हमारी मानसिक क्रियाएँ

मानसिक व्यापार-व्यवहार या क्रियाओं को तीन भिन्न रूपों में विभक्त किया जा सकता है (1) विचार (2) भावना और (3) संकल्प इन तीन मुख्य मनोव्यापारों से मनुष्य का मानसिक जीवन बनता है। ये तीनों परस्पर सम्बद्ध शक्तियाँ हैं। इन तीनों के मिश्रण से ही मन की अवबोध शक्ति बनती है। यह अवबोध कभी स्पष्ट, कभी अस्पष्ट रूप से विचार, भावना और संकल्प रूपों में उद्भूत होता है।

Hamari Mansik Kriyaein

इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि किसी भी व्यक्ति की मानसिक क्रियाओं का आधार अवबोध होता है। व्यक्ति का कम-अधिक प्रगल्भ विचार, या उसकी कम अधिक बासना, सुखदायक व दुःखदायक भावना, या भले व बुरे काम आदि सबका आदि कारण व्यक्ति की अन्तर्गत अवबोध-शक्ति ही होती है। मानसशास्त्र का मार्मिक ज्ञान प्राप्त करने और उस ज्ञान की सहायता से अपने वैयक्तिक व सामाजिक जीवन की व्यवस्था करने के लिए हमें इस अवबोध के सूक्ष्म अभ्यास की आवश्यकता है।

अपने नित्यप्रति के सांसारिक जीवन में हम प्रेम, द्वेष, राग, वैराग्य आदि अनेक अनुभवों से गुज़रते हैं। मानवीय व्यवहार इन्हीं विचार-वासना और संकल्पों का विस्तृत जाल है। मानवी ज्ञान, अज्ञान, सुख, दुःख, यश, अपयश आदि का उद्भव हमारी अवबोध-क्रिया के निर्दोष व सदोष स्वरूप पर ही अवलम्बित है।

एक आठ वर्ष का बालक जब भूगोल की शिक्षा लेने लगता है तो हम उसे सागर, द्वीप, सरोवर आदि की परिभाषाएँ कण्ठस्थ कराते हैं और जब ये परिभाषाएँ उसे याद नहीं होतीं तो हमें क्रोध होता है। बालक की इस असमर्थता का वास्तविक कारण यह होता है कि अभी बालक की मानसिक शक्ति अविकसित होती है। शिक्षण की दुर्बोध व्याख्या बालक की अवबोध शक्ति को जगा नहीं पाती। योग्य शिक्षक वह है जो बालक की इस अवबोध शक्ति को जाग्रत करे।

यह बात केवल शिक्षणालयों पर ही लागू नहीं है। जीवन के प्रत्येक 1 क्षेत्र की सफलता में इसी का हाथ होता है जो वकील कचहरी के काम को कुशलता से नहीं कर पाता, जो दुकानदार अपने माल की विक्री नहीं कर पाता, जिस धर्मोपदेशक के प्रवचन को लोग ध्यान से नहीं सुनते, जिस गृहस्थ पुरुष का आदर उसकी पत्नी नहीं करती उन सबकी असफलता का मूल कारण उनमें मानसिक अवबोध-शक्ति का अभाव है।

हमारा अवबोध हमारे मानसिक व्यापारों का मूल स्थान है। उस अवबोध के अन्तर्गत विचार, विकार, स्मृति, भावना व संकल्पों का उद्भव होता है। इस बात के स्पष्ट होने के बाद यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि इन तीनों में से पहले किसका उद्भव होता है, व महत्त्व की दृष्टि से पहला किसका स्थान है, विचार का या भावना या संकल्प का?

‘मनुष्य विचारशील प्राणी है’ यह बात हम बचपन से सुनते आए हैं। इसलिए स्वाभाविकतथा हम उक्त प्रश्न का यह उत्तर देते हैं कि सर्वप्रथम विचार का महत्त्वपूर्ण स्थान है, फिर भावना का, और फिर संकल्प का । अर्थात् पहले मन में विचार पैदा होता है, विचार से वासना और भावना बनती है, बाद में संकल्प बनता है। पश्चिम के मानसशास्त्री भी बहुत वर्षों तक यही समझते रहे कि विचार ही मनोव्यापार का सबसे महत्त्वपूर्ण रूप है। यही कारण था कि उन्होंने विचार-क्रिया की विवेचना में ही अपनी कल्पना शक्ति समाप्त कर दी।

