Dhanurdhar Arjun ki Pratigya Mahabharat ki kahani – आचार्य द्रोण ने धर्मराज युधिष्ठिर को पकड़ने की दो बार प्रतिज्ञा की थी, परन्तु वे अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण न कर सके थे। प्रतिज्ञा पूर्ण न कर पाने के कारण जब दुर्योधन ने उन्हें उनकी इस असफलता का आभास कराया, तब द्रोणाचार्य बोले- दुर्योधन! मैं पहले भी तुमसे कह चुका हूं कि अर्जुन की उपस्थिति में धर्मराज को पकड़ना तो दूर, कोई उन्हें स्पर्श भी नहीं कर सकता।

Dhanurdhar Arjun ki Pratigya

यदि तुम अपने साथियों व सेना के साथ अर्जुन को दूर ले जाकर संग्राम करो तो हम धर्मराज को चक्रव्यूह में फंसा लेंगे। दुर्योधन ने ऐसा ही किया। इधर द्रोणाचार्य ने अन्य पाण्डवों से युद्ध करने लिए चक्रव्यूह की रचना कर ली थी। चक्रव्यूह को देख पाण्डव उदास हो गये ।तब अभिमन्यु ने धर्मराज से कहा- महाराज! आप व्यर्थ चिन्ता में न पड़ें, मैं चक्रव्यूह को बेध भीतर प्रवेश करने का मार्ग जानता हूं।

मैंने गर्भ में पिताजी से चक्रव्यूह को बेध भीतर प्रवेश करने की कला सुनी थी, किन्तु मुझे चक्रव्यूह को तोड़ बाहर निकलने की कला का ज्ञान नहीं है। यह सुन पाण्डवों ने कहा कि – हम सभी तुम्हारे पीछे-पीछे चक्रव्यूह में प्रवेश करेंगे और तुम्हें बाहर निकाल लायेंगे।

तब अभिमन्यु अपनी माता को प्राण कर पाण्डवों के साथ बाण वर्षा करता हुआ, चक्रव्यूह के द्वार को बेध भीतर प्रवेश कर गया, किन्तु अभिमन्यु के साथ पाण्डव चक्रव्यूह में प्रवेश नहीं कर सके, क्योंकि जयद्रथ ने पाण्डवों को चक्रव्यूह में जाने नहीं दिया था। अत्यन्त पराक्रमी अर्जुन पुत्र वीर अभिमन्यु के महान पराक्रम से सभी महारथी थर्रा उठे। उसके युद्ध कौशल से घबराकर सभी निर्दयी महारथी अकेले अभिमन्यु पर एक साथ प्रहार करने लगे। अन्तिम सास तक अभिमन्यु ने उनसे युद्ध करते हुए वीरगति प्राप्त की।

अभिमन्यु वध का समाचार पाते ही धर्मराज विलाप करले लगे। तभी अर्जुन भी वहां पहुंचे। धर्मराज को इस तरह विलाप करते हुए देख अर्जुन ने कारण जानना चाहा। तब धर्मराज रो-रोकर कहने लगे- हे धनंजय! द्रोण के बनाये हुए चक्रव्यूह के जिस मार्ग से अभिमन्यु गया था, उसी मार्ग से हम लोग व्यूह में प्रवेश करने लगे, परन्तु जयद्रथ ने शिवजी के वर द्वारा हमें व्यूह में जाने नहीं दिया। जब कुंवर रथहीन हो गया, तो सप्त महारथियों ने उसका वध कर डाला और पापी जयद्रथ ने निष्प्राण पड़े अभिमन्यु के सिर को अपने पैरों तले रौंद दिया। यह सुन अर्जुन शोकातुर हो, मूच्र्छित हो गये।

