Insan ke Mann ke Chinta Rog – इंसान के मन के चिन्ता रोग

आप चिन्ता क्यों करते हैं? आपका विचार है कि आपकी समस्याएँ और कठिनाइयाँ इसका कारण हैं? यह आपकी भूल है। वस्तुतः आपकी कठिनाइयों का आपकी चिन्ता से सम्बन्ध नहीं है भी तो बहुत कम।

चिन्ताशील व्यक्ति इसी धोखे में रहते हैं कि जब वे अपनी समस्या का हल कर लेंगे, चिन्तामुक्त हो जाएँगे। किन्तु होते नहीं हैं-यहाँ तक कि चिन्ता कम भी नहीं होती। तनाव वैसा ही बना रहता है। आखिर उन्हें समझ आने लगती है कि चिन्ता रोग का निदान उनकी समस्याओं में नहीं है।

किसी भी पुराने चिन्ताग्रस्त व्यक्ति से बात कीजिए। उसकी कठिनाइयां आसान कर दीजिए; समस्याएँ एक के बाद एक हल करते जाइए, जिससे उसके मार्ग में कोई काँटा न रह जाए। फिर देखिए क्या होता है।

Mann ke Chinta Rog

वास्तविक कठिनाइयों की जगह वह अपनी कल्पना से नई बना लेगा; हवाई मुश्किलें घड़ लेगा। आसपास कोई मुश्किल हाथ न आएगी तो दूर की दुःसम्भावनाओं का महल बना लेगा और ऐसे दुःस्वप्नों से चिन्तित होना शुरू कर देगा कि जिनके कोई लक्षण भी दिखाई नहीं देते।

मैं ऐसे अनेक चिन्ताकुल व्यक्तियों को जानता हूँ जो निरन्तर चिन्ता में डूबे रहते हैं; निष्कारण चिन्तित होते हैं। चिन्ता उनके स्वभाव में समा गई है। मेरा एक मित्र है, जीवन । चिन्तावश उसका स्वास्थ्य गिर गया है – शारीरिक भी, मानसिक भी! पाचनशक्ति बिगड़ गई है, नींद नहीं आती। उसे मैंने समझाया, “तुम व्यर्थ ही चिन्ता करते हो । आर्थिक कठिनाई तुम्हारे सामने ही नहीं, सबके सामने है।” तब वह धीरज खो बैठा। बोला, “तुम्हारा मतलब है कि मैं अकारण चिन्ता करता हूँ? मेरी रुपये-पैसे की चिन्ता दूर हो जाए तो देखना, मैं कितना खुशमिजाज हूँ।”

कुछ दिन बाद जीवन का भाग्य चमका। युद्ध में अचानक ही धन प्राप्ति हुई। इतना धन मिल गया कि वह सपरिवार निश्चिन्तता से खाता-पीता हुआ उम्र-भर मज़े में बिता सकता था। कुछ दिन बाद वह फिर एक दिन आया और कहने लगा, “मित्र! मैं तो उसी चिन्ता में फँस गया। नींद नहीं आती। दिमाग घूमता रहता है।”

” तुम्हें अब कैसी चिन्ता ?”

इस प्रश्न का उत्तर देते हुए उसने कहा, “मेरी चिन्ताएँ तुम क्या जानो ? हर समय दिल में यही कँपकँपी रहती है कि कहीं व्यापार में लगा सबका रुपया डूब न जाए। लाखों रुपये तिजारत में लगे हैं। भाव ऊपर-नीचे हो गया तो मैं कहाँ का रहूँगा? यही चिन्ता मन को खाए जाती है।” “हाँ! चेहरा तो तुम्हारा वाकई उतरा हुआ है, कुछ बीमार भी रहे क्या ?”

“यही बीमारी क्या कम बीमारी है। मैं भरपेट खाना भी नहीं खा सकता, सो नहीं सकता; और सच तो यह है कि बेफिक्री से आराम भी नहीं कर सकता। आराम के लिए लेटता हूँ तो दिमाग का पहिया और ज़ोर से घूमने लगता है- मेरी पूँजी का क्या होगा? भाव गिर गए तो बाज़ार का क्या होगा?”

