Bhishma pitamah ki Pratigya

 

Bhishma Pitamah ki Pratigya- महाभारत कथानुसार जब भगवान शिव गोलोक से शिवलोक पधारे तो आते ही शिव और गंगा में विवाद हो गया। जिस पर क्रोधित होकर भगवान शंकर ने गंगा को श्राप देते हुए कहा- “तुम पृथ्वी पर जाकर महाराजा कुरू के वंश में जन्में राजा शान्तनु की पत्नी बनोगी।” कालान्तर में राजा शान्तनु की योग्यता व उनके गुणों को देखते हुए उन्हें हस्तिनापुर का राजा घोषित किया गया था।

राजा शान्तनु को राज-काज के अतिरिक्त यदि किसी में रूचि थी, तो आखेट करने और गंगा-यमुना नदियों के तट पर भ्रमण करने में थी। उन्हीं दिनों भगवान शंकर के श्राप वश गंगा ने भगीरथी के किनारे अपना रूप धारण किया। एक दिन वहाँ पर राजा शान्तनु मनोविनोद के लिए आये और कुछ समय के लिए गंगा के तट के समीप भी रूके।

एकाएक उनकी दृष्टि एक अपूर्व सुन्दरी गंगा पर पड़ी। गंगा के रूप-सौन्दर्य को देख राजा शान्तनु मोहित हो गये। जैसे ही गंगा राजा के निकट आयी, उन्होंने गंगा से उसका परिचय माँगा। उत्तर में गंगा ने कहा- “मैं भगवान शंकर के श्राप वश यहाँ वर प्राप्त करने के लिए आयी हूँ। राजा शान्तनु कामदेव के वशीभूत होकर कहने लगे- “तुम मुझी को वर लो।”

सर्वप्रथम तो गंगा ने शान्तनु के प्रणय निवेदन को ठुकरा दिया, तत्पश्चात् शान्तनु के आग्रह पर वह बोली- “यदि आप मुझसे विवाह करना ही चाहते हैं तो आपको मेरी एक बात के लिए वचनबद्ध होना पड़ेगा। मैं तुम्हारी प्रत्येक बात स्वीकार करने के लिए तैयार हूँ जो भी हो निःसंकोच कहो। “ शान्तनु ने उताबले स्वर में कहा।” तो सुनो राजन्!

मैं आपसे विवाह के पश्चात् कुछ भी कंरू, चाहे वह कार्य अच्छा हो अथवा बुरा, आप मुझे न तो टोकेंगे और न ही रोकेंगे। अर्थात् मैं जो भी कार्य करूंगी, स्वेच्छा से करूंगी। अन्यथा भविष्य में यदि आपने मुझे किसी कार्य में टोका तो मैं उसी समय आपको छोड़कर चली जाऊंगी।” “मुझे तुम्हारी शर्त स्वीकार है।” शान्तनु ने सहर्ष कहा।

इसी तरह गंगा शान्तनु के साथ राजमहल में आ गई। पूरे राज्य में महाराज शान्तनु व नई महारानी के आगमन पर उत्सव मनाया गया। प्रजा नई रानी के आने पर बहुत प्रसन्न हुई। शान्तनु का वैवाहिक जीवन सुखपूर्वक व्यतीत हो रहा था, मगर तभी एक दिन विचित्र घटना घटी, जिसने राजा शान्तनु के मन-मस्तिष्क को झकझोर के रख दिया।

नई रानी के जब शान्तनु की प्रथम सन्तान के रूप में पुत्र को जन्म दिया तो वह उसे गंगा में बहा आई। शान्तनु ने पाषाण हृदय होकर इस दृश्य को देखा। परन्तु शर्त से बंधे होने के कारण न तो उन्होंने नई रानी को रोका और न ही उससे इसका कारण ही पूछा। इस तरह नई रानी ने एक-एक कर शान्तनु के सात पुत्र गंगा में बहा दिये।

यद्यपि राजा शान्तनु क्षुब्ध थे, परन्तु सब कुछ करने में समर्थ थे, अपनी वचनबद्धता के कारण छटपटाकर रह गए। एक दिन वह भी आया, जब नई रानी राजा के आठवें पुत्र को भी गंगा में बहाने के लिए चल दी। तब शान्तनु के संयम की बांध टुट गया। अपनी आंखों के समक्ष अपनी संतानों की हत्या होते भला वह कब तक देखते रहते।