चेतनावस्था में लौटकर अर्जुन ने क्रोधित होकर प्रतिज्ञा की- वीरवर अभिमन्यु की मृत्यु के उत्तरदायी नीच जयद्रथ को कल संध्याकाल तक सूर्यास्त होने से पूर्व मार डालूंगा। यदि मैं ऐसा न कर सका तो आत्मदाह कर लूंगा। अर्जुन की यह घोर प्रतिज्ञा जब जयद्रथ को पता चली तो वह भय से कांप उठा। अर्जुन की प्रतिज्ञा की बाबत सुन दुर्योधन के भी कान खड़े हो गये। वह सोचने लगा- अर्जुन को सरलता से समाप्त करने का यह स्वर्ण अवसर है, यदि जयद्रथ की सुरक्षा करते हुए अन्य योद्धा अर्जुन के इस प्रकार लड़े कि संध्या हो जाये, तो वह अपनी प्रतिज्ञा के अनुरूप स्वयं आत्मदाह कर लेगा।

दुर्योधन प्रसन्नता से भर उठा और जयद्रथ की सुरक्षा का भार द्रोणाचार्य को सौंप दिया, क्योंकि वह जानता था कि द्रोणाचार्य जयद्रथ की सुरक्षा करने में पूर्णतः सक्षम हैं। जयद्रथ ने जब दुर्योधन द्वारा किये गये सुरक्षा प्रबन्ध के विषय में जाना, तो वह भी आश्वस्त हो युद्ध में भाग लेने के लिए तैयार हो गये। जब पाण्डवों को यह सूचना मिली कि जयद्रथ की रक्षा का दायित्व द्रोणाचार्य वहन करेंगे, तब वे चिन्तित हो उठे, वे इस बात से भली-भांति परिचित थे कि आचार्य द्रोण को मारे बिना वे जयद्रथ तक नहीं पहुंच सकेंगे और आचार्य द्रोण को मारना कठिन ही नहीं असम्भव था।

जयद्रथ को मारने की अर्जुन की प्रतिज्ञा से श्री कृष्ण वैसे ही चिन्तित थे, ऊपर से द्रोणाचार्य द्वारा जयद्रथ की रक्षा की बाबत जान वे कुछ परेशान भी हो गये, किन्तु अगले ही क्षण उनके अधरों पर मोहक मुस्कान नृत्य करने लगी। तभी अर्जुन उनके पास आये और बोले- केशव! कौरव महारथियों ने जयद्रथ की सुरक्षा के कड़े प्रबन्ध किये हैं। यदि मैंने सांयकाल से पूर्व उस दुष्ट का वध नहीं किया तो प्रतिज्ञा के कारण मुझे आत्मदाह करना पड़ेगा। जयद्रथ की मृत्यु जहां मेरे लिए जीवनदायी है, वहीं उसका जीवन मेरे लिए काल बन जायेगा। हे प्रभु! अब आप ही मुझे इस दुश्ंिचतता से निकाल सकते हैं। तब श्री कृष्ण मुस्कराकर बोले- हे पार्थ! तुम्हें तो देवाधिदेव महादेव की कृपा प्राप्त है। तुम अवश्य ही जयद्रथ का वध कर अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करोगे। केवल कर्म करो, परिणाम की चिन्ता में शक्ति नष्ट न करो।

श्री कृष्ण की प्रेरणा से अर्जुन आश्वस्त हो गये और युद्ध की तैयारी में लग गये। जैसे ही युद्ध आरम्भ हुआ, तो युद्ध भूमि का दृश्य देख अर्जुन विस्मित रह गये। युद्ध-भूमि पर आयी विरोधी दल की सेना को देख, ऐसा आभास हो रहा था, मानो समस्त कौरव सेना मात्र जयद्रथ की सुरक्षा के लिए ही युद्ध-भूमि में आई हैं। आचार्य द्रोण ने जयद्रथ को अपनी सुरक्षा के घेरे में लेते हुए अभेद व्यूह की रचना की थी। तब जयद्रथ कौरव सेना में सबसे पीछे था। कृपाचार्य, अश्वत्थामा, कर्ण, शल्य व वृषसेन आदि महायोद्धाओं ने उसे चारों ओर से घेर रखा था।

