Karna par Parshuram ka Krodh – कर्ण के जन्म की घटना उस समय से जुड़ी है, जबकि कुन्ती बालिका थी और ऋषि दुर्वासा की सेवा कर उन्हें प्रसन्न कर चुकी थी। कुछ दिनों बाद दुर्वासा द्वारा प्राप्त मंत्र की परीक्षा के लिए कुन्ती ने सूर्य का स्मरण किया। यह बात कुन्ती के विवाह से पूर्व की है। कुन्ती ने जब मंत्र द्वारा सूर्य का आवाहन किया, तब सूर्य देव ने प्रकट होकर कहा -कहो क्या काम है? यह सुनकर कुन्ती कहने लगी- महाराज! मैंने तो आपकी परीक्षा के लिए आपका स्मरण किया था।

Karna par Parshuram ka Krodh

यह सुनकर सूर्य बोले- हमारा आवाहन कर तुमने हमें बुलाया है, अतः कुछ तो मांगना ही होगा। कुन्ती बोली- जो आपकी इच्छा हो सो दे दें। इस पर सूर्य देवता बोले- तुम्हारे गर्भ से हमारा एक पुत्र उत्पन्न होगा। यह वरदान दे सूर्य देवता चले गये ।तब कुन्ती के गर्भ से कवच कुण्डल धारण किये कर्ण का जन्म हुआ। कुन्ती अविवाहित थी, जिस कारण बदनामी के भय से कुन्ती उसे सन्दूक में बन्द कर गंगा में बहा आयी।

उस समय गंगा किनारे सूत पुत्र अधिरथ नामक व्यक्ति अपनी पत्नी राधा के साथ गंगा स्नान कर रहा था। सन्दूक देख अधिरथ ने उसे जल से बाहर निकाला। सन्दूक से उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। वे निसंतान थे। बालक को पाकर पति-पत्नी प्रसन्न हुए और कर्ण का लालन-पालन बड़े लाड़-प्यार से करने लगी।

यह कर्ण के जीवन की विडम्बना थी कि सूर्य तथा कुन्ती का पुत्र होने पर भी उसे वह सम्मान व अधिकार नहीं मिला, जिसका वह जन्म से अधिकारी था। कुन्ती द्वारा लोक लाज के भय से उसके पैदा होते ही त्याग देने पर सूत दम्पति ने उसका पालन-पोषण किया था, जिस कारण वह सदा सूत पुत्र के नाम से ही पुकारा जाता रहा।

यद्यपि कर्ण को इस वास्तविकता का पता चल गया था कि कुन्ती का ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते वह भी पाण्डवों का भाई है, तथापि उसने कभी यह चेष्ठा नहीं की कि वह जबरन अपने इस अधिकार को प्राप्त करे । इतना अवश्य था कि यह दुःख उसे हमेशा कचोटता रहा। एकमात्र दुर्योधन ही ऐसा था, जो कर्ण को अपना अभिन्न मित्र मानकर उसे अपने हृदय से लगाता था।

उसने कर्ण को अंग देश का राजा घोषित कर उसे उस स्थिति से भी उबारने का प्रयास किया, जिसमें कर्ण को सूत पुत्र मानकर हेय दृष्टि से देखा जाता था। अब यह तो दुर्योधन ही जानता था कि उसे कर्ण से सच्ची मित्रता के कारण स्नेह था अथवा कर्ण की वीरता और पराक्रम के कारण वह उसका हितचिन्तक बना था, किन्तु कर्ण दुर्योधन को अपना सच्चा मित्र मानकर सच्चे हृदय से सदैव उसकी मंगल-कामना किया करता था।

कर्ण इस बात को भी भली-भांति समझता था कि जब तक उसके पास रणकौशल है, बाजुओं में शक्ति है, तभी तक ही इस जगत में उसका सम्मान है। अतः वह यथासम्भावी अपनी बलवृद्धि व अस्त्रों-शस्त्रों की प्राप्ति में लगा रहता था। एक दिन उसने सुना कि महर्षि जमदग्नि के पुत्र परशुराम जी को अनेकों दिव्यशस्त्रों का ज्ञान है तो वह उनसे उन दिव्यशस्त्रों का ज्ञान प्राप्त करने का विचार करने लगा।

किन्तु यह इतना सरल नहीं था। परशुराम जी क्षत्रियों के प्रबल शत्रु थे। उन्होंने इक्कीस बार धरती को क्षत्रियों से शून्य कर दिया था। वह किसी भी मूल्य पर किसी क्षत्रिय को अपना शिष्य स्वीकार नहीं कर सकते थे और तो और उनके आश्रम में क्षत्रियों का प्रवेश तक निषेध था। कर्ण ये सब बातें जानता था, किन्तु वह भी अपनी धुन का पक्का था।

उसने निश्चय कर लिया था कि चाहे जैसे भी हो, वह परशुराम जी से शस्त्र विद्या अवश्य प्राप्त करेगा। कर्ण ब्राह्मण का छद्म वेश धारण कर परशुराम जी के पास पहुंचा। उसने अपनी सेवा-भक्ति से शीघ्र ही उन्हें प्रसन्न कर लिया। कर्ण को पूरी लगन व निष्ठा से अपनी भक्ति व सेवा करते देख परशुराम जी ने उससे बड़े स्नेह से पूछा- वत्स! तुम कौन हो? किस उद्देश्य से यहां आये हो? कर्ण ने अपना वास्तविक परिचय छिपाते हुए कहा- गुरूदेव! मैं एक ब्राह्मण पुत्र हूं। आपसे दिव्यास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूं।

