Bheeshma Pitamah Ki Mrityu Ka Rahasya – महाभारत-युद्ध में कौरव पक्ष के सर्वश्रेष्ठ योद्धा भीष्म ही थे। पाण्डव व कौरव दोनों के पितामह होने के नाते इनका दोनों से ही समान प्रेम एंव सहानुभूति थी। वे दोनों का ही समानरूप से हित चाहते थे। फिर भी यह जानकर कि पाण्डव धर्म व न्याय के पक्षधर है, वे पाण्डवों के साथ विशेष सहानुभूति रखते थे और मन से उनकी विजय चाहते थे।
परन्तु उन्होंने युद्ध में पाण्डवों का प्राणप्रण से जीतने की चेष्टा की। महाभारत युद्ध के अðारह दिनों में से दस दिन तक अकेले भीष्म पितामह ने कौरवों का सेनानायकत्व किया और पाण्डव सेना के बड़े भाग का संहार कर डाला। वृद्ध होते हुए भी युद्ध में उन्होंने ऐसा अद्भुत पराक्रम दिखाया कि दो बार स्वयं भगवान श्री कृष्ण को अर्जुन की रक्षा के लिए, शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा करने पर भी भी भीष्म के मुकाबले में खड़ा होना पड़ा।
अन्त में पाण्डवों ने जब देखा कि भीष्म के रहते कौरवों पर विजय पाना कठिन व असम्भव है, तब उन्होंने भीष्म पितामह के पास जाकर, उनकी मृत्यु का उपाय पूछने का निश्चय किया।
धर्मराज युधिष्ठिर ने पितामह भीष्म के पास जाकर कहा- हे पितामह! आपकी दृष्टि में तो कौरव-पाण्डव बराबर है, परन्तु फिर भी आप कौरव-सेना में मिल गये, जिन कौरवों के सौ भाई हैं।
हम केवल पांच है, फिर भी आप कौरवों की तरफ से युद्ध करते हुए, हमारी सेना का विनाश कर रहे हैं। अतः कृपाकर आप हमें विजय का मार्ग बताइये।
युधिष्ठिर की बात सुन, पितामह ने कहा- हे धर्मराज! तुम्हारी रक्षा जब स्वयं परब्रह्म परमेश्वर श्री कृष्ण कर रहे है, तो तुम्हारी विजय निश्चित है, किन्तु जब तक मेरे हाथ में अस्त्र-शस्त्र रहेंगे, तब तक कोई वीर हमें परास्त नहीं कर सकता।
अतः तुम मुझे परास्त करने के लिए प्रातः शिखण्डी को मेरे सामने युद्ध में लाना। मैं शिखण्डी पर प्रहार नहीं करूंगा क्योंकि द्रुपद पुत्र शिखण्डी पूर्वजन्म में स्त्री था। उसके पीछे से अर्जुन मुझ पर तीक्ष्ण बाणों का प्रहार करें। तब ही मेरी मृत्यु सम्भव हैं। प्रातःकाल होते ही भीषण युद्ध होने लगा।
अर्जुन ने धर्मराज युधिष्ठिर के बताये अनुसार शिखण्डी को आगे कर भीष्म पर बाणों की वर्षा की थी। जिस समय युद्ध में घायल होकर भीष्म धराशायी हुए, तब उनका रोम-रोम बाणों से बिंध गया था।
उस समय सूर्य दक्षिणायन में था। दक्षिणायन की देह त्याग के लिए उपयुक्त काल न समझ, वे अयन-परिवर्तन के समय तक उसी शरशय्या पर पड़े रहे, क्योंकि अपने पिता शान्तनु के वरदान के कारण मृत्यु उनकी इच्छा पर थी।
कौरवों ने उनका उपचार कराना चाहा, परन्तु वीरगति पाकर उन्होंने चिकित्सा कराना अपना अपमान समझा। सब उनकी असाधारण धर्मनिष्ठा व साहस देखकर दंग थे।
भीष्म पितामह ने कुछ दिन बाद की अन्न जल का त्याग कर दिया और फिर जितने दिन वे जीवित रहे, बाणों की मर्मातक पीड़ा के साथ-साथ भूख व प्यास की असहनीय वेदना भी सहन करते रहे।
भगवान श्री कृष्ण की प्रेरणा एंव शक्ति से उन्होंने युधिष्ठिर को लगातार कई दिनों तक वर्णाश्रम धर्म, राज धर्म, आपद्धर्थ, मोक्ष धर्म, श्राद्ध धर्म, दान धर्म, स्त्री धर्म आदि विषयों पर उपादेश दिये, जो महाभारत के शान्तिपर्व तथा अनुशासनपर्व में संग्रहीत हैं।
साक्षात् धर्म के अंश से उत्पन्न हुए तथा धर्म की प्रत्यक्ष मूर्ति महाराज युधिष्ठिर की धर्म विषयक शंकाओं का निवारण करना भीष्म पितामह का ही काम था।
उनका उपदेश सुनने के लिए व्यास आदि महर्षि भी पधारे थे। उनकी अटूट भक्ति का ही फल था, जो अन्त समय में भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें साक्षात् दर्शन देकर कृतार्थ किया। तब भीष्म पितामह ने सही समय जान अपने प्राण त्याग दिये।
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