मैंने सलाह दी, “इतनी चिन्ता करने की अपेक्षा तो अच्छा था कि तुम सारी पूँजी समेटकर सरकारी ऋणों में लगा देते और निश्चिन्तता से बैठ जाते । मैं तो तुम्हें अब भी यही सलाह देता, लेकिन अब नहीं दूँगा । । उसका कुछ लाभ न होगा। तुम्हें चिन्ता करनी है और करके रहोगे। पहले तुम्हें धनाभाव की चिन्ता थी। वह अभाव पूरा हो गया है तो अब तुम्हें उसके जाने की चिन्ता लग गई है।

इसका इलाज कर लोगे तो किसी दूसरी बात को चिन्ता का लक्ष्य बना लोगे। तुम्हारी पत्नी का स्वास्थ्य, बच्चों की शिक्षा, कन्या के वाग्दान की समस्या, अपनी इज़्ज़त आदि किसी भी कारण को चिन्ता का विषय बनाकर उसके लिए समय पर खाना, पीना, सोना भूल जाओगे। इस सूची का अन्त नहीं है, एक न एक को चिन्ता का कारण बना लोगे ।”

तब, क्या तुम मुझे बिलकुल सहायता नहीं दे सकते ?” “क्यों नहीं, अवश्य दे सकता हूँ और अवश्य दूँगा।” “किस तरह?” उसने पूछा।

मैंने कहा, “बात यह है कि तुम्हारी चिन्ता के असली कारण का पता लगाना पड़ेगा। चिन्ता का रोग तुम्हें पुरानी बीमारी की तरह चिपट गया है। यह भी विचित्र व्याधि है। इसे हम व्याधि नहीं कह सकते। यह तो एक विशेष मनोवृत्ति का नाम है जो तब पैदा होती है जब मनुष्य में अपनी सुरक्षा की भावना न रहे। इस आन्तरिक अभाव का हमें प्रायः ज्ञान नहीं होता। इसलिए हम इसके कारणों की खोज बाहरी कारणों में करते रहते हैं और उन्हें ज़िम्मेदार ठहराते रहते हैं। कभी आर्थिक कठिनाई, कभी स्वास्थ्य, कभी सामाजिक सम्पर्क पर अपनी चिन्ता का दोषारोपण करते रहते हैं।”

“लेकिन, अब क्या इसका कोई इलाज नहीं है?” “इलाज ज़रूर है। हमें तुम्हारी चिन्ता के उन मूल कारणों का पता लगाना होगा जो तुम्हारी असुरक्षा भावना, आत्मविश्वास की जड़ में हैं। और तुम्हें बताना होगा कि किस तरह अपने आत्मविश्वास को सिरे से बना सकते हो।” तुम नये

चिन्ता हमारे मन व शरीर पर घातक प्रभाव छोड़ जाती है। स्नायुग्रन्थियों पर यह ऐसा तनाव डालती है कि हमारी सम्पूर्ण शारीरिक प्रक्रिया अव्यवस्थित हो जाती है और हमारी ग्रन्थियों (Glands) का काम अड़चन में पड़ जाता है। चिकित्साशास्त्र के अनुसन्धानों से ज्ञात हुआ है कि अनेक शारीरिक रोगों जिनमें दमा, रक्त का दबाव, हृदयरोग, एक्ज़ीमा, मधुमेह भी शामिल हैं-का निदान हमारी मानसिक चिन्ता होती है।

अमेरिका की नार्थ-वेस्टर्न यूनिवर्सिटी के परीक्षणों से ज्ञात हुआ है कि निरन्तर चिन्ता से दाँतों की अनेक बीमारियाँ पैदा हो जाती हैं। प्रोफेसर लियोनार्ड फास्डिक ने प्रकट किया है कि चिन्ता के कारण हमारे उस मुखस्राव (Saliva) के स्वाभाविक संचालन में रुकावट आ जाती है जो हमारे मुख से उन तेज़ाबी द्रवों का क्षारकरण करते रहते हैं, जो हमारे दाँतों को जीर्ण करते हैं।

परीक्षणों से यह भी प्रकट हो चुका है कि अति चिन्ता हमारी चक्षु-शक्ति को भयंकर हानि पहुँचा सकती है, शीत के रोगों के प्रति हमारी अवरोध शक्ति को नष्ट करती है, और रक्तप्रवाह में रुकावट डालकर बालों को सफेद बनाने या बिलकुल उड़ाने में मददगार होती है।

