Manushya ke Dimag ke Lobh Rog – मनुष्य के दिमाग के लोभ रोग

संग्रह की प्रवृत्ति मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। आत्मिक रक्षा के लिए प्रकृति ने इसे मनुष्य-स्वभाव बनाया है। किन्तु जब यह प्रवृत्ति अति की सीमा पर पहुँच जाती है तो मानसिक असमर्थता का कारण हो जाती है- विकृति बन जाती है।

धन का लोभ आज की दुनिया में सबसे बड़ा लोभ माना जाता है। कुछ हद तक यह स्वाभाविक है। धन की सहायता से ही जीवन के उपयोगी कार्य होते हैं। किन्तु धन को ही लक्ष्य मानकर जीना और धन के लिए ही मरना पागलपन की निशानी है। एक घटना याद आती है। बीकानेर के एक महाजन को डॉक्टर ने यह कहा कि उसका रोग कष्टसाध्य हो गया है-कह नहीं सकते कि प्राण बचें या न बचें।

Manushya ke Dimag ke Lobh Rog

महाजन ने यह सुनकर तिजोरी में पड़ी हुई सोने की ईंटों को तुड़वाया और धीरे-धीरे पेट के अन्दर निगल लिया। उसके बचने की जो रही-सही उम्मीद थी वह भी जाती रही। दुनिया से विदा होते हुए भी वह सोने की ईंटों को साथ ले जाना चाहता था। प्राण छूटने की उसे इतनी चिन्ता नहीं थी जितनी धन छूटने की थी। वह महाजन भी हमारे ही जैसा था। हममें से भी अधिकांश ऐसे हैं जो धन की प्राप्ति के लिए जीते हैं, जीवन भर उसकी चिन्ता करते हैं और धन की चाह में मर मिटते हैं। हममें से बहुत कम ऐसे हैं जो यह जानते हैं कि वस्तुतः हम किसलिए धन चाहते हैं। दो शब्दों में कहा जाए तो शायद हम सुख और सुरक्षा के लिए धन चाहते हैं।

सुख बड़ा धोखे का शब्द है। हम क्षणिक भोग को धन से खरीद सकते हैं, किन्तु वह तो बिलकुल जुदा चीज़ है। सच्चा सुख बहुत रहस्यमय है जिसे पाने के लिए हममें से विरले ही कोशिश करते हैं, किन्तु जो स्वयं बिना बुलाए आ जाता है या वह बिना प्रयत्न के मिल जाता है। जीवन के प्रायः सभी सुखमय क्षण बिना मूल्य मिलते हैं। एक दिन मैं बहुत चिन्तित था।

चिन्ता के साथ ही अपने एक मित्र के घर चला। वह भी मेरे ही जैसा कोई निर्धन कलाकार था। एक तंग-सी सीढ़ी खिड़की के नज़दीक से होती हुई उसके द्वार तक पहुँचती थी। मैंने देखा कि खिड़की के पास से गुलाब की एक बेल गुज़रती थी। एक कली प्रभात के सूर्य की किरणों में फूटने ही वाली थी।

उस शान्त वातावरण में उषा की सुनहरी किरणों के आँचल में गुलाब की कली का खिलना देखकर मैं अपनी सारी चिन्ता को भूल गया। सुख की एक लहर मेरे हृदय को छूती हुई गुज़र गई। मैंने मन में सोचा, ‘अब मैं समझ गया कि सुख क्या है। अब कभी दुखी नहीं होऊँगा।’ मेरी आर्थिक चिन्ताएँ हवा में उड़ गई। मैं एक ही क्षण में कुछ का कुछ बन गया।

अन्धे बहरे और वे जवान बच्चों को शिक्षा देने वाली महिला ने एक अमर वाक्य कहा था। वह यह कि “संसार की सर्वश्रेष्ठ और सुन्दर वस्तुएँ वही हैं जो न दिखती हैं, न हुई जाती हैं, केवल हृदय से अनुभव की जाती हैं।” हमारे ऋषियों ने भी आनन्दमय ब्रह्म के रूप की ऐसी ही कल्पना की थी।

कठिनाई यह है कि आज की दुनिया में जीवन की सफलता केवल धन के संग्रह से मापी जाती है। बच्चों को यह सिखाना बहुत आसान होता है कि सफल जीवन का मानदण्ड अच्छे कपड़े, सजा हुआ मकान, सुन्दर गाड़ी रखना है। इसके लिए किसी विशेष शिक्षा या आध्यात्मिक अभ्यास की ज़रूरत नहीं होती। बच्चे को यह सिखाना कठिन होता है कि अच्छे जीवन का मानदण्ड उन भौतिक पदार्थों में नहीं है जो धन से खरीदे जाते हैं, बल्कि उसकी प्राप्ति में है जो बिना मूल्य मिलता है।

दुर्भाग्य यह है कि धन की रक्षा के लिए हम हृदय के द्वार बन्द कर देते हैं और हमारा सुखरूपी अतिथि द्वार बन्द देख बाहर से ही लौट जाता है। धन का मूल्य दृष्टि-भेद से बदलता रहता है। या तो वह बहुत अधिक हो जाता है या बहुत कम समाज में ये दोनों सीमान्त के व्यक्ति ही दिखाई देते हैं।

एक बार एक नदी में से दो डूबी हुई लाशों को बाहर निकाला गया था। उनमें से एक वह गरीब था जिसे उस दिन जुए में पाँच हज़ार रुपये मिले थे। इस खुशी में वह बहुत शराब पीकर नदी में कूद पड़ा था। दूसरा वह लक्षाधिपति था जो जुए में सब कुछ हार गया था, केवल पाँच हज़ार रुपये ही उसके पास बचे थे दोनों के पास पाँच हज़ार रुपये थे।

लेकिन एक के लिए वह बहुत अधिक थे और एक के लिए बहुत कम और दोनों के अपने दर्जे के मुताबिक उसका महत्त्व अनुपात में इतना विपरीत था कि दोनों ने उसके लिए जान दे दी।

इस अत्यन्त लोभ की जड़ में हमारी आन्तरिक सुरक्षा की भावना होती है। धन द्वारा हम उसी तरह अपनी रक्षा करते हैं जिस तरह कोई व्यक्ति जल प्रवाह से रक्षा करने के लिए रेत की गोलियाँ जमा करता है। धन के साथ अभिमान की संगति लगाना भी मूर्खता है। इस प्रकार हम जिस अभिमान की रक्षा करना चाहते हैं वह झूठा अभिमान होता है। धन का मूल्य विनिमय वस्तु तक ही सीमित रहना चाहिए। उसे प्रतिष्ठा का कारण बनाना अनावश्यक महत्त्व देना है।

लोभ की इस प्रवृत्ति को शान्त करने के लिए उपनिषदों का वह प्रारम्भिक मन्त्र सबसे अच्छा है जिसमें यह कहा गया है, ‘मागृधः कस्यस्विद्वनम्’- किसी दूसरे के धन का लोभ न करो और यह भी ‘तेन त्यक्तेन भुञ्जीय’ संसार की सब वस्तुओं का त्याग -भाव से भोग करो। उपनिषद् के प्रथम श्लोक में जीवन की सबसे बड़ी समस्या का सुन्दर समाधान दिया गया है। इसे जीवन में चरितार्थ करने वाला व्यक्ति कदापि मानसिक अस्वस्थता से पीड़ित नहीं हो सकता ।