Manushya ke Dimag ke Krodh Rog- मनुष्य के दिमाग के क्रोध रोग

निरोधित क्रोध मनुष्य के मन को विकृत कर देता है। क्रोध का आधार मनुष्य की अपनी मनोवृत्ति है, न कि वह वस्तु जो क्रोध का लक्ष्य बनती है। विवेक-बुद्धि द्वारा ही क्रोध पर विजय पा सकते हैं। असंयत क्रोध भी ऐसा मनोविकार है जो मनुष्य के मन को अशक्त

कर देता है। एक दिन सुखदेव दफ्तर से लौटते हुए अपनी तनख्वाह में से सौ रुपये का एक नोट घर ले आया। घर आकर बेपरवाही से उसने यह नोट अपनी मेज पर रख दिया। उसकी पत्नी ने उस नोट को जब यहाँ पड़ा देखा तो उठा कर रसोई-घर में ले गई। दूध उबलकर नीचे गिरने वाला था। इसलिए वह अँगीठी की ओर झपटी । हाथ का नोट अँगीठी में गिरकर जल गया। सुखदेव को जब पता लगा तो उसके क्रोध की सीमा न रही महीने भर की कमाई एक क्षण में स्वाहा हो गई। क्रोध में बेबस हो उसने अपनी पत्नी का गला दबोच दिया।

Dimag ke Krodh Rog

सुखदेव साधारण मनुष्य था, पागल नहीं था। लेकिन इस घटना के बाद वह होशहवास खो बैठा, यहाँ तक कि उसे पागलखाने भेजना पड़ा। सुखदेव की स्थिति में यदि कोई संवत व्यक्ति होता, तो वह अपनी पत्नी का गला घोंटने की जगह उसे दो-चार तमचे लगा देता। यदि कोई उससे भी अधिक सभ्य होता तो शारीरिक प्रहार की अपेक्षा अपशब्द द्वारा अपना आवेश बुझा लेता और भी अधिक सुसंयत और सभ्य आदमी अपशब्द न कहकर गुस्सा पी जाता।

गुस्सा पी जाने का अभिप्राय यह नहीं है कि उसने क्रोध पर विजय पा ली। अन्तर केवल दोनों के व्यवहार के भेद का है। वह पिया हुआ गुस्सा भी प्रकट किए हुए गुस्से से कम विघातक नहीं होता। अपने आवेशों को दबाकर जब हम अन्दर ही अन्दर जलते हैं तो अपने साथ उपकार नहीं करते, अत्याचार ही करते हैं।

यह निरोधित क्रोध हमारे मानसिक स्वास्थ्य को बिगाड़ देता है। बार-बार अपने क्रोध को दबाने वाला आदमी चिड़चिड़ा और उद्विग्न रहता है। दूसरे शब्दों में क्रोध की उस आग में हम दूसरे को न जलाकर अपने-आपको जलाना शुरू कर देते हैं। दबा हुआ क्रोध टोकरी में बन्द उस काले नाग की तरह है जिसके दाँतों का जहर नहीं निकाला गया।

अपने क्रोध को अपने मन में जगह देना जहरीले नाग को पोटली में लेकर चलना है। यह ज़हर बाहर प्रकट न होकर धीरे-धीरे हमारे सम्पूर्ण शरीर में भर जाता है। हम सदा अशान्त, अव्यवस्थित और हिंसक प्रकृति के बन जाते हैं। समाज में ऐसे अनेक व्यक्ति हैं जो हर समय किसी न किसी के विरुद्ध विष उगला करते हैं। उनके क्रोध का लक्ष्य बदलता रहता है, किन्तु क्रोध का स्वभाव नहीं बदलता। कोई विशेष लक्ष्य न मिले तो वह खुद को डस लेते हैं। क्रोध का आधार मनुष्य की अपनी ही मनोवृत्ति होती है, न कि वह वस्तु जो क्रोध का लक्ष्य बनती है।

