Insan ke Sanshay Rog – इंसान के संशय रोग
संशयशील व्यक्ति सारी दुनिया को अपना दुश्मन समझ लेता है। संशयात्मक मनोवृत्ति का मूल कारण संशयानुसार मनुष्य का अपना अपराधी मन ही होता है। आन्तरिक सुरक्षा की भावना इस विकृति का सर्वश्रेष्ठ उपाय है।
संशयशील व्यक्ति का मन कभी सबल नहीं होता अतिशय संशयी होना भी मानसिक निर्बलता का कारण है। संशयशील व्यक्तियों को हर समय यही ध्यान रहता है कि लोग उसकी निन्दा कर रहे हैं, उसके विरुद्ध षड्यन्त्र रच रहे हैं। इस मनोवृत्ति को मानस-चिकित्सक कष्टग्रन्थि नाम से कहते हैं। यह दुर्भावना जब मनुष्य के मन को चारों ओर से घेर लेती है तो उसे लगता है कि सारी दुनिया उसकी दुश्मन है और सब लोग उसे मारने की योजनाएँ बना रहे हैं।
संशयग्रन्थि-ग्रस्त पति अकारण ही पत्नी पर यह सन्देह करने लगता है कि वह इतर पुरुषों से प्रेम-प्रदर्शन कर रही है, और उन्हें अपनी ओर आकृष्ट करने का यत्न कर रही है। ऐसे संशयातुर पति के आगे पत्नी का स्वयं को निर्दोष सिद्ध करना निरर्थक हो जाता है। उसकी मनोवृत्ति में पत्नी की युक्तियाँ कोई अन्तर नहीं ला सकतीं। यह विकृति अचानक ही एक दिन प्रकट हो जाए, ऐसा नहीं है।
वर्षों की संचित विकृतियाँ और मानसिक निर्बलताएं ही पति को इस मनोविकार का शिकार बनाती हैं। ऐसे व्यक्ति की उपेक्षा नहीं की जा सकती। उसपर निगरानी रखनी चाहिए। किसी भी दिन वह अपनी पत्नी के कल्पित प्रेमी की हत्या कर सकता है। उसके हाथ मनुष्य-रक्त से रंग जाएँगे ।
इस मनोवृत्ति का जन्म पति-पत्नी के बीच छोटे-से कलह से ही होता है। बाद में उसकी निरोधित कामप्रवृत्ति उसके मन में अपना ताना-बाना बुनना शुरू करती है। और अन्त में पति-पत्नी में से किसी की मानसिक विकृति उन्माद की सीमा तक पहुँच जाती है।
अन्य मानसिक विकारों की तरह यह भी बीजरूप से प्रत्येक मनुष्य में रहता है। हम सब किसी न किसी समय अकारण संशयी हो जाते हैं और अपने लज्जाजनक कृत्यों के लिए दूसरों को दोषी ठहराना शुरू कर देते हैं। बचपन से ही यह निर्बलता हमें घेर लेती हैं।
अपने कामों की जिम्मेदारी स्वयं न उठाकर हम सारा कलंक दूसरे के सिर मढ़ देते हैं। विद्यार्थी अवस्था में कुछ बालक हर समय आस्तीन चढ़ाकर घूमते रहते हैं। उनकी दृष्टि दूसरे साथियों पर रहती है कि कहीं कोई साथी उनकी हँसी न उड़ाए। अकारण ही वे अपने साथियों से झगड़ पड़ते हैं। कई स्त्रियों को यह चिन्ता रहती है कि पड़ोस की स्त्रियाँ हर समय उनकी निन्दा करती रहती हैं।
मैं ऐसे कई पतियों को जानता हूँ जो अपनी पत्नियों पर अकारण सन्देह करते हैं। उनके साथ बाज़ार में चलना कठिन हो जाता है। किसी की ओर पत्नी ने आँख उठाई नहीं कि उन्होंने उसकी गरदन दबोची। कुछ ऐसे पतियों को भी मैं जानता हूँ जो दफ्तर जाते समय पत्नी को घर में कैद करके जाते हैं। एक-दो उदाहरण ऐसे भी हैं जो उनके पैरों में जंजीर बाँध देते हैं।
