Karana Ka Vadh Mahabharat ki kahani – जब विदुर ने कुन्ती को बताया कि कौरव-पाण्डवों के मध्य युद्ध में कर्ण ही हत्या की जड़ है, तब कुन्ती कर्ण के पास गई। कर्ण ने कुन्ती को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और बोला- हे देवी! मैं राधा और अधिरथ का पुत्र कर्ण आपको प्रणाम करता हूं। कहिये मेरे लिए क्या आज्ञा है? कुन्ती बोली- हे पुत्र कर्ण! तुम राधा और अधिरथ के पुत्र नहीं, बल्कि मेरे पुत्र हो। कौमार्य अवस्था में उत्पन्न होने के कारण मैंने तुम्हारा त्याग किया था।
धर्म के अनुसार तुम महाराज पाण्डु के ही पुत्र हो। तुम मेरे गर्भ से सूर्य द्वारा उत्पन्न हुए हो। इस बात के स्वयं सूर्यदेव साक्षी हैं। कुन्ती के इन वचनों का समर्थन स्वयं सूर्य देवता ने भी किया। यह सुनकर कर्ण ने कुन्ती को पुनः प्रणाम किया और हाथ जोड़कर बोले- हे माता! तुम्हारे स्तनों का दूध युधिष्ठिर आदि ने पिया है। अतः उन्होंने संसार पर विजय प्राप्त की।
वे धन्य है। मैं भी धन्य हूं, जो आपकी कोख से मैंने जन्म लिया। कुन्ती ने कहा- हे पुत्र! पाण्डव तुम्हारे अनुज हैं। यदि तुम अपने भाईयों से मिल जाओ, तो दुर्योधन युद्ध नहीं कर सकता, इस प्रकार दोनों ओर की रक्षा हो जायेगी। अपनी माता के कथन को सुन कर्ण ने कहा- हे माता! तुम जो कह रही हो, वह सत्य है। परन्तु मेरे कारण ही युद्ध हो रहा है।
यदि मैं अपने वचनों से विमुख हो जाऊंगा, तो मेरे पिता सूर्य को कलंक लगेगा और संसार में यह बात विख्यात हो जायेगी कि कर्ण पाण्डवों से भयभीत हो दुर्योधन का साथ छोड़ गया, और मैं दुर्योधन के सम्मुख यह प्रतिज्ञा कर चुका हूं कि पाण्डवों को मारकर उसे विजयी बनाऊंगा।
आपका पुत्र होकर मुझमें इतना साहस नहीं कि मैं अपनी प्रतिज्ञा भंग कर सकूं। हे माता! मुझे स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि केवल दस योद्धा ही इस महासंग्राम में जीवित बच पायेंगे। शेष सभी काल के गाल में समा जायेंगे। कर्ण की बात सुन कुन्ती बोली- हे वत्स! मेरे पांचों पुत्र जीवित रहें, यहीं वर तुमसे मांगने आई हूं। कर्ण बोले- हे माते! मैंने अर्जुन का वध करने की प्रतिज्ञा की है।
आपके तो मुझे मिलाकर छः पुत्र हैं। मैं आपको वचन देता हूं, आपके पांच पुत्र मेरे बाणों से वंचित रहेंगे। परन्तु मैं दुर्योधन के साथ विश्वासघात नहीं करूंगा। हे माता! आज आपके दर्शन पाकर मेरा जीवन सफल हुआ। अब मुझे कुरूक्षेत्र में जाने की आज्ञा दे। कुन्ती को प्रणाम कर कर्ण कुरूक्षेत्र में जाने की तैयारी में जुट गये और कुन्ती वापस आ गई।
कर्ण कुन्ती के समक्ष भी अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहा। महाभारत युद्ध में कर्ण का नकुल के साथ घोर संग्राम हुआ। कर्ण ने नकुल को इतना व्यथित किया वे भाग गये । तब कर्ण ने उन्हें पकड़ कर कहा- नकुल, तुम्हें मैंने बार-बार हराया है, किन्तु तुम इससे लज्जित मत होना, मैं तुम्हें मारूंगा नहीं। इतना कहकर कर्ण ने नकुल को छोड़ दिया।
इसी तरह कर्ण का युधिष्ठिर से सामना हुआ। तब कर्ण ने युधिष्ठिर के घोड़े को मारकर उसके धनुष की डोर व रथ का धुरा काट डाला। तब अस्त्रहीन युधिष्ठिर से कर्ण ने कहा- हे धर्मराज! आप इस समय मेरे बंदी हो गये। अतः मैं आपको आज्ञा देता हूं कि आप युद्ध न करके शिविर में लौट जाये। मैं आपको मारूंगा नहीं। यद्यपि कर्ण सूर्य पुत्र एवं एक वीर योद्धा थे, परन्तु अर्जुन के सिर पर तो स्वयं भगवान श्री कृष्ण का हाथ था।
युद्ध भूमि में कर्ण के सारथी शल्य ने कर्ण से कहा- हे कर्ण! रथ का पहिया फंस गया। तब कर्ण स्वयं रथ से उतर पहिये को निकालते हुए अर्जुन से बोले- हे अर्जुन! मेरे रथ का पहिया धरती में फंस गया है। अतः मैं जब तक इसे न निकाल लूं, तब तक तुम मुझ पर प्रहार मत करना। तब कृष्ण बोले- हे अर्जुन! कर्ण को शीघ्र मार गिराओ।
यह सुनकर क्रोध से अधीर अर्जुन कर्ण पर बाणों की वर्षा करने लगा। उस समय भी कर्ण अपने रथ का पहिया निकालने की चेष्टा कर रहा था। यही वो समय था जब अर्जुन ने आग्नेयास्त्र का प्रयोग किया और कर्ण परशुराम से सीखी दिव्यास्त्रों की दीक्षा को उनके श्राप के कारण भूल गया था। श्री कृष्ण ने अर्जुन को अवसर का लाभ उठाने के उद्देश्य से कहा था- हे पार्थ! इसे रथ पर चढ़ने से पूर्व ही मार डालो, अन्यथा यह अस्त्र उठाते ही, तुम पर भारी पड़ेगा।
तब श्री कृष्ण के सुझाव पर अंजलिक बाण से अर्जुन ने कर्ण का सिर काट डाला। महावीर कर्ण के मरते ही उसके शरीर से एक ज्योति निकलकर सूर्यमण्डल में जा समायी। इस प्रकार कर्ण ने दुर्योधन से मित्रता निभाते हुए वीरगति पायी तथा इतिहास के पृष्ठों में दानवीर कर्ण के रूप में अपना नाम अमर करा गया।
यदि इन्द्र देवता ने ब्राह्मण वेश में आकर अपने पुत्र अर्जुन की रक्षा हेतु कर्ण से कवच-कुण्डल दान में न मांगे होते, तो कर्ण का वध असम्भव था तथा महाभारत युद्ध का परिणाम ही कुछ और होता।
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