न्यूयार्क एकेडमी ऑफ मेडिकल साइन्सेज के एक वैज्ञानिक ग्रुप ने यह भी खोज की है कि चिन्ता हमारे रक्त में एक रहस्यमय द्रव मिलाती रहती है जो हमारे आन्तरिक अवयवों की घातक सिकुड़न का कारण बन जाता है। मैसाच्यूसेट्स के जनरल हास्पिटल ने प्रामाणिक रूप से घोषणा की है कि ‘कालिटिस’ (Colitis) के बीमारों में 96 प्रतिशत रोगी निरन्तर चिन्ता, क्रोध, आवेश आदि मानसिक विकृतियों के शिकार होते हैं। अमेरिका के प्रमुख ‘मेडिकल क्लिनिक ने अपने अनुभवों के आधार पर यह परिणाम निकाला है कि उसके पास इलाज के लिए आने वाले रोगियों में से 35 प्रतिशत रोगी केवल चिन्ताजन्य रोगों के रोगी थे।

इन रोगियों को यदि यह कहा जाए कि उनकी चिन्ता ही रोगों का कारण है तो वे कभी नहीं मानेंगे। उन्हें यदि सलाह दी जाए कि वे चिन्ता न करें तो उसका भी कुछ प्रभाव नहीं होगा, अथवा उतना ही होगा जितना श्लेष्मा के रोगी को विटामिन या वेक्सीन के प्रयोग से होता है।

आत्मविश्वास ही मानसिक चिन्ता का उपाय है

मानस-चिकित्सकों ने सदा चिन्ताग्रस्त रोगियों का परीक्षण करके यह निश्चय प्रकट किया है कि चिन्ता का कारण मनुष्य की तात्कालिक कठिनाइयाँ नहीं होतीं। उन कारणों के निवारण के बाद चिन्ताग्रस्त व्यक्ति दूसरे कारणों का आविष्कार कर लेता है । चिन्ता वस्तुतः मनुष्य की उस विशेष मनोवृत्ति में रहती है जो उसमें अपनी सुरक्षा के विश्वास के अभाव से पैदा होती है। आत्मविश्वासी व्यक्ति कभी चिन्तित नहीं होता। और चिन्ताशील मनोवृत्ति का व्यक्ति आत्मविश्वास से सर्वथा रिक्त होता है। वह जब चिन्तित होता है तो अपनी निर्बलता को स्वीकार न करके अपनी लज्जा छिपाने के लिए बाह्य कारणों पर दोषारोपण शुरू कर देता है। जिस स्थल पर आसानी से दोष फेंका जा सके वहाँ फेंक देता है।

कभी आर्थिक कठिनाई पर और कभी स्वास्थ्य पर उसे कुबेर का खजाना दे दीजिए और पहलवान गामा का शरीर, तब भी वह चिन्तित रहेगा; चिन्ता के किसी अन्य कारण का आविष्कार कर लेगा। कारण यह कि आत्मिक असुरक्षा की दुर्भावना मनुष्य के मन में इतना तीव्र भावनात्मक तनाव पैदा करती है कि मनुष्य को उससे परित्राण पाने के लिए कोई न कोई ऐसा निकास-मार्ग ढूँढना ही पड़ता है जिसके रास्ते वह बाहर फूटता रहे और तनाव कम होता रहे।

आप किसी बीमारी का उसके बाह्य लक्षणों को शान्त करके ही इलाज नहीं कर सकते। चिन्ता केवल बाह्य लक्षण है-असुरक्षा की अन्तर्भावना का बाह्य संकेतमात्र है। इलाज तो अन्तर्भावना का ही होना चाहिए, तभी सच्चा इलाज होगा।

अतः इलाज की पहली शर्त यह है कि आप चिन्ताग्रस्त व्यक्ति हैं। तो आप पहले बिना संकोच यह स्वीकार कर लें कि आपकी चिन्ता का आधार बाह्य वस्तुएँ या अवस्थाएँ नहीं हैं; बल्कि आपके भीतर घुसी हुई असुरक्षा की भावना, या दूसरे शब्दों में संसार के विरोधों से सफलतापूर्वक युद्ध न कर सकने का आत्मिक विश्वास या भय है। जब तक यह दूर न होगा तब तक चिन्ता दूर नहीं होगी ।