एक लड़की शीशे के सामने बैठकर बाल बना रही थी। बहुत कोशिश करने पर भी उसके बालों की एक लट लहरदार बनकर माथे पर नहीं बैठती थी। लहरदार बनाने के लिए उसने सिर से पैर तक कोशिश की। लेकिन वे बाल उसकी इच्छा के अनुसार घुंघराले नहीं बने।

इस असफलता से उसे अपने पर इतना क्रोध आया कि उसने सामने पड़े हुए रेज़र ब्लेड से अपना गला काट लिया। मनुष्य के आवेश जब प्रकट होने का कोई और मार्ग नहीं पाते तो अपने-आपको भस्म कर देते हैं। आवेशों की शक्ति ऐसी बिजली है जो बुद्धि द्वारा शान्त न हो तो कहीं-न-कहीं गिरकर अवश्य सर्वनाश करती है।

कई बार अपने क्रोध को प्रकट करने के लिए हम किसी निर्दोष व्यक्ति को अपना शिकार बना लेते हैं। दफ्तर से बिगड़कर आया हुआ क्लर्क अपना क्रोध पत्नी और बच्चों पर उतारता है, और पत्नी के बाद वह पति अपने क्रोध की आग नौकर पर बिगड़कर ठण्डी कर लेता है। परिणाम यह होता है कि समाज में आग सी फैल रहती है। इस आग को एक जगह ठण्डी न करके दूसरी जगह ठण्डी करना, उसे शान्त करने का सच्चा उपाय नहीं है।

हमें क्रोध रूपी नाग का जहर निकालना है, उसे दबाकर रखना है, किन्तु इसके जहर को चारों ओर फैलाना नहीं है। इसे केवल विवेक-बुद्धि के प्रयोग से ही हम शान्त कर सकते हैं। क्रोध आने के साथ हमें अपने से पाँच प्रश्न पूछने चाहिए : (1) में किसलिए कोच कर रहा हूँ? (2) क्या क्रोध का यह कारण सच्चा है? (3) इसका दूसरों पर क्या प्रभाव पड़ेगा? (4) क्या क्रोच से परिस्थिति में कोई परिवर्तन आएगा? (5) यदि नहीं तो मैं व्यर्थ ही अपनी शक्तियों को क्यों नष्ट करूँ? इस साधारण विवेक-प्रक्रिया में हम अपने क्रोध को शान्त कर सकते हैं।

क्रोध मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है किन्तु विवेक-बुद्धि द्वारा उसे संयम में रखने से ही मनुष्य का लाभ हो सकता है। संयम क्रोध की भावना मनुष्य की आत्मरक्षा के लिए प्रकृति की ओर से दिया हुआ वरदान है। जब हम अपने मन की शान्ति या शरीर की स्वस्थता पर प्रहार करने वाले किसी शत्रु से लड़ने को तैयार होते हैं तो हमारी पहली प्रतिक्रिया क्रोध के रूप में प्रकट होती है।

क्रोध के समय हमारे शरीर के अड्रेनल ग्लैंड्स अनलीन नाम के विशेष द्रव को मुक्त करते हैं जो द्रव रुधिर में मिलकर हमारे शरीर की मांसपेशियों को मजबूत बनाता है, और रक्त के प्रवाह को उत्तेजित करता है। किन्तु यदि यह लड़ाई न हो, हम अपने क्रोध को दबा दें तो यही द्रव शरीर की नसों में फैलकर ऐसा तनाव पैदा कर देता है जो शरीर की स्वस्थता के लिए हानिकारक होता है।

डॉक्टरों ने विज्ञान की सहायता से यह प्रकट किया है कि जब हम आवेशयुक्त होते हैं तो हमारे रक्त में एक विशेष प्रकार का विष पैदा हो जाता है। परीक्षणों से यह जाहिर हो चुका है कि क्रोधाविष्ट व्यक्ति की कुछ रक्त-बूँदें खरगोश के रक्त में मिलाने से खरगोश की अन्तड़ियाँ रोगग्रस्त हो गईं, और जब उसी व्यक्ति का साधारण अवस्था में लिया गया सून खरगोश के रक्त में मिलाया गया तो उसे अन्तड़ियों की कोई शिकायत नहीं हुई।