जब द्रोणाचार्य व दुर्योधन सबसे आगे भीम व युधिष्ठिर आदि पाण्डव योद्धओं से युद्ध करने में संलग्न थे, तब अर्जुन इन सबसे अलग श्री कृष्ण के साथ रथ में सवार होकर जयद्रथ तक पहुंचने का प्रयास करने लगे। अर्जुन को जयद्रथ की तरफ बढ़ता देख उसकी रक्षा करते महारथियों ने जयद्रथ को अपने घेरे में लेते हुए अर्जुन को चारों ओर से घेर लिया तथा वे अर्जुन पर बाणों की वर्षा करने लगे। उस समय सभी का एक ही उद्देश्य था कि किसी भी तरह संध्या हो जाये और अर्जुन अपनी प्रतिज्ञानुसार आत्मदाह करने पर विवश हो जाये।

अपने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे इसी प्रयास में जुटे थे कि अर्जुन को अपने आक्रमण से इतना अवसर न दिया जाये कि वह जयद्रथ की झलक भी पा सके। जब अर्जुन ने स्वयं को चहुं ओर से कौरव सेना के महारथियों से घिरा पाया, तो एकाएक हंस पड़े ।तब अर्जुन ने अपने बाणों का ऐसा युद्ध कौशल दिखाया कि सभी योद्धा दांतों तले उंगली दबा उठे। कौरव योद्धागण यह अनुमान ही न लगा सके कि अर्जुन कब बाण हाथ में लेते, कब उसका धुनष पर संधान करते और कब धुनष की प्रत्यंचा खींच बाण छोड़ते हैं।

विरोधी दल के योद्धाओं को एक बार तो यह आभास होने लगा कि अर्जुन जयद्रथ तक पहुंचने ही वाले हैं। ऐसे समय में कौरव महारथियों ने भारी गदाओं, लोहे के चक्रों, भीषण दिव्यास्त्रों द्वारा एक साथ अर्जुन पर प्रहार किये, किन्तु अर्जुन ने अपने तीक्ष्ण बाणों से उनके सभी प्रहारों को विफल कर दिया। यद्यपि वीरवर अर्जुन के बाणों की वर्षा से असंख्य कौरव सैनिक मारे जा चुके थे और असंख्या सैनिक घायल हो गये थे, यद्यपि जैसे-जैसे समय व्यतीत होता जा रहा था, कौरव सेना योद्धाओं की प्रसन्नता बढ़ती ही जा रही थी।

उनकी दृष्टि में तो समय बीतता जा रहा था। आकाश में सूर्य को अपने अस्तांचल की ओर बढ़ता देख, जयद्रथ का हृदय बल्लियों उछलने लगा। वह सोचने लगा- सूर्यास्त अब होने ही वाला है, अर्जुन मुझे मारने में तो विफल होगा ही, साथ ही अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार अर्जुन को आत्मदाह भी करना पड़ेगा। ऐसा सोचकर वह अर्जुन की मृत्यु की कल्पना कर आनन्दित होने लगा। सूर्यास्त होने में तनिक ही विलम्ब था, यह देख अर्जुन ने हताश भाव से श्री कृष्ण की तरफ देखा। तभी सूर्यास्त हो गया।

अर्जुन समझ गये कि जयद्रथ का वध न कर पाने के कारण अब उन्हें क्या करना है? अर्जुन उदास चित्त से अपने रथ से उतरे और अपने सैनिकों को लकड़ियों की चिता तैयार करने का आदेश दिया। इस समय अर्जुन को अपने आत्मदाह का दुःख नहीं था। उन्हें दुःख था, तो सिर्फ यह कि वे अपने पुत्र अभिमन्यु के वध का बदला जयद्रथ से न ले सकें और पापी जयद्रथ उनके हाथों से बच गया। अर्जुन को अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार आत्मदाह के लिए तैयार होते देख, समस्त पाण्डव पक्ष में शोक की तीव्र लहर दौड़ गई। उन सबमें एकमात्र श्री कृष्ण ही ऐसे थे, जिनके अधरों पर ऐसी दरूण बेला में भी रहस्यमयी मुस्कान थिरक रही थी।