परशुराम ने कर्ण के वचनों पर विश्वास कर, उसे दिव्यास्त्रों का ज्ञान देना स्वीकार कर लिया। कुछ ही दिनों में कर्ण ने परशुराम से अनेक अमोध दिव्यास्त्रों व उन्हें उपयोग करने के मंत्र सीख लिए। परशुराम भी ऐसा होनहार शिष्य पाकर बहुत प्रसन्न थे। एक दिन अभ्यास करने के पश्चात् परशुराम एक वृक्ष के नीचे बैठकर विश्राम कर रहे थे।

कर्ण भी वहीं नीचे बैठा उनके पैर दबा रहा था। शीतल और सुगंधित वायु बह रही थी। ऐसे में परशुराम को झपकी आ गई और वह वहीं बैठे कर्ण की जंघा पर रखकर लेट गए। थोड़ी ही देर बाद एक कीड़ा कर्ण की जंघा पर आ बैठा। कर्ण ने कीड़े को देख यह सोचकर उसे हटाने का भी प्रयत्न नहीं किया क कहीं गुरूदेव की नींद में विघ्न न पड़ जाये। अगले ही क्षण, कीड़े ने कर्ण की जंघा पर काट लिया।

इससे कर्ण को असहनीय पीड़ा हुई, किन्तु वह अविचल रूप से बैठा रहा। कीड़े द्वारा काटे स्थान से रक्त बहने लगा था। धीरे-धीरे बहता रक्त परशुराम जी के चेहरे तक आ पहुंचा। रक्त का परशुराम जी के चेहरे तक आना था कि उनकी नींद टूट गई। वे हड़बड़ाकर उठ बैठे। जब उन्होंनं अपने चेहरे पर रक्त देखा और उनकी दृष्टि कर्ण की जंघा पर कीड़े के काटने से बने घाव पर पड़ी, वे सहसा क्रोधित स्वर में बोले- सच बताओ, कौन हो तुम? किसी ब्राह्मण में इतना साहस व धैर्य नहीं हो सकता जो इस प्रकार कीड़े के काटने पर भी अविचल रूप में बैठा रहे।

यह गुण अवश्य ही कठोर स्वभाव वाले क्षत्रियों का है। परशुराम को क्रोधित अवस्था में देख कर्ण समझ गया कि अब अपनी वास्तविकता छिपाना उचित न होगा। उसने अपना सिर झुकाकर दोनों हाथ जोड़कर कहा- क्षमा करें गुरूदेव! मेरा नाम कर्ण है और मैं जन्म से ही क्षत्रिय हूं। आपसे दिव्यास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए मैंने असत्य का सहारा लेने का अपराध किया था।

यद्यपि परशुराम जी अत्यन्त क्रोधी मनुष्य थे, परन्तु कर्ण द्वारा अपराध स्वीकार करने पर उनका क्रोध शान्त हुआ। वे बोले- कर्ण! तेरा यह अपराध अक्षम्य है। तुने मुझसे असत्य वचन कह, मेरे साथ विश्वासघात किया है। तेरे द्वारा अब सत्य बोलने पर मैं तुझे दी हुई अपनी विद्या वापस तो नहीं ले सकता, किन्तु यह मेरा श्राप है कि तुझे, जब भी अपने जीवन में इस विद्या की सर्वाधिक आवश्यकता होगी, तभी तू उसे भूल जायेगा। लाख चाहने पर भी तू इसका उपयोग न कर सकेगा।

परशुराम के इन वचनों ने कर्ण को दिव्यात्रों को प्राप्त करने से जो प्रसन्नता मिली थी, यह क्षण भर में ही लुप्त हो गई। कर्ण परशुराम से श्रापित हो थका-हारा सा उन्हें प्रणाम कर वापस लौट आया। ऐसा नहीं है कि कर्ण एक छली व्यक्ति था। वे विद्वान व साहसी व्यक्तित्व के स्वामी होने के साथ-साथ दानवीर भी था।

यह उनके भाग्य की ही विडम्बना थी, जो वे क्षत्रिय पुत्र होते हुए भी सूत-पुत्र कहकर अपमान किया गया। यदि उसे पुत्र की भांति विधिवत् स्थान मिलता, तब क्यों तो दुर्योधन उन्हें अंग देश का राजा घोषित कर अपनी मित्रता का झण्डा गाड़ता? क्यों एक क्षत्रिय वीर की भांति रगों में उबलते रक्त के कारण वे परशुराम से शस्त्र ज्ञान लेने हेतु छल करते?

और क्यों महाभारत के युद्ध में अपने भाइयों के समक्ष शत्रुओं की भांति शस्त्र उठाते। यदि वे कुन्ती पुत्र कहलाते तो द्रोणाचार्य व कृपाचार्य जैसे गुरू उन्हें भी पाण्डवों व कौरवों की भांति शस्त्र विद्या सिखाते। महाभारत युद्ध में जब कर्ण को अपनी रक्षा हेतु दिव्यास्त्रों की आवश्यकता पड़ी तब वह परशुराम जी के श्राप के कारण दिव्यास्त्रों का ज्ञान भूल गया और मृत्यु को प्राप्त हुआ।

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