अत्यधिक क्रोध से हमारी रक्तशिराएँ ही नहीं, बल्कि हृदय-ग्रन्थियाँ भी विषाक्त हो जाती हैं, हमारे ग्लैंड्स भी प्रभावित होते हैं। उनका काम मध्यम पड़ जाता है। चिकित्सकों का कथन है कि क्रोध, चिन्ता या भय आदि के आवेशों से हमारे उदर में हाइड्रोक्लोरिक एसिड (Hydrochloric Acid) का प्रवाह बढ़ जाता है।

सामान्यतया इस द्रव का उपयोग भोजन के कठोर अंशों को विभक्त करना है, और इस तरह पाचक क्रिया में सहायता देना है। भोजन के उदर में प्रवेश के साथ यह स्वयं बनता रहता है। लेकिन जब क्रोध के आवेश के कारण उदर में इसका निर्माण नहीं होता उस समय उदर में भोजन की मात्रा न होने से वह द्रव पेट के ही पाचक तत्त्वों को नष्ट करना शुरू कर देता है और झिल्ली को खाने लगता है। इससे पेट में गैस्ट्रिक अल्सर (Gastric Ulcer) बन जाता है। अन्य अनेक रोग भी इन रोगों का अनुकरण करते हैं।

गीता में भगवान कृष्ण ने अर्जुन को जब यह कहा कि, ‘कामात् क्रोधोऽभिजायते’ – वासनाएँ क्रोध को जन्म देती हैं, तब वासना से उनका अभिप्राय अतृप्त वासनाओं से था। अपने मनोरथों में विफल होकर या अभीष्ट वस्तु को न पाकर हम क्रुद्ध होते हैं।

साथ ही अपनी विफलता का क्षोभ दूसरों पर आरोपित करके उन्हें क्रोध का शिकार बनाते हैं। क्रोधित होना शरीर की स्वाभाविक क्रिया है। किन्तु दूसरे को दोषी बनाना हमारे अपने मन की कल्पना है। उस कल्पना का आधार सच्चा नहीं होता। अपनी सहूलियत से हम अपनी कल्पना बना लेते हैं, और सहूलियत देखकर ही बदला लेने या दण्ड देने का काम करते हैं।

सुखदेव का सौ रुपये का नोट यदि कोई उससे बलवान आदमी उसके हाथ से छीन लेता, तब वह उसका गला दबोचने को न बढ़ता। वह अपने को सम्भालने की कोशिश करता और शायद ईश्वर को धन्यवाद देता कि चोर ने केवल उसका रुपया ही लिया जान नहीं ली।

अपनी मनोवृत्ति को परिस्थितियों के अनुरूप बदलने की कोशिश से ही हम अपने आवेशों को शान्त कर सकते हैं। चोर का भय जितना प्रबल होता है, यदि सुखदेव का अपनी पत्नी के प्रति प्रेम भी उतना ही प्रबल होता तो भी सुखदेव आवेश में आकर खून न कर बैठता। अभिप्राय यह है कि हमारी सद्भावना जब प्रबल होती है तब हम अपने आवेशों को अधिक सफलता से शान्त कर सकते हैं।

महात्मा बुद्ध और महात्मा गाँधी का यह उपदेश कि ‘अक्रोधेन जयेत्क्रोधम्’ इसी भावना का प्रतीक है। ईसा मसीह ने अपने अत्याचारियों के लिए भी ईश्वर से दुआ माँगी थी। ये उदाहरण मनुष्य जाति के लिए अपवाद हैं। किन्तु कोई भी मनुष्य इन्हें अपना आदर्श बना सकता है।