इस स्वीकृति के बाद आपको यह समझने का यत्न करना चाहिए कि असुरक्षा की यह दुर्भावना आपके मन में कैसे आई! मनोवैज्ञानिकों का मत है कि यह दुर्भावना तभी पैदा होती है, जब मनुष्य सोचता अधिक और करता कम है। अधिक सोचने से वह ऐसे विचारों का जमघट बना लेता है जिन्हें कार्यान्वित करना उसके सामर्थ्य से बाहर होता है।

ये विचार, इच्छाएँ, वासनाएँ व मनोरथ-यदि कार्य द्वारा सन्तुष्ट न हों तो स्वतः भग्न हो जाते हैं। जब आप स्वप्न ही लेते हैं, उन स्वप्नों को चरितार्थ करने का यन नहीं करते तो आप अपनी अन्तरात्मा के प्रति क्रूर अत्याचार करते हैं । अन्तरात्मा में अपनी कार्यशक्ति के प्रति सन्देह हो जाता है। यह प्रतिक्षण का सन्देह अन्त में मनुष्य के आत्मविश्वास को बिलकुल नष्ट कर देता है। बार-बार भग्न, उपेक्षित और पराजित अन्तःकरण पराजय-पीड़ा से अकुलाकर टूटने लगता है। परिणाम यह होता है कि मनुष्य की अन्तरात्मा में भयंकर द्वन्द्व शुरू हो जाता है। व्यक्तित्व के खण्ड-खण्ड हो जाते हैं।

आज से वर्षों पूर्व ‘गोथे’ दार्शनिक ने जो बात कही थी, आज के मानस-चिकित्सक उसी का समर्थन कर रहे हैं। उसने कहा था, “Thought without action is disease.” अर्थात् क्रिया में परिणत न होने वाले विचार रोग बन जाते हैं। मानस-चिकित्सा के प्रसिद्ध डॉक्टर विलियम सेलडर ने भी चिन्ता को मानसिक भग्नता (Self frustration) के ही एक रूप के नाम से कहा है। डॉ. हेनरी का भी कहना है कि मस्तिष्क जब अपने ही व्यूह में वेग से चक्कर लगाने और शारीरिक अवयवों को पर्याप्त प्रेरणा देने में असमर्थ रहे तो चिन्ता के लक्षण प्रकट हो जाते हैं।

दूसरे शब्दों में, चिन्ताशील व्यक्ति अपने मन के बटन (lgnition) को तो पूरे जोर से दबाए जाता है लेकिन शारीरिक अवयवों को सामान्य स्थिति में (Neutral) ही रखता है। इससे उसके मन की मोटर आगे नहीं बढ़ पाती; केवल इन्जन का कोलाहल और धुआँ ही बाहर निकलते हैं।

एक बात निश्चित है। हमारे विचारों को कार्यों में पूरी तरह अभिव्यक्त होना चाहिए, अन्यथा हमारे अन्तःकरण में अशान्ति रहेगी। जो कुछ हम सोचते हैं उसका क्रिया में रूपान्तर होना आवश्यक है। मन की शान्ति इसी में है। हम वैसे ही बनते हैं जैसी हमारी भावनाएँ होती हैं। नहीं बनते तो शरीर व मस्तिष्क में युद्ध चलता रहता है ।

निरन्तर युद्ध की अवस्था में रहकर हम आन्तरिक सुरक्षा कैसे प्राप्त कर सकते हैं! क्रिया में अभिव्यक्ति न पाकर विचारों में भग्नता, विक्षिप्तता भर जाती है। निष्क्रिय ही रहना हो तो विचारों पर भी प्रतिबन्ध लगाना चाहिए। विचारों को खुली छूट देकर चेष्टाओं की लगाम कसते जाना सर्वनाश को निमन्त्रण देना है। सारांश यह कि विचारों और कार्यों की गति में समरसता बनाकर ही हम चिन्ता की व्याधि को मिटा सकते हैं। उस समरसता या समत्व के लिए मैं नीचे कुछ क्रियात्मक निर्देश देता हूँ

