Dronacharya ka Vadh mahabharat ki kahani – द्रोणाचार्य के नेतृत्व में जब कौरवों की सेना युद्ध कर रही थी, वह महाभारत युद्ध का दसवां दिन था। यद्यपि द्रोणाचार्य अपने रणकौशल से शत्रुओं का सामना कर रहे थे, परन्तु दुर्योधन इससे सन्तुष्ट नहीं था, क्योंकि उसकी दृष्टि में पाण्डवों का वध अत्यन्त महत्त्व रखता था, जबकि पांचों पाण्डव अभी तक जीवित थे।

Dronacharya ka Vadh

जब द्रोणाचार्य को कौरवों की सेना के सेनापति के रूप में चार दिन बीत गये, तब दुर्योधन ने द्रोणाचार्य को कुछ ऐसी बातें कही कि द्रोणाचार्य का मन खिन्न हो उठा। युद्ध के पन्द्रहवें दिन अर्थात् जब द्रोणाचार्य का सेनापति के रूप में पांचवां दिन था, उस दिन द्रोणाचार्य ने कौरव सेना को दो भागों में विभक्त किया और पाण्डव पक्ष पर टूट पड़े। पाण्डव पक्ष की तरफ से युद्ध में भाग ले रहे राजा द्रुपद द्रोणाचार्य से अपनी पुरानी शत्रुता के कारण विराट नरेश के साथ उनके सामने आ डटे। उन दोनों ने एक साथ द्रोणाचार्य पर आक्रमण कर दिया। उत्तर में द्रोण ने अपने तीक्ष्ण बाणों द्वारा दोनों के धनुष खण्डित कर दिये।

इससे पूर्व कि वे सम्भल पाते आचार्य द्रोण ने द्रुपद सहित विराट का वध कर दिया। द्रुपद व विराट की मृत्यु का समाचार पाण्डव पक्ष में शोक छा गया। इन दोनों महारथियों के शोक में डूबी पाण्डव सेना का द्रोण अत्यन्त आक्रमण ढंग से संहार कर रहे थे।

यह देख पाण्डव चिन्ताग्रस्त हो उठे। पाण्डवों की यह चिन्ता श्री कृष्ण से छिपी नहीं थी। विपरीत परिस्थितों को देख श्री कृष्ण ने पाण्डवों का मनोबल बढ़ाने की इच्छा से कहा- जब तक द्रोणाचार्य जैसे धुरंधर धनुर्धारी के हाथ में अस्त्र-शस्त्र है, तब तक द्रोणाचार्य को मनुष्य तो क्या स्वयं देवता या गन्धर्व भी पराजित नहीं कर सकते। वे युद्ध-कौशल में पूर्ण पारंगत हैं।

अतः उन्हें केवल निशस्त्र होने पर ही मारा जा सकता है। श्री कृष्ण की इस बात का सबने समर्थन किया। तब युधिष्ठिर ने श्री कृष्ण से पूछा- हे यशोदा नंदन! अब आप ही हमारा मार्ग-दर्शन करें कि द्रोणाचार्य का वध किस प्रकार सम्भव है? युधिष्ठिर के पूछने पर श्री कृष्ण गम्भीर स्वर में बोले- यदि द्रोणाचार्य को ऐसा दुःख समाचार सुनाया जाये, जिससे वे व्यथित हो उठें, तब ही वे अस्त्र-शस्त्र का त्याग कर सकते हैं और तभी उनका वध सम्भव है।

ऐसा दुःखद समाचार क्या हो सकता है? अर्जुन ने पूछा। उनके इस प्रश्न पर श्री कृष्ण जी बोले- उन्हें अपने पुत्र अश्वत्थामा से अत्यन्त प्रेम है। मात्र उसी की मृत्यु का समाचार उन्हें व्यथित कर सकता है, उसी की मृत्यु का समाचार देकर ही उनका ध्यान युद्ध से हटाया जा सकता है।

श्री कृष्ण का प्रस्ताव सभी को अच्छा लगा, किन्तु अर्जुन व युधिष्ठिर असत्य बोलने के पक्ष में नहीं थे। अब समस्या यह थी कि द्रोणाचार्य तक यह असत्य भरा दुःखद समाचार कैसे पहुंचाया जाये। तभी भीम उछलकर आगे आये और बोले- इस कार्य को मैं करूंगा। यह कहकर वे अपनी गदा हाथ में सम्भाले उछलते-कूदते उस स्थान पर जा पहुंचे, जहां द्रोणाचार्य युद्ध में संलग्न थे।

भीम ने वहां पहुंचते ही खुशी से चीखना शुरू कर दिया- अश्वत्थामा मारा गया, अश्वत्थामा मारा गया। जब भीम का स्वर द्रोणाचार्य के कानों में पड़ा, तो उन्हें सहसा इस बात पर विश्वास न हुआ। उन्हें पता था अश्वत्थामा एक अद्भुत महारथी है। वह पराक्रमी व शूरवीर होने के साथ-साथ युद्ध कला में भी पूर्ण रूप से पारंगत था। द्रोणाचार्य अपने पुत्र के समस्त गुणों से भली-भांति परिचित थे।