उन्होंने यह निश्चित किया कि पहले संवेदना, फिर वस्तु-बोध, फिर तर्क-व्यापार, इस क्रम से मानवी व्यापार की व्यवस्था होती है। इस विचार व तर्क-व्यापार का क्या स्वरूप है, विचार-क्रिया के मूल में कौन-से नियम काम कर रहे हैं, तथा विचार अविचार के संयोग में कौन-से नियम कार्य करते हैं-इत्यादि चर्चा ही आज तक के मानसशास्त्र की प्रधान चर्चा रही है।

परन्तु अभी-अभी इस विचारधारा में बहुत परिवर्तन हो गया है। मनुष्य विचार-प्रधान प्राणी नहीं, अपितु संकल्प-प्रधान प्राणी है। यह तर्क से प्रेरित नहीं होता, बल्कि संकल्प की प्रेरणा ही प्रधान है; अपनी परिस्थितियों के अनुरूप सुख-दुःख का अनुभव करता रहता है-इत्यादि मन्तव्य ही अधिकाधिक मान्य होते चले जाते हैं। मानवी चरित्र विचार-प्रधान न होकर कार्य-प्रधान है, यह स्थापना प्रतिदिन प्रबल होती जाती है। इसलिए मानसशास्त्री विचार को जो ऊँचा स्थान पहले देते थे, वह अब नहीं देते। वह स्थान संकल्प ने ले लिया ।

हमारा मानसशास्त्र अन्य शास्त्रों की तरह प्रत्यक्ष दीखने वाली वस्तुओं का विवेचन नहीं है। मन का ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं होता। केवल अनेकविध व्यापारों, व्यवहारों तथा मनोगत बहुविध अनुभवों के आधार पर ही मानसशास्त्र के नियम बनाए जाते हैं। इसे मानसशास्त्र न कहकर ‘अनुभव-शास्त्र’ भी कह सकते हैं, अथवा मानसशास्त्र का अर्थ मानवीय अनुभवों का शास्त्र समझा जा सकता है।

किन्तु इस अनुभव का क्या अभिप्राय है? इस प्रश्न का उत्तर देना कठिन है। अनुभवों का स्वरूप व उसकी व्याख्या करना कठिन कार्य है। कमल के फूल की कोमलता शब्दों में प्रकट नहीं की जा सकती, या दाढ़ दुखने के कष्ट का यथातथ्य वर्णन असम्भव है कोई भी अनुभव केवल व्यक्तिगत अनुभव नहीं होता। उदाहरण के लिए एक विधुर व्यक्ति ने रास्ते पर जाती हुई एक सुन्दर स्त्री को देखा। उसके लावण्य-दर्शन से उसे आनन्द हुआ उसी समय उसे अपनी मृत पत्नी का ध्यान आया, इससे दुःख भी हुआ। उसके सुख के अनुभव में दुःख का सम्मिश्रण हो गया।

उस सुख-दुःख के सम्मिश्रण में विधुर की परिस्थितियों का भी हाथ था। अतः प्रत्येक अनुभव अंशतः बाह्य पदार्थों के आधार पर और अशंतः अनुभव करने वाले की स्वतः कल्पना पर स्थिर होता है। हमारे दिन-भर के कार्य हमें प्रिय लगते हैं या अप्रिय, यह अनुभव बाह्य जगत् की परिस्थितियों पर भी उतना ही आश्रित है जितना कि हमारी आन्तरिक धारणा पर एक हाथ से ताली नहीं बजती। इसी तरह अनुभव भी बाह्य वस्तुओं के ही कारण नहीं होता। अनुभव उत्पन्न होते ही हमारे मन में क्रिया का आविर्भाव हो जाता है। जीवन में जो छोटे-बड़े अनुभव हम लेते हैं उनमें कुछ बाह्य और कुछ आन्तरिक होते हैं।

जीवनशास्त्र का एक मूलभूत नियम यह है कि कोई भी प्राणी अपनी परिस्थितियों पर प्रतिक्रिया करते हुए कार्य करता है। यह प्रतिक्रिया अनेक रूपों में होती है। अनुभव इसी प्रतिक्रिया का एक नाम है। अर्थात् अनुभव की सिद्धि के लिए दोनों पक्षों का होना आवश्यक है। एक बाह्य जगत् का दूसरे प्राणी की अपनी चेष्टाओं का  मनुष्य के अनुभवों का आदि कारण दो तरह का है (1) उसकी स्वतः की संकल्प शक्ति का, और (2) उसके निसर्ग-शक्ति के विस्तार से घटित परिस्थितियों का। बाह्य वस्तु तथा आन्तरिक संकल्प-शक्ति के संयोग से जो अनुभव बनता है वह दोनों के स्वरूप से भिन्न व स्वतन्त्र होता है।