इससे पूर्व की उनका आठवाँ पुत्र भी गंगा की गोद में सो जाता, उन्होंने क्रोधित होकर पत्नी को रोकते हुए कहा- “हे रानी! सच बता तू कौन है? अपनी ही कोख से जन्में इन सन्तानों को जल में बहाने वाली पुत्रघातिनी! तू कैसी मां है?” शान्तनु के कठोर शब्दों को सुनकर वह रूक गई और बोली- “महाराज! आज आपने अपने वचन को तोड़ दिया है, अतः मैं अपने वचन के अनुसार इसी पल आपको छोड़कर जा रही हूँ।”

यह सुन शान्तनु का क्रोध अचानक भाप की तरह उड़ गया। वह बड़े ही कातर स्वर में बोले- “ऐसा न करो प्रिय! इस तरह अपनी सन्तानों को अपनी पत्नी द्वारा समाप्त होता देख, संसार का भला कौन पिता होगा जो चुप रह जाएगा? तुम्हें आज बताना ही होगा कि क्यों तुमने यह किया?“ शान्तनु के इस प्रश्न पर गंगा बोली-“तो सुनिये महाराज! मैं स्वयं गंगा ही हूँ, जिसे आपने अपनी पत्नी के रूप में पाया था।

वे जो आपके सात पुत्र मैंने जल में बहाये और यह आठवाँ पुत्र भी, इसे लेकर ये कुल आठ वसु थे। ये सब महर्षि वशिष्ठ के श्राप के कारण मृत्युलोक में अवतरित हुए। इनके अनुनय-विनय करने पर ही मैंने इन्हें आश्वासन दिया था कि मैं इन्हें मृत्युलोक में जन्म देकर इस श्राप से मुक्ति दिलाऊंगी। सातों वसुओं को तो मैंने मुक्ति दिला दी, परन्तु आपके हस्तक्षेप के कारण अब यह आठवाँ वसु आपके पुत्र के रूप में इसी लोक में रहेगा।

अभी तो मैं इसे अपने साथ ले जा रही हूँ, किन्तु मैं आपको वचन देती हूँ कि उचित अवसर आने पर इसे आपको सौंप दूंगी।” इतना कहकर गंगा अंतर्ध्यान हो गयी। गंगा के जाने से दुःख में भरे हुए शान्तनु किसी हारे हुए पथिक की भाँति, थके कदमों व हताश भाव से राजमहल लौट आये। अब उन्हें केवल यही आशा थी कि एक दिन उन्हें उनका पुत्र मिल जायेगा। इस घटना को घटित हुए कई वर्ष बीत गये। गंगा व अपने पुत्र से मिलने की इच्छा से शान्तनु गंगा-तट पर प्रतिदिन जाते थे।

एक दिन वे नियमानुसार गंगा-तट पर भ्रमण कर रहे थे, तभी उनकी दृष्टि एक तेजस्वी युवक पर पड़ी। जो गंगा की धार के मध्य खड़ा होकर शस्त्राभ्यास कर रहा था। वह इतना एकाग्रचित व निपुणता के साथ शस्त्राभ्यास कर रहा था कि उसने गंगा का प्रवाह भी अवरूद्ध कर दिया था। शान्तनु मन्त्रमुग्ध होकर एकटक उस विलक्षण युवक को खड़े देखते रहे।

उन्होंने सोचा-‘मेरा पुत्र यदि मेरे पास होता, तो अवश्य वह भी इसी आयु का होता।” शान्तनु ने इतना सोचा ही था कि अचानक उन्होंने देखा कि उनकी पत्नी गंगा उस युवक का हाथ पकड़कर उन्हीं की तरफ आ रही है। शान्तनु अपलक उस दृश्य को देखने लगे। गंगा उनके पास आकर युवक को राजा को सौंपते हुए बोली-“महाराज! यह आपका आठवाँ पुत्र देवव्रत है। इसे स्वीकार कीजिए। इसने महर्षि वशिष्ठ, देव गुरू शुक्राचार्य, देव गुरू बृहस्पति, देवराज इन्द्र एंव भगवान परशुराम आदि से समस्त कलाएँ व विधाओं का ज्ञान अर्जित कर लिया है।

मैंने आपको दिया हुआ वचन आज पूरा किया। अब मुझे आज्ञा दीजिए। ” कहने के पश्चात् गंगा अंतर्ध्यान हो गई। राजा शान्तनु का यहीं आठवाँ पुत्र आगे चलकर भीष्म पितामह के नाम से तीनों लोकों में विख्यात हुआ। राजा शान्तनु ने देवव्रत को युवराज घोषित कर स्वयं राज-काज से अवकाश ले लिया। उसके बाद राजा शान्तनु का एकान्त जीवन नीरसतापूर्ण हो गया। वे हमेशा गंगा की याद में खोये रहते। एक दिन वे वन में भ्रमण कर रहे थे।

