Dharamraj Yudhisthar ki Udarta Mahabharat ki kahani – धर्मराज युधिष्ठिर ने द्यूत में दुर्योधन के मामा शकुनी की कपट भरी चालों से अपना सर्वस्व हार दिया। यहां तक कि भरी सभा में कौरवों द्वारा राजरानी द्रौपदी का भी भारी अपमान किया गया। फिर भी धृतराष्ट्र के प्रति युधिष्ठिर का वही भाव बना रहा। धृतराष्ट्र ने भी उन्हें उनका सारा धन व राज्य लौटाकर उन्हें वापस इन्द्रप्रस्थ भेज दिया था। परन्तु दुर्योधन को यह सहन नहीं हुआ।

Dharamraj Yudhisthar ki Udarta

उसने धृतराष्ट्र को समझा-बुझाकर पुनः इस बात के लिए तैयार कर लिया कि पाण्डवों के पास दूत भेजकर दोबारा इस शर्त पर बुलाया जाये कि जुआ हारने पर उन्हें बारह वर्ष बनवास व एक वर्ष अज्ञातवास काटना होगा। धृतराष्ट्र ने दुर्योधन की बात स्वीकार कर अपना दूत इन्द्रप्रस्थ भेज दिया। युधिष्ठिर जुए का दुष्परिणाम एक बार देख चुके थे तथा कौरवों की नीयत का भी उन्हें पता चल गया था।

परन्तु फिर भी वे अपने ताऊ जी की आज्ञा को टाल ने सके और निमन्त्रण स्वीकार कर लिया। इस बार भी युधिष्ठिर ही हारे और परिणामस्वरूप उन्हें सब कुछ छोड़कर अपने भाइयों व राजरानी द्रौपदी सहित बारह वर्ष वनवास व एक वर्ष के अज्ञातवास के लिए जाना पड़ा। हस्तिनापुर की प्रजा को बड़ा दुःख हुआ। सब लोग कौरवों को कोसने लगे और नगरवासी बहुत बड़ी संख्या में घर-परिवार को छोड़कर इनके साथ चलने के लिए इनके पीछे हो लिये।

उस समय भी धर्मराज ने कौरवों के विरूद्ध एक शब्द भी नहीं कहा ओर सब लोगों को समझा-बुझाकर किसी प्रकार लौटा दिया। फिर भी बहुत से ब्राह्मण जबरदस्ती इनके साथ हो लिए। उस समय धर्मराज को चिन्ता हुई- इतने ब्राह्मण मेरे साथ चल रहे हैं, इनके भोजन की व्यवस्था कैसे होगी? इन्हें अपने कष्टों की तनिक भी परवाह नहीं थी, परन्तु ये दूसरों को जरा भी कष्ट में नहीं देख सकते थे। अन्त में इन्होंने भगवान् सूर्य की आराधना कर उनसे एक ऐसा पात्र प्राप्त किया, जिसमें पकाया गया थोड़ा सा भोजन अक्षय हो जाता था।

उसी पात्र से ये वन में रहते हुए भी अतिथि, ब्राह्मणों को भोजन कराने के उपरान्त स्वयं भोजन करते थे। वन के कष्ट भोगते हुए भी इन्होंने अतिथि धर्म का यथोचित पालन किया। महाराज युधिष्ठिर के इसी धर्म-प्रेम से आकर्षित होकर बड़े-बड़े महर्षि इनके वनवास के समय इनके पास आकर रहते और यज्ञादि नाना प्रकार के धर्मानुष्ठान करते थे। महाराज युधिष्ठिर अजातशत्रु के नाम से प्रसिद्ध थे। उनका वास्तव में किसी के साथ बैर नहीं था।

शत्रुओं के प्रति भी उनके हृदय में सदा सद्भाव ही रहता था। शत्रु भी उनकी दृष्टि में सेवा व सहानुभूति के ही पात्र थे। अपकार करने वाले का भी उपकार करना यही तो सन्त का सबसे बड़ा लक्षण है। एक बार की बात है, जब पाण्डव द्वैतवन में थे, घोष यात्रा के बहाने राजा दुर्योधन अपने मन्त्रियों, भाइयों, रनिवास की स्त्रियों तथा बहुत बड़ी सेना लेकर वनवासी पाण्डवों को अपने वैभव से जलाने के पापपूर्ण उद्देश्य से उस वन में पहुंचा तथा जल-क्रीड़ा के विचार से वह उस सरोवर के तट पर पहुंचा, जहां महाराज युधिष्ठिर कुटी बनाकर रहते थे।

सरोवर को गन्धर्वो ने पहले से ही घेर रखा था। उनके साथ दुर्योधन की मुठभेड़ हो गई। दोनों तरफ से बड़ा भीषण एवं रोमांचकारी युद्ध छिड़ गया, विजय गन्धर्वो की ही हुई। उन लोगों ने रानियों सहित दुर्योधन को कैद कर लिया। जब यह समाचार महाराज युधिष्ठिर को मिला, तो उन्होंने अपने भाइयों को आज्ञा दी कि तुम सब लोग जाकर बलपूर्वक राजा दुर्योधन को छुड़ा लाओ। माना कि ये हमारे शत्रु हैं, परन्तु इस समय उन पर विपत्ति टूट पड़ी है।

