Brahnalla bane Arjun Mahabharat ki Kahani – पाण्डवों ने वनवास के बारह वर्ष पूरे कर लिये थे, परन्तु अभी अज्ञातवास का एक वर्ष शेष था। एक वर्ष के अज्ञातवास की शर्त पूरी करने के लिए पाण्डवों ने राजा विराट के यहां आश्रय लिया। दुर्योधन ने वनवास के बारह वर्षो में पाण्डवों को कोई क्षति नहीं पहुंचाई थी, किन्तु अज्ञात वर्ष का समय आरम्भ होते ही वह पाण्डवों का पता लगाने के लिए व्याकुल हो उठा।
यदि इस अज्ञात वर्ष में पाण्डव दुर्योधन या अन्य कुरूवंशियों द्वारा पहचान लिये जाते, तो उन्हें पुनः बारह वर्ष का वनवास भोगना पड़ता। हस्तिनापुर पर राज्य करते रहने के लिए दुर्योधन पाण्डवों को वनवासी बने हुए ही देखना चाहता था। अपनी इसी इच्छा को पूरी करने के लिए वह प्राण प्रण से पाण्डवों की खोज में लग गया, मगर वह पाण्डवों की छाया को भी न पा सका।
अन्त में थक हार कर वह पितामह भीष्म के पास पहुंचा और उनसे पूछते लगा- पूज्य पितामह! पाण्डवों का अज्ञातवास आरम्भ हो गया है। इसलिए मैं उन्हें खोजना चाहता हूं, परन्तु लाख प्रयासों के बावजूद मुझे उनकी कोई खोज-खबर नहीं मिली। कृपया आप मेरा मार्गदर्शन करें। दुर्योधन के मन में छिपे पाण्डवों के प्रति कपटपूर्ण भावों से भीष्म पितामह भली-भांति परिचित थे, किन्तु वे चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते थे।
दुर्योधन हस्तिनापुर का राजा था, इसी कारण भीष्म पितामह पाण्डवों का साथ देकर धर्म विरूद्ध कार्य नहीं कर सकते थे। अपने धर्म का पालन करने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध भीष्म पितामह ने, जोकि पाण्डवों के प्रभाव को भली भांति जानते थे, बताया कि- राजा युधिष्ठिर जिस नगर में या राष्ट्र में होंगे, वहां की जनता भी दानशील, प्रियवादिनी, जितेन्द्रिय एंव लज्जाशील होगी।
जहां वे रहते होंगे, वहां के लोग संयमी, सत्यपरायण तथा धर्म में तत्पर होंगे। उनमें ईष्र्या, अभिमान, क्रोध आदि दोष नहीं होंगे। वहां हर समय वेद-ध्वनि होती होगी, यज्ञ होते होंगे, ठीक समय पर वर्षा होती होगी, वहां की भूमि धन-धान्यपूर्ण तथा सब प्रकार के कुकर्मो एंव उपद्रवों से शून्य होगी, वहां गायें अधिक हष्ट-पुष्ट होंगी।
भीष्म के वचनों को सुन दुर्योधन प्रसन्नता से खिल उठा। उसने ऐसे नगर की खोज आरम्भ कर दी, जहां वे सभी बातें हो रही हो, जिन पर भीष्म पितामह ने प्रकाश डाला था। अन्त में उसे विराटनगर ही ऐसा मिला, जहां की प्रजा दानशील, जितेद्रिय, लज्जाशील, संयमी, सत्यपरायण तथा धर्मात्मा थी, जिनमें अभिमान, क्रोध व द्वेष की भावना भी नहीं थी।
वहां वेद-पुराण का नित्य नियमपूर्वक पठन-पाठन होता था, यज्ञ होते थे, समय पर वर्षा होती थी, वहां की भूमि धन-सम्पदा से पूर्ण, कुकर्मो व उपद्रवों से रहित थी, वहां की गायें भी हष्ट-पुष्ट थी। यह जानकर दुर्योधन को विश्वास हो गया कि हो न हो पाण्डव विराट नगर में ही है। तब इन लोगों का पता लगाने के लिए दुर्योधन ने विराट नगर पर चढ़ाई कर दी।
भीष्म, द्रोण, कर्ण, कृप, अश्वत्थाना आदि सभी प्रधान वीर उसके साथ थे। ये लोग राजा विराट की साठ हजार गायों को घेरकर ले चले। तब विराट-कुमार उत्तर बृहन्नला बने हुए अर्जुन को सारथी बनाकर उन्हें रोकने के लिए गये।
कौरवों की विशाल सेना को देखते ही उत्तर के रोंगटे खड़े हो गये, वह रथ से उत्तर भागने लगा। बृहन्नला के वेश में अर्जुन ने उसे पकड़कर समझाया और उसे सारथी बना स्वयं युद्ध करने चल दिये। उन्होंने बारी-बारी से कर्ण, कृप, द्रोण, अश्वत्थामा व दुर्योधन को पराजित किया और भीष्म को मूर्छित कर दिया।
इसके बाद भीष्म, दुर्योधन, कर्ण, दुःशासन, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य व अश्वत्थामा एक साथ ये सब महारथी अर्जुन पर टूट पड़े और उन्होंने उन्हें चारों तरफ से घेर लिया, परन्तु अर्जुन ने अपने बाणों की वर्षा से सबके छक्के छुड़ा दिये। अन्त में अर्जुन ने सम्मोहन नामक अस्त्र को प्रकट किया, जिससे सभी कौरव वीर बेहोश हो गये, उनके हाथों से अस्त्र गिर पड़े।
यदि अर्जुन चाहते तो उस समय इन सभी को सरलता से मार सकते थे, परन्तु वे इन सब बातों से ऊपर थे। होश में आने पर भीष्म के परामर्श पर कौरवों ने गौओं को छोड़कर लौट जाना ही श्रेयस्कर समझा। अर्जुन विजयघोष करते हुए नगर में चले आये। इस तरह अर्जुन ने विराट की गायों के साथ-साथ उनकी मान-मर्यादा की भी रक्षा करके अपने आश्रयदाता का ऋण कई गुना रूप में चुका दिया।
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