1. अपनी कठिनाइयों को समस्या का रूप मत दो, ये कठिनाइयाँ मनुष्य को कार्य में प्रवृत्त करती हैं। इनमें प्रेरणा की शक्ति है। इस ही प्रेरक शक्ति का सम्मान करते हुए कठिनाइयों का स्वागत करो।

2. परिस्थिति के अनुसार भरसक काम करने के बाद उसके फलाफल के अनुमान में व्यस्त मत हो जाओ। किए को भूल जाओ, नये काम पर लग जाओ। पहले काम के फल की प्रतीक्षा में निश्चेष्ट मत बैठो। फलाफल व लाभालाभ की चिन्ता छोड़कर ही मनुष्य मुक्तसंग होता है। गीता के सम्पूर्ण कर्मयोग का यही आदर्श है।

3. सदा व्यस्त रहो। दिन-रात के 24 घण्टों में कभी भी मन को निरुद्देश्य विचार करने का अवसर न दो। एक काम में थक जाओ तो। दूसरे में प्रवृत्त हो जाओ। थकान बढ़ने पर सो जाओ। जागृति और सुषुप्ति की मध्यावस्था – अर्धसुषुप्ति में ही मन चिन्ता के जाल बुनता है।

4. जिन बातों में तुम्हारा दखल नहीं है, उनकी चिन्ता छोड़ दो। जो काम अपनी पहुँच से बाहर का है-उसे मन में भी न लाओ। ऐसा होता, वैसा होता’ की कल्पनाएँ केवल ‘दर्दे-सिर’ या मनोभंग का कारण होती हैं।

5. दिवास्वप्नों का परिणाम भी बुरा होता है। इस मानसिक विलासिता को कम से कम तब तक के लिए स्थगित कर दो जब तक तुम्हारी भावनाएँ। अपरिपक्व हैं। कल्पना में सुखी होना या हवाई महल बनाना तभी सह्य हो सकता है जब पृथ्वी पर अपने महल बने हों, वास्तविक जीवन में तृप्ति मिल चुकी हो। उनके बाद कभी यदा-कदा काल्पनिक जगत् में विचरना भी बहुत अनिष्टकारी नहीं होगा।

6. दीर्घसूत्री होना चिन्ता को सिर उठाने का मौका देना है। आज के काम को कल के लिए टालोगे, तो तुम्हारी कल्पना को तिल का ताड़ बनाने का और तुम्हारे आत्मविश्वास रूपी सरोवर को सुखाने का अवसर मिल जाएगा। जो करना है-अभी करो, अभी; कल आए न आए, कौन जानता है?

7. अपने दुःख-दर्द की चर्चा दूसरों से मत करते फिरो । उनकी हम- दर्दी नहीं मिलेगी तुम्हें। कहते समय तुम अपने दुःख को कुछ बढ़ाकर ही कहोगे। अतिशयोक्ति करनी पड़ेगी और उसपर तुम स्वयं विश्वास करने लगोगे। तुम्हारी चिन्ता बढ़ेगी ही, घटेगी नहीं।

8. नींद खुलते ही बिछौने से उठ बैठो। लेटे-लेटे तुम दिन-भर के कामों की कल्पना में जितना अपने मस्तिष्क को थका लोगे उतना शायद दिन-भर काम करते हुए नहीं थकोगे।

9. अपनी दिनचर्या इस ढंग से बनाओ कि तुम्हें उतावलेपन से कोई काम करने की ज़रूरत न पड़े। अनावश्यक शीघ्रता चिन्ता के लिए बहुत अनुकूल क्षेत्र तैयार कर देती है। उतावलेपन में काम करने से हमारा मन सदा चिन्तित रहता है। समय से लड़ाई करते हुए आगे बढ़ना चिन्ताओं को स्वयं निमन्त्रण देना है।

10. योजना के अनुसार यदि काम बहुत बड़ा है तो उसे छोटे-छोटे भागों में बाँट लो। एक के बाद एक भाग का काम पूरा करो। एक पूर्ति दूसरे प्रयत्न के लिए उत्साह देगी। जब तक पहला काम पूरा न हो जाए तब तक दूसरे की कठिनाइयों की चिन्ता शुरू न करो। इस तरह तुम लम्बे से लम्बे सफर को छोटे पड़ावों में बाँटकर हँसते-हँसते तय कर लोगे ।