार हैं, किन्तु हमें इसके लिए नये दिव्यास्त्रों व एक दिव्य रथ की आवश्यकता होगी।

अर्जुन के वचनों को सुन अग्निदेव ने अर्जुन को वरूण देवता का दिव्य धनुष व कभी बाणों से खाली न होने वाला तरकश दिया। साथ ही अर्जुन को विश्वकर्मा द्वारा निर्मित दिव्य रथ दिया, जो धरती व नभ दोनों ही स्थानों पर समान गति से चलता था। इसके अलावा अर्जुन को एक वल्लभ भी दिया, जो फेंकने पर बादलों की तरह गरजता था। तत्पश्चात् अग्निदेव ने श्री कृष्ण को ऐसा चक्र प्रदान किया, जो शत्रु का संहार कर पुनः वापस लौट आता था। श्री कृष्ण व अर्जुन अपने सभी अस्त्रों-शस्त्रों से सुसज्जित हो रथ पर सवार हुए और अग्नि को साथ लेकर खाण्डव वन को घेरकर खड़े हो गये।

अग्निदेव अपनी लपलपाती अनेक जिह्वओं से वन को भस्म करने लगे तथा श्री कृष्ण और अर्जुन वन के ऊपर रथ में सवार हो किसी के भी हस्तक्षेप करने पर, युद्ध करने के लिए तत्पर हो उठे। ज्यों ही अग्निदेव की प्रचण्ड ज्वालाओं ने वन को जलाना आरम्भ किया, उनके ताप से व्याकुल हो सभी भयानक जीव-जन्तु, दैत्य-दानव, प्रेत-पिशाच आदि अपने प्राणों की रक्षा के लिए इधर-उधर भागने लगे, किन्तु श्री कृष्ण के चक्र व अर्जुन के बाणों ने उन्हें भागने नहीं दिया।

अग्निदेव तेजी से सभी को हजम करते जा रहे थे। कुछ ही देर में सारा खाण्डव वन भीषण अग्नि से घिर गया। जब अग्नि देवता ने श्री कृष्ण व अर्जुन की सहायता से खाण्डव वन को जलाना आरम्भ किया था, उस समय अग्नि के ताप से त्रस्त हो सारे देवता देवराज इन्द्र के पास गये । तब इन्द्र की आज्ञा से दल-के-दल मेघ उस प्रचण्ड अग्नि को शान्त करने के लिए जल की मोटी-मोटी धाराएं बरसाने लगे। इन्द्र अत्यन्त क्रोध में था।

एक तो वन में उसके सभी गुप्तचर नष्ट हो गये थे, दूसरे उस वन में नागराज तक्षक का परिवार भी रहता था। इन्द्र ने तक्षक को उसकी सेवाओं के बदले यह वचन दे रखा था कि वे स्वयं उसके परिवार की रक्षा करेंगे। तक्षक उस समय वन में नहीं थे, जिस कारण उनके परिवार की रक्षा का सम्पूर्ण भार देवराज इन्द्र पर था। इन्द्र की आज्ञा से बरसती जल धाराओं को रोकने के लिए अर्जुन ने अपने अस्त्र बल से बाणों का प्रयोग किया।

इससे एक बूंद भी जल पृथ्वी पर गिर न सका। जब यह समाचार इन्द्र को मिला तो वह अपने ऐरावत हाथी पर सवार हो, वायु, कुबेर, यम तथा अन्य देवताओं के साथ वहां आ पहुंचा और अभिमान में भर श्री कृष्ण व अर्जुन को युद्ध के लिए ललकारने लगा। अर्जुन ने अपने बाणों की वर्षा से इन्द्र को व्याकुल कर दिया, तब इन्द्र ने भी अपने तीक्षण अस्त्रों की वर्षा से अर्जुन को उत्तर दिया। दोनों ओर से घमासान युद्ध छिड़ गया। श्री कृष्ण व अर्जुन ने मिलकर अपने चक्र व तीखे बाणों द्वारा देवताओं की सारी सेना को बिखेर दिया।

उस समय भगवान श्री कृष्ण ने अपना कालरूप प्रकट कर दिया। देवता व दानव उनके पौरूष को देखकर दंग रह गये। अन्त में इन्द्र को सम्बोधित करके यह आकाशवाणी हुई कि- तुम अर्जुन व श्री कृष्ण को युद्ध में किसी भी तरह जीत न सकोगे। ये साक्षात् नर-नारायण हैं। इनकी शक्ति व पराक्रम असीम है। ये सबके लिए अजेय हैं।

तुम देवताओं को लेकर यहां से चले जाओ, इसी में तुम्हारी भलाई है। आकाशवाणी सुन देवराज इन्द्र अपनी सेना के साथ लौट गये तथा अग्नि ने देखते-ही-देखते उस विशाल वन को भस्म कर दिया। अर्जुन की सेवा से प्रसन्न होकर अग्नि ने उन्हें दिव्यअस्त्र प्रदान किये। इन्द्र ने भी उनके अस्त्र कौशल से प्रसन्न होकर उन्हें समय आने पर अस्त्र देने की प्रतिज्ञा की तथा अग्नि की प्रार्थना पर वरूण देव ने उन्हें अक्षय तरकश, गाण्डीव धनुष व बानर चिन्ह युक्त ध्वजा से मण्डित रथ दिया था।

इधर अग्निदेव अपने भरण-पोषण में लगे थे। तभी वन में रह-रहा मयदानव अग्नि की प्रचण्ड ज्वाला से बचता हुआ भागा। अग्नि ने श्री कृष्ण से मयदानव को मारने की प्रार्थना की। उनकी सहायता के लिए भगवान श्री कृष्ण भी अपना चक्र लिये उसे मारने को प्रस्तुत थे। मयदानव ने अपने बचने का कोई उपाय न देख अर्जुन की शरण ली, अर्जुन ने उसे अभयदान दिया।

अब श्री कृष्ण ने भी अपना चक्र वापस खींच लिया और अग्नि देव ने भी उसका पीछा करना छोड़ दिया। मयदानव के प्राण बच गये। मयदानव ने उपकार के बदले में अर्जुन की कुछ सेवा करनी चाही। अर्जुन ने कहा- तुम श्री कृष्ण की सेवा कर दो, इससे मेरी सेवा हो जायेगी। मयदानव बड़ा निपुण शिल्पी था। श्री कृष्ण ने उससे महाराज युधिष्ठिर के लिए इन्द्रप्रस्थ में एक बड़ा सुन्दर सभा भवन तैयार करवाया था।

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