इस संशयात्मक मनोवृत्ति का मूल कारण संशयातुर मनुष्य का अपना अपराधी मन ही होता है। अपने मन का पाप छिपाने के लिए वह अपनी किसी भी शारीरिक व मानसिक निर्बलताजनक लज्जा से परित्राण पाने के लिए दूसरे को लज्जित करने की चेष्टाएँ करना शुरू कर देता है । उसे आशंका होती है कि कहीं दूसरे लोग उसे पराजित, पीड़ित तथा लज्जित न करें। अतः वह स्वयं दूसरों को नीचा दिखाने, उनपर व्यर्थ दोष मढ़ने का हथियार अपना लेता है।
असफलता के कारण सम्भावित अकीर्ति से परित्राण पाने के लिए भी मनुष्य इस मनोवृत्ति को ग्रहण करता है। अपनी असफलता के लिए वह या तो भाग्य को दोषी ठहराता है या इतर लोगों को। अवस्था की वृद्धि और जीवन की असफलताओं की वृद्धि के साथ यह मानसिक विकृति बढ़ती जाती है। एक दिन वह भी आता है कि वह गली या बाज़ार में किन्हीं भी दो बातचीत करनेवाले आदमियों पर यह शक करने लगता है कि ये उसके विरुद्ध साजिश कर रहे हैं।
यह प्रवृत्ति जब भयंकर रूप पकड़ लेती है तो अस्वस्थ मनुष्य दुनिया के हर काम में स्वघातक योजना ही देखता है। उसकी कल्पना में संसार के सब व्यापार उसे कुचलने के लिए चलते हैं। सूर्य उसे भस्म करने के लिए निकलता है, हवा उसे उड़ाने के लिए बहती है, समाज के सम्पूर्ण विधि-विधान उसे हानि पहुँचाने के लिए बन रहे हैं। अखबारों में प्रकाशित हर घटना में वह अपने विरुद्ध एक बड़ी साज़िश ही देखता है। प्रत्येक समाचार की व्याख्या उसी दृष्टि से करता है।
इन्हीं कल्पनाओं में बढ़ते-बढ़ते वह वास्तविक दुनिया से बहुत दूर निकल जाता है। उसकी पत्नी भी जब उसके लिए चाय बनाती है तो वह उसपर चाय में ज़हर डालने का सन्देह करने लगता है। सब लोग मिलकर उसे किसी न किसी तरह मारने का यत्न कर रहे हैं-यह कल्पना उसके मन में पूरी तरह घर कर लेती है।
वास्तविकता से दूर हटने का आरम्भ प्रायः तब होता है जब कोई व्यक्ति उसका उपहास करे या उसे तुच्छ समझे। आसपास कहीं भी उसे सराहना नहीं मिलती, सब जगह उपेक्षा या तिरस्कार ही सहना पड़ता है तो वह सबसे किनारा कर लेता है। तभी वह यह अनुभव करने लगता है कि उसके मित्र उससे कन्नी कतराकर निकल जाते हैं, पीठ पीछे उसके विरुद्ध षड्यन्त्र रचते हैं, और न जाने किस दिन सब मिलकर उसकी हत्या कर देंगे। उपर्युक्त क्रम से ही इस विकृति में वृद्धि होती है। यह क्रमिक वृद्धि कुछ दिनों में भी पूरी हो सकती है, या इसके पूरा होने में कुछ वर्ष भी लग सकते हैं।
हम सभी में कुछ हद तक इस संशयात्मक मनोवृत्ति के अंश होते हैं। अतः हम सबको इन विकृत कल्पनाओं से दूर रहना चाहिए। अपने कृत्यों के लिए दूसरों पर दोष मढ़ना, अपनी निर्बलता को स्वीकार न करना, असफलता के लिए देव या अन्य जनों को जिम्मेदार ठहराना आदि चेष्टाओं से ही इस विकृति का प्रारम्भ होता है। अपनी भूल स्वीकार कर लेना और असफलता से लज्जित व पराजित न होकर फिर से जूझ पड़ना ही इस विकृति से बचने का सबसे अच्छा उपाय है।