अतः उन्होंने भीम के चीखने पर जरा भी ध्यान न दिया और युद्ध करना जारी रखा। उसी समय आकाश में अग्निदेव के नेतृत्व में भारद्वाज, गौतम, अत्रि व वशिष्ट आदि ऋषियों ने प्रकट होकर द्रोणाचार्य से कहा- हे विप्रवर! क्या यह दारूण समाचार पाकर भी तुम इस भीषण नरसंहार से विमुख न होंगे? द्रोणाचार्य ऋषियों की यह वाणी सुनकर सोच में पड़ गये ।

तब उन्होंने भीम की सूचना पर विचार किया और तनिक व्याकुल व उदास स्वर में कहा- यदि कुन्ती पुत्र, धर्मराज युधिष्ठिर मुझे यह समाचार स्वयं आकर सुनाये ंतब मुझे इस पर विश्वास हो जायेगा। जैसे ही भगवान् श्री कृष्ण को द्रोणाचार्य की बात का पता चला, तो वे तुरन्त युधिष्ठिर से बोले- हे कुन्ती पुत्र! यही उचित अवसर है, तत्काल आगे बढ़ो और द्रोणाचार्य से कह दो कि अश्वत्थामा मारा गया।

श्री कृष्ण की बात सुन युधिष्ठिर बोले-मैंने जीवनभर सत्य, धर्म की मर्यादा का पालन किया है। स्वार्थवश मैं उससे विमुख नहीं हो सकता। भीम मौन खड़े युधिष्ठिर व श्री कृष्ण का वार्तालाप सुन रहे थे, अपने बड़े भाई की विवशता को देख भीम के मन में अचानक एक विचार आया और बोला- बड़े भैया! आप चिन्ता न करें, आपको असत्य वचन नहीं बोलने पड़ेंगे।

श्री कृष्ण तो अन्तर्यामी थे, वे भीम के मन की बात तुरन्त जान गये मगर फिर भी उन्होंने भीम से पूछा-वो कैसे महाबली? हमारी सेना में अश्वत्थामा नाम का एक हाथी है। मैं अभी उसे यमलोक पहंुचा देता हूं। इस तरह जब आप आचार्य द्रोण से कहेंगें कि अश्वत्थामा मारा गया, तो आपको असत्य का दोष नहीं लगेगा। भीम ने उत्साहित स्वर में कहा- आप अश्वत्थामा मारा गया, जोर से कहना, परन्तु हाथी! यह धीमे स्वर में बोलना। तब हम शोर मचा देंगे।

इससे द्रोणाचार्य बाद के शब्द न सुन सकेंगे। उन्हें अश्वत्थामा के मारे जाने का समाचार मैं पहले ही दे चुका हूं। आपके कह देने से हमारा काम निर्विघ्न पूर्ण हो जायेगा। ऐसा कहकर भीम अपनी गदा हाथ में सम्भाले चले गये और अपनी ही सेना के अश्वत्थामा नामक हाथी को मार डाला।

तब श्री कृष्ण ने भी भीम की इस युक्ति की प्रशंसा की और असमंजस की स्थिति में खड़े युधिष्ठिर को उस युक्ति का अनुमोदन करने को कहा- हे धर्मराज युधिष्ठिर! अब तो तुम्हें ऐसा कहने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। सत्य, धर्म व सौन्दर्य पर निर्भर करता है। अतः धर्म-युद्ध में विजयी होने के लिए वही करना चाहिए, जो धर्म के अनुकूल हो।

श्री कृष्ण के मार्ग-दर्शन व भीम की प्रेरणा से युधिष्ठिर भीम की युक्ति अनुसार कार्य करने को तैयार हो गये। तत्पश्चात् युधिष्ठिर उस स्थान पर जा पहुंचे, जहां द्रोणाचार्य खड़े थे। धर्मराज को अपने सम्मुख खड़े देख, द्रोणाचार्य ने उनसे पूछा- हे पाण्डुनंदन! तुम धर्मात्मा एंव सत्यवादी हो। कोई भी लोभी अथवा स्वार्थ तुम्हें धर्म व सत्य के मार्ग से डिगा नहीं सकता।

अतः मैं तुमसे पूछता हूं कि क्या मेरा पुत्र अश्वत्थामा मारा गया। तभी पाण्डव योद्धाओं ने उत्साह दिखाते हुए कोलाहल करना आरम्भ कर दिया, तब युधिष्ठिर धीमे स्वर में बोले- किन्तु मनुष्य नहीं, हाथी…..। युधिष्ठिर के मुख से अश्वत्थामा मारा गया है, सुनकर द्रोणाचार्य पुत्र-शोक से व्यथित हो उठे। उन्होंने शोकातुर होकर अपने अस्त्र-शस्त्र रख दिये ओर अपनी सेना के महारथियों से कहा- अब तुम सब स्वयं युद्ध करो। मैंने अस्त्रों व शस्त्रों का त्याग कर दिया है।