प्रत्येक जीवन के छोटे-बड़े अनुभव के समय अनुभव लेने वाले जीवन-तत्त्वों से कम-अधिक प्रमाण से उद्दीपन होता है। विषय सेवन से क्षणिक भोग के बाद उत्कट क्षोभ, हर्ष, खेद, भय के प्रसंगों में सर्वागव्यापी रोमांच, आदि उद्दीपन स्पष्ट रूप से लक्षित होते हैं। ये उद्दीपन कई बार बहुत स्पष्ट होते हैं-अनुभव के इस अंग को ही हम ‘भावना’ का नाम देते हैं। प्रत्येक अनुभव सुखदायी या दुःखदायी होता है। अनुभव लेने के लिए क्रियाशील रहने की जो प्रक्रिया है उसे हम ‘संकल्प शक्ति’ कहते हैं। इस संकल्प शक्ति और बाह्य परिस्थितियों के संघर्षण से भी अनुभव बनता है।

अपने अन्तस्थ संकल्पों के अनुसार मनुष्य प्राप्त वस्तुओं व अवस्थाओं से अनुकूलता या प्रतिकूलता स्थापित करता है। वे अनुभव सुखदायी हैं। या दुःखदायी, यह निश्चय ही उसके अगले संकल्पों का निर्माण करता है। फिर उन संकल्पों से सुख-दुःख की भावनाएँ बनती हैं। यह ‘चक्रनेमिक्रम’ निरन्तर चलता रहता है।

एक बालक को पहले शक्कर की गोली दिखती है। वह उसे मुख में डाल देता है। वह संकल्प निसर्गतः होता है। इसके बाद दो बातें होती हैं। प्रथम यह कि बालक को वस्तु का ज्ञान होता है। दूसरा यह कि वस्तु की प्राप्ति के अनुभव से उसे सुख होता है। इस सुख-भावना का परिणाम यह होता है कि बालक का संकल्प दृढ़ हो जाता है, और भविष्य में उसे जब कभी शक्कर की गोली दिखती है, तो खाने का संकल्प अधिक तत्परता से होता है।

इसके विपरीत यदि पहले काँटे का स्पर्श हो तो बालक का ज्ञान और उसकी भावना उस वस्तु के विरुद्ध बन जाती है। उसके प्रति उसका संकल्प उद्भव ही नहीं होता। यही क्रम न्यायसंगत प्रतीत होता है। सारांश यह है कि मनुष्य निसर्गतः पहले कार्य करने का संकल्प करता है, उस संकल्प के पीछे भावना व विचार बनते हैं। उन विचारों के योग से संकल्प दृढ़ होता है, या शिथिल होता है।

हमारे मानसिक जीवन के अनुभवों में यह चक्र अखण्ड रूप से चलता रहता है। संकल्प या विकार उसी अनुभव के इतने भिन्न-भिन्न अंग नहीं है कि स्वतन्त्र रूप से कार्य कर सकें। विचार विकार-शून्य संकल्प का अस्तित्व नहीं होता; और संकल्प-शून्य विकार विचार नहीं होते। तीनों परस्पर इतने गुंथे हुए हैं कि उन्हें पृथक् नहीं किया जा सकता।

जब हम संकल्प करते हैं तो अपनी इच्छा के अनुसार कुछ पाने का दृढ़ निश्चय करते हैं। वह इच्छा ही जब दृढ़ निश्चय में बदल जाती है तो हम उसे ‘संकल्प’ नाम दे देते हैं। कुछ लोग मानते हैं कि यह संकल्प स्वयं एक शक्ति है, जिसे ‘इच्छाशक्ति’ या ‘मनोबल’ कहा जाता है। उनके विश्वास के अनुसार इच्छा या संकल्प की शक्ति ही मनुष्य को बड़े-बड़े साहसी कामों में सफलता देती है।

साधारण बोल-चाल की भाषा में भी यह कह दिया जाता है कि उसने इच्छा-शक्ति के जादू से वह काम कर लिया। वे लोग इच्छा को ही शक्ति मानते हैं; चमत्कारिक शक्ति मानते हैं। उनका कहना है कि आप केवल संकल्प करके किसी रोग का उपचार कर सकते हैं। आप यदि यह संकल्प करें कि रोगी नीरोग हो जाए, तो सचमुच वह नीरोग हो जाएगा।