अतः इस समय इनके अपराधों को भुलाकर इनकी सहायता करना ही हमारा धर्म है। शत्रु है, तो क्या हुआ? आखिर है तो हमारे भाई ही। हमारे रहते दूसरे लोग इनकी दुर्दशा करें, यह हम कैसे देख सकते हैं? युधिष्ठिर की आज्ञा पाते ही अर्जुन ने अपनी बाणवर्षा से गन्धर्वो के छक्के छुड़ा दिये और दुर्योधन, उसके भाइयों व रानियों को उनके चंगुल से छुड़ा लिया। दुर्योधन की दुरभि सन्धि को जानकर देवराज इन्द्र ने ही दुर्योधन को बांध ले आने के लिए गन्धर्वो को भेजा था।

महाराज युधिष्ठिर के विशाल हृदय को देख, वे सब दंग रह गये। इसी प्रकार एक बार की बात है, द्रौपदी को आश्रम में अकेला छोड़कर पाण्डव वन में चले गये थे। पीछे से दुर्योधन का बहनोई सिन्धुराज जयद्रथ उधर से गुजरा। द्रौपदी के अनुपम रूप लावण्य को देखकर उसका मन बिगड़ गया। उसने द्रौपदी के सामने अपना पापपूर्ण प्रस्ताव रखा, किन्तु द्रौपदी ने उसे तिरस्कार पूर्वक ठुकरा दिया।

क्रोध में तपते जयद्रथ ने द्रौपदी को खींचकर जबरदस्ती अपने रथ पर बैठा लिया और उसे ले भागा। पीछे पाण्डवों को जब जयद्रथ की शैतानी का पता लगा तो उन्होंने उसका पीछा किया और कुछ ही देर में उसे जा दबोचा। पाण्डवों ने कुछ ही देर में उसकी सारी सेना तहस-नहस कर डाली। पापी जयद्रथ ने भयभीत होकर द्रौपदी को रथ से नीचे उतार दिया और स्वयं प्राण बचाकर भागा।

भीमसेन ने उसका पीछा किया और थोड़ी देर में उसे पकड़कर धर्मराज के सामने लाकर उपस्थित कर दिया। तब धर्मराज ने उसे अपना सम्बन्धी समझकर दयापूर्वक छोड़ दिया। इसी तरह वनवास की अवधि पूरी कर जब इन्होंने श्री कृष्ण के हाथों हस्तिनापुर यह संदेश भेजा कि- मुझे पूरा राज्य नहीं चाहिए, मुझे केवल पांच गांव से ही सन्तोष हो जायेगा। परन्तु दुर्योधन ने स्पष्ट कह दिया- मुझे पाण्डवों को सुई की नोंक के बराबर भी जमीन देना स्वीकार नहीं।

तब इन्हें बाध्य होकर युद्ध करना पड़ा। इतना ही नहीं, जब दुर्योधन की सारी सेना मर-खप गई और वह स्वयं एक तालाब में जाकर छिप गया, उस समय इन्होंने उसके पास जाकर उसे अन्तिम बार युद्ध के लिए ललकारते हुए यहां तक कह दिया था कि- हममें से जिस किसी के साथ तुम युद्ध कर सकते हो, यदि हममें से किसी एक पर भी तुम द्वन्द्व-युद्ध में विजय पा लोगे तो सम्पूर्ण राज्य तुम्हारा हो जायेगा।

जिस दुर्योधन का गदायुद्व में भीमसेन भी, जो पाण्डवों में सबसे अधिक बलवान एवं गदायुद्ध में प्रवीण थे, मुकाबला करते हिचकिचाते थे, उसके साथ यह शर्त लगा लेना कि हममें से किसी एक को तुम हरा दोगे तो राज्य तुम्हारा हो जायेगा, युधिष्ठिर जैसे महानुभाव का ही काम था। अन्त में भीमसेन के साथ उसका युद्ध होना निश्चित हुआ और भीमसेन के द्वारा वह मारा गया।

इतना ही नहीं, युद्ध समाप्ति के बाद जब युधिष्ठिर का राज्यभिषेक हो गया और धृतराष्ट्र गांधारी इन्हीं के पास रहने लगे, उस समय इन्होंने उसके साथ ऐसा सुन्दर व्यवहार किया कि वे अपने पुत्रों की मृत्यु का दुःख भूल गये। इन्होंने दोनों को इतना सुख पहुंचाया, जितना उन्हें अपने पुत्रों से भी प्राप्त नहीं हुआ था। वे सारा राज काज उन्हीं से पूछकर करते थे और राज काज करते हुए भी इनकी सेवा के लिए बराबर समय निकाला करते थे तथा इनकी माता कुन्ती देवी, द्रौपदी तथा अपनी अन्य बहुओं के साथ देवी गान्धारी की सेवा किया करती थी।

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