जैसे ही जयद्रथ को पता चला कि अर्जुन के आत्मदाह हेतु चिता सजाई जा रही है, तब वह प्रसन्नता से झूम उठा। सूर्यास्त पहले ही हो चुका था, इसलिए उसे अब अपने प्राणों का भय नहीं था। वह अपने सुरक्षा घेरे को तोड़ प्रसन्नता से उछलता-कूदता उन्मादियों की भांति हर्षनाद करता, अर्जुन के सामने कुछ ही दूरी पर आ खड़ा हुआ।

अर्जुन ने अत्यन्त क्रोध से भस्म कर देने वाली दृष्टि जयद्रथ पर डाली और फिर श्री कृष्ण की तरफ देख पराजित भाव से अपना सिर झुका दिया। वह अपना गांडीव उतारकर चिता की तरफ बढ़ ही रहे थे, तभी श्री कृष्ण ने उनका हाथ पकड़ लिया और बोले- कहां जा रहे हो कुन्ती नंदन! जरा उधर तो देखो।

उन्होंने आकाश की ओर पश्चिम दिशा में संकेत किया। जैसे ही अर्जुन ने उस दिशा में देखा, तभी कुछ पल पूर्व अस्त हुआ सूर्य पुनः अपने तेज से दमक उठा। श्री कृष्ण बोले- पार्थ! यह जयद्रथ को सुरक्षा घेरे से बाहर निकालने हेतु मैंने ही माया रची थी। जो सूर्यास्त तुम सभी ने देखा था, असत्य था, मेरी माया थी, जबकि अभी सूर्यास्त होने में समय शेष है। सोचते क्या हो? वह खड़ा तुम्हारा शत्रु! शीघ्र ही अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करो।

यह सुनते ही अर्जुन ने तत्क्षण अपना गाण्डीव सम्भाला और उस पर इन्द्र के वज्र के समान प्रचण्ड बाण का संधान किया, इससे पूर्व कि अर्जुन उसे छोड़ते, श्री कृष्ण ने उनसे कहा- पार्थ! जयद्रथ को उसके पिता का वरदार प्राप्त है कि जो उसका सिर पृथ्वी पर गिरायेगा, उसके सिर के भी सैकड़ों टुकड़े हो जायेंगे। अतः तुम इस प्रकार बाण का प्रयोग करो कि इसका सिर इसके पिता की गोद में जाकर गिरे।

अर्जुन ने ऐसा ही किया। सूर्यास्त होने के बाद पुनः सूर्योदय की माया को अभी जयद्रथ समझ भी न पाया था कि अर्जुन ने उसके सिर को लक्ष्य बना बाण छोड़ दिया। वह बाण जयद्रथ के सिर को धड़ से अलग कर, युद्ध भूमि से बहुत दूर वहां ले गया, जहां जयद्रथ के पिता तपस्या में लीन बैठे थे।

जयद्रथ का सिर उनकी गोद में जा गिरा। इस बात से अनभिज्ञ जैसे ही वे उठे, जयद्रथ का सिर उनकी गोद से पृथ्वी पर जा गिरा और वृद्ध क्षत्रिय के सिर के भी सौ टुकड़े हो गये। जयद्रथ की मृत्यु का समाचार पाकर कौरव दल में शोक व भय का वातावरण बन गया। इतने बड़े-बड़े महारथियों के होने पर भी अर्जुन ने जयद्रथ को मारने की प्रतिज्ञा पूर्ण कर ली थी।

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