आप इस चमत्कार से चकित हो जाएँगे। अपने शरीर के किसी रोग को भी आप केवल संकल्प द्वारा दूर कर सकते हैं। यदि आप संकल्प करें कि मुझे श्री… से आज प्रातः अवश्य भेंट करनी है तो वह स्वयं आपके द्वार पर आ जाएगा। वह संकल्प-शक्ति आपके सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण कर देगी। यदि आप चाहें कि मुझे आम खाने हैं तो आम स्वयं आपके द्वार पर आ जाएँगे। इस संकल्प-शक्ति को अभ्यास से बढ़ाया जा सकता है।

मैं ‘संकल्प’ के इस चमत्कार-स्वरूप पर विश्वास नहीं करता। संकल्प हमें सफलता के मार्ग पर चलने की प्रेरणा अवश्य देता है, किन्तु केवल संकल्प के सहारे हम अपने लक्ष्य पर नहीं पहुँच सकते। जो संकल्प-शक्ति’ हमें सफलता के द्वार पर ले जाती है उसमें संकल्प और शक्ति दोनों का योग होता है। पहले हम संकल्प करते हैं। हमारा सम्पूर्ण ध्यान लक्ष्य की ओर आकर्षित होता है।

मन उस लक्ष्य पर केन्द्रित हो जाता है। अन्य कार्यों से अपना ध्यान खींचकर हम एक ओर ही लगा देते हैं। उससे हमारी कार्य-शक्ति को उत्तेजना मिलती है। जब हमारी इच्छा और हमारी कार्य-शक्ति एक ही दिशा में संयुक्त हो जाती हैं तो हम कार्य में उत्साह से प्रवृत्त हो जाते हैं। उत्साह तब तक बना रहता है जब तक हमारी इच्छा और शक्ति का योग बना रहे। इस योग में शिथिलता आते ही हमारा उत्साह मन्द पड़ जाएगा।

अतः पूरे उत्साह से एक कार्य में प्रवृत्त होने के लिए सबसे पहली शर्त यह है कि उसे करने की हमारी इच्छा हो, शौक़ हो। पूरी रुचि नहीं होगी तो हम अपनी पूरी शक्ति नहीं लगाएँगे। कार्य करते-करते भी यदि हमारी रुचि में शिथिलता आ जाएगी, तब भी हमारी शक्ति शिथिल हो जाएगी; हम अपने कठिन लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाएँगे। केवल रुचि से भी हमें सफलता नहीं मिल सकती। हममें आवश्यक शक्ति भी होनी चाहिए. या योग्यता होनी चाहिए।

केवल किसी काम को करने की इच्छा से ही योग्यता पैदा नहीं हो जाती। न ही यह इच्छाशक्ति बन जाती है। इच्छाएँ सभी में होती हैं। लेकिन जब तक ये इच्छाएँ किसी रुचि के काम से संयुक्त नहीं होतीं तब तक इनका जीवन में कोई उपयोग नहीं होता। इसी तरह शक्ति होने से हम लक्ष्य तक नहीं पहुँचते। जब तक हम इस शक्ति को अपनी रुचि के काम में पूर्णतया नहीं लगा देते तब तक कार्यसिद्धि नहीं होती।

किसी काम की इच्छा होना और उसके लिए यह कह सकना कि ‘कार्य वा साधयेयम्, देहं वा पातयेयम्’ इन दोनों में बड़ा अन्तर है। संकल्प और शक्ति को एक ही दिशा में संयुक्त करने वाला ही यह कह सकता है कि इस कार्य को सिद्ध करने में मौत भी आए तो आने दो। ऐसी संकल्प शक्ति का व्यक्ति ही सफलता के शिखर तक पहुँच सकता है। आपको चाहिए कि अपनी रुचि का कोई लक्ष्य ढूंढ से उसे ढूँढने 1 जाने की ज़रूरत नहीं। वह आपके मन में ही है। उसे पाकर सारी शक्ति से उसमें लग जाइए।

यदि किसी काम में आपको रुचि नहीं है तो उसे छोड़ दीजिए। जिस काम में रुचि नहीं होगी उसमें आप पूरी शक्ति नहीं लगाएँगे और पूरी शक्ति लगाए बिना आप किसी भी काम में सफल नहीं होंगे। संकल्प और शक्ति का पूरा योग हुए बिना कोई काम पूरा नहीं हो सकता। संकल्पयुक्त शक्ति या शक्तियुक्त संकल्प ही आपको सफलता का सेहरा बँधवा सकता है। यही संकल्प शक्ति का सच्चा अर्थ है।