वहीं नदी किनारे उनकी दृष्टि एक सुन्दर नौयौवना पर पड़ीं वह नौका विहार कर रही थी। शान्तनु उसके आकर्षण में बंधे तट पर खड़े रहे। उस सुन्दरी के निकट आने की प्रतीक्षा करने लगे। सुन्दरी के निकट आने पर राजा शान्तनु ने उससे उसका परिचय पूछा। सुन्दरी बोली- “मैं केवटराज हरिदास की पुत्री सत्यवती हूँ और यहीं नदी में नाव चलाती हूँ।” राजा शान्तनु उस केवट कन्या पर आसक्त हो गये।

वे उससे विवाह करना चाहते थे। वास्तव में सत्यवती एक राजकन्या थी, परन्तु वह एक केवट के घर में पली थी। सत्यवती के पिता सुधत्वा नामक राजा थे। एक बार जब राजा की स्त्री रजस्वला हुई, उस समय राजा को किसी कार्यवश बाहर जाना पड़ा। राजा की अनुपस्थिति में रानी ने अपनी दासी को सन्देश देकर राजा के पास भेजा।

रानी के सन्देश को पा, राजा ने दासी को एक पत्ते के पात्र मे अपना वीर्य निकालकर दे दिया। राह में दासी की एक स्त्री से हाथापाई हो गई। जिस कारण वीर्य पात्र उसके हाथ से छूट नदी में जा गिरा। उस वीर्य को एक मछली निगल गई। कुछ दिन बाद मछली के गर्भ से एक कन्या का जन्म हुआ, जिसे केवटराज हरिदास ने गंगा नदी में अपने जाल में पाया और उसका पालन-पोषण किया। इसी कन्या का नाम सत्यवती पड़ा। सत्यवती का दूसरा नाम मत्स्यगंधा भी था।

राजा शान्तनु से भेंट होने से पूर्व सत्यवती के साथ एक घटना और घटी थी। एक बार पाराशर मुनि नदी किनारे उस पार जाने की इच्छा से सत्यवती की नाव में बैठ गए। जब नाव बीच धार में पहुँची तो कन्या को अकेला देख मुनि ने उससे सहवास की इच्छा प्रकट की। अपने तेज से चारों तरफ अन्धकार कर सत्यवती के साथ सहवास किया। सत्यवती ने द्वैपायन नामक पुत्र को जन्म दिया। काफी छोटी आयु में द्वैपायन तप करने वन में चला गया।

सत्यवती से कह गया कि तुम जब भी मेरा स्मरण करोगी, मैं उपस्थित हो जाऊंगा। इस घटना के बाद शान्तनु उस पर आसक्त हुए थे। राजा ने सत्यवती के पिता से मिल उनके समक्ष सत्यवती से विवाह का प्रस्ताव रखा। केवटराज हरिदास ने सत्यवती से विवाह के लिए राजा के सामने शर्त रखी कि उसके गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न होगा, वही राज्य का अधिकारी बनेगा। उस समय राजा शान्तनु ने केवटराज की शर्त अस्वीकार कर दी। परन्तु वे उसे भुला न सके।

वे उसे पाने की अभिलाषा में उदास रहने लगे। जब देवव्रत को उनकी उदासी का कारण ज्ञात हुआ, तो वे स्वंय केवटराज हरिदास के पास गये। खुद सत्यवती से अपने पिता के विवाह की याचना की। हरिदास ने देवव्रत के सामने अपनी वही शर्त रखी थी। देवव्रत ने हरिदास की शर्त स्वीकार करते हुए प्रतिज्ञा की- “इसके गर्भ से उत्पन्न पुत्र ही हमारे राज्य का उत्तराधिकारी होगा।” परन्तु हरिदास को इतने पर भी सन्तोष नहीं हुआ।

उसने सोचा देवव्रत का वचन भले ही भंग न हो, किन्तु इसका पुत्र राज्य का अधिकारी हो सकता है। देवव्रत हरिदास के मन की बात को ताड़ गये। उन्होंने उसी समय भीष्म प्रतिज्ञा की- “मैं आजीवन ब्रहमचर्य का पालन करूंगा।” कुमार देवव्रत की इस भीष्म प्रतिज्ञा को सुन देवताओं ने प्रसन्न होकर पुष्प वर्षा की। तभी से उनका नाम भीष्म पड़ गया।

भीष्म ने सत्यवती का विवाह अपने पिता से करा दिया। भीष्म की प्रतिज्ञा को सुन राजा शान्तनु बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने अपने पुत्र को इच्छामृत्यु का वरदान दिया। इस प्रकार भीष्म ने अपने जीवन के प्रारम्भ में पिता की इच्छापूर्ति हेतु संसार के समक्ष अलौकिक त्याग का आदर्श स्थापित किया।

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