इतना कहकर द्रोणाचार्य रथ से उतर गये। पुत्र-शोक से उत्पन्न युद्ध से विरक्ति के भाव उनके चेहरे पर स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहे थे। वे अत्यधिक उदास होने के कारण कुछ भी देखने व समझने के योगय नहीं रह गये थे। द्रोणाचार्य के शत्रु राजा द्रुपद उनके द्वारा मारे गये थे।

राजा द्रुपद की मृत्यु से व्यथित उनका पुत्र धृष्टद्युम्न अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए संकल्प कर चुका था कि वह द्रोणाचार्य को स्वयं अपने हाथों से मारेगा। अपने पिता की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए क्रोधोन्मत हो वह तेजी से निहत्थे द्रोणाचार्य की तरफ बढ़ा।

अर्जुन धृष्टाद्युम्न के मनोभावों को समझ गये थे, वे तीव्र स्वर में धृष्टद्युम्न से बोले- नहीं धृष्टद्युम्न! आचार्य का वध मत करना। उन्हें जीवित ही पकड़ लाओ। हम उन्हें सम्मानपूर्वक युद्ध बन्दी बना लेंगे। अन्य पाण्डवों ने भी अर्जुन के कथन का अनुमोदन करते हुए धृष्टद्युम्न को ऐसा ही करने को कहा, किन्तु धृष्टद्युम्न पर प्रतिशोध का भूत सवार था।

उसे किसी का भी स्वर अपने निश्चय से विचलित न कर सका। भगवान् श्री कृष्ण जानते थे क धृष्टद्युम्न किसी की बात नहीं मानेगा। होनी तो होकर ही रहेगी। उसका जन्म ही द्रोणाचार्य के वध के उद्देश्य से हुआ था। वे शान्त भाव से खड़े रहे। धृष्टद्युम्न ने पुत्र शोक से व्याकुल चेतनाशून्य द्रोणाचार्य पर अपनी तलवार का भरपूर वार किया।

एक ही वार में द्रोणाचार्य का मस्तक धड़ से अलग हो गया। द्रोणाचार्य के शव से रक्त की फुहार फूट पड़ी। अपनी प्रतिशोध की ज्वाला शान्त कर धृष्टद्युम्न अपनी तलवार को उमंग में भरकर घुमाता हुआ सिंहनाद करने लगा। इस दृश्य को देख सम्पूर्ण पाण्डव सेना अपनी विजय के मार्ग में बाधक बने द्रोणाचार्य की मृत्यु पर हर्षित हो उठी, परन्तु युधिष्ठिर व अर्जुन के नेत्र अश्रुपुरित हो उठे। द्रोणाचार्य के वध से उनके हृदय में शोक उमड़ पड़ा।

वे जानते थे शस्त्र-अस्त्र हीन प्राणी पर वार करना धर्म के अनुकूल नहीं है। दूसरे द्रोणाचार्य उनके आचार्य थे, उन्हीं से उन्होंने सर्वप्रथम अस्त्र विद्या का ज्ञान प्राप्त किया था। इस घटना से दुःखी हो युधिष्ठिर जैसे ही अपने रथ के निकट पहुंचे, तो वे अपना रथ देखकर आश्चर्यचकित हो गये। धर्मराज युधिष्ठिर का रथ धरती से सटा हुआ खड़ा था।

यही उनके विस्मय का कारण था। दरअसल धर्मराज युधिष्ठिर सत्यनिष्ठ एवं धर्मपरायण पुरूष थे। उनके इन्हीं गुणों के कारण उनका रथ सदैव पृथ्वी से कुछ ऊपर उठकर चलता था। इस बात से सभी परिचित थे, किन्तु सदैव पृथ्वी से ऊपर रहने वाला उनका रथ आज पृथ्वी से सटा खड़ा था। यह उनके अब तक के जीवनकाल में पहली बार हुआ था।

जिस कारण धर्मराज युधिष्ठिर चिंतित व विस्मित भाव से श्री कृष्ण के पास पहुंचे और उनसे इसका कारण जानना चाहा। युधिष्ठिर की बात सुन भगवान् श्री कृष्ण ने गम्भीर स्वर में कहा-हे कुन्ती नंदन! आज तुमने द्रोणाचार्य से जो कुछ भी कहा यद्यपि वह तुम्हारी तरफ से पूर्णतः सत्य था, किन्तु वह वास्तव में था तो असत्य ही, क्योंकि द्रोणाचार्य के साथ तुमने सत्य वचन कहकर भी छल किया था।

आज तक तुम्हारी निष्कलंक सत्यवादिता के कारण ही तुम्हारा रथ पृथ्वी की सतह से कुछ ऊपर उठकर चलता था, किन्तु अब उसमंे दोष आ गया है, इसी कारण वह पृथ्वी से आ सटा। श्री कृष्ण की बात सुनकर युधिष्ठिर ने लज्जा से अपना शीश झुका लिया और थके कदमों से अपने शिविर की तरफ बढ़ गये।

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