Daanveer Karan ke kavach kundal ka daan – कर्ण का नाम आज भी जगत् में दानवीर कर्ण के नाम से प्रसिद्ध हैं। सूर्य पुत्र कर्ण की दानवीरता का उत्कृष्ट उदाहरण इस घटना से मिलता है। जब पाण्डवों को वन में रहते बारह वर्ष पूर्ण हो चुके तब इन्द्र कर्ण से कवच-कुण्डल लेने की इच्छा से ब्राह्मण वेश में उनके पास गये।
यद्यपि एक दिन पूर्व रात्रि में कर्ण ने स्वप्न देखा था कि एक वेदपाठी ब्राह्मण के रूप में स्वयं सूर्य भगवान् उससे कह रहे हैं कि हे पुत्र! ब्राह्मण के वेश में इन्द्र तुमसे कवच-कुण्डल दान में लेने की याचना करने आयेगा, किन्तु तुम उसे कवच-कुण्डल मत देना।
प्रातःकाल होते कर्ण सूर्य की आराधना किया करते थे। उस समय जो ब्राह्मण जिस वस्तु की याचना करते, वे उसे वही दे देते थे। ब्राह्मण वेशधारी इन्द्र ऐसे ही समय कर्ण के पास आये। कर्ण ने उनका स्वागत करते हुए कहा-भगवान्! आपकी क्या अभिलाषा है? इन्द्र बोले- राजन्! मुझे किसी अन्य पदार्थ की अभिलाषा नहीं है।
केवल अपने शरीर के साथ उत्पन्न हुए यह कवच व कुण्डल दे दीजिये। कर्ण के कवच और कुण्डल मांगने स्वयं इन्द्र देवता इसलिये आये थे क्योंकि अर्जुन उनका पुत्र था। महाभारत युद्ध की सम्भावना को ध्यान में रखते हुए इन्द्र अर्जुन की कर्ण से प्राण रक्षा हेतु आये थे।
इन्द्र के वचन सुन कर्ण ने कहा था- हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! मैं आपको पहचान गया हूं। आप देवताओं के राजा इन्द्र है। मुझे आपको अपने कवच कुण्डल देने में संकोच नहीं। परन्तु यदि मैं इन्हें आपको दे दूंगा, तो शत्रुओं के हाथों मारा जाऊंगा, फिर भी मैं आपको निराश नहीं होने दूंगा।
किन्तु आप भी मुझे कुछ दीजिये। देवता इन्द्र ने कहा- आप अपनी अमोघ शक्ति मुझे दे दीजिए, जो शत्रुनाश के लिए कभी निष्फल नहीं होती। कर्ण के वचन सुन इन्द्र तनिक चिन्तित हुए, किन्तु तुंरत संभल कर बोले- हे कर्ण! मैं तुम्हें वह शक्ति देता हूं, मगर ध्यान रहे, यह एक शत्रु को ही मार सकेगी।
उसके पश्चात् पुनः मेरे पास लौट आयेगी। यह सुनकर कर्ण ने अपने कवच-कुण्डल काटकर दे दिये और बदले में अमोघ शक्ति देकर इन्द्र वहां से चले गये। कर्ण की दानवीरता पर प्रसन्न हो देवताओं ने उस पर पुष्प वर्षा की। उसे दानवीर कर्ण कह कर पुकारा। संसार के वीरों में कर्ण से बड़े दान का और कहीं वर्णन नहीं मिलता।
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