Arjun aur Subhadra ka Vivah – पाण्डव जब इन्द्रप्रस्थ में राज करते थे, उन दिनों लुटेरे किसी ब्राह्मण की गाय लेकर भाग गये। ब्राह्मण ने आकर पाण्डवों से गुहार की। अर्जुन ने ब्राह्मण की करूण पुकार सुनी और उन्हें गायें लाने का वचन दिया। परन्तु, उनके शस्त्र उस घर में थे, जहां उनके बड़े भाई युधिष्ठिर द्रौपदी के साथ एकान्त में बैठे हुए थे।

Arjun aur Subhadra ka Vivah

पांचों भाईयों में पहले से ही यह तय हो चुका था कि जिस समय द्रौपदी एक भाई के साथ एकान्त में रहे, उस समय दूसरा कोई भाई यदि उनके कमरे में चला गया तो वह बारह वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ वन में रहेगा। अर्जुन बड़े असमंजस में पड़ गये।

वे सोचने लगे- यदि ब्राह्मण की गायों की रक्षा नहीं की जाती तो क्षत्रिय धर्म से च्युत होते हैं और उनके लिए यदि अस्त्र लेने कक्ष में जाते हैं, तो नियम भंग होता है। अन्त में अर्जुन ने नियम भंग करके ब्राह्मण की गायों की रक्षा करने का ही निश्चय किया। अर्जुन चुपचाप युधिष्ठिर के कक्ष में जाकर शस्त्र ले आये और उसी समय लुटेरों का पीछा कर गायों को छुड़ा लाये।

वहां से लौटकर उन्होंने अपने बड़े भाई से नियम भंग के प्रायश्चित में सयवन जाने की आज्ञा मांगी। युधिष्ठिर ने उन्हें समझाया कि- बड़ा भाई यदि अपनी स्त्री के पास बैठा हो, उस समय छोटे भाई का उसके पास चला जाना अपराध नहीं है। यदि कोई अपराध हुआ भी हो, तो वह मेरे प्रति हुआ है और मैं उसे स्वेच्छा से क्षमा करता हूं, फिर तुमने धर्मपालन के लिए ही तो नियम भंग किया है। अतः तुम्हें वन में जाने की आवश्यकता नहीं है।

उन्होंने युधिष्ठिर के समझाने पर भी सत्य की रक्षा के लिए नियम का पालन करना आवश्यक समझा और वनवास की दीक्षा लेकर वहां से चल दिये। वे इन्द्रप्रस्थ से तीर्थ-यात्रा पर निकल गये थे। तीर्थ-यात्रा करते अर्जुन प्रभास क्षेत्र में जा पहुंचे। जब भगवान श्री कृष्ण को अर्जुन के वनवास व उनके प्रभास क्षेत्र में होने का समाचार मिला, तब वे तुरन्त अर्जुन से मिलने वहां आ पहुंचे।

वहां से दोनों रैवत पर्वत पर चले गये। कुछ दिनों रैवत पर्वत पर व्यतीत कर श्री कृष्ण अर्जुन से बोले- हे पार्थ! अब तुम मेरे साथ द्वारिका चलो। नहीं केशव! अर्जुन बोले- मैं वनवासी हूं, मेरा राजमहल में रहना उचित नहीं होगा। उनके ऐसे वचन सुन श्री कृष्ण बोले- हे कुन्ती नंदन! क्या तुम और मैं अभिन्न हैं। नहीं…..मैं महल में और तुम वन में होते हुए भी हम दोनों स्थान पर उपस्थित हैं। तुम एकमात्र मेरे हो और मैं एकमात्र तुम्हारा हूं।

जो मेरे हैं, वे तुम्हारे हैं और जो तुम्हारे हैं, वे मेरे हैं। जो तुमसे द्वेष रखता है, वह मुझसे द्वेष रखता है। जो तुम्हारा प्रेमी है, वह मेरा प्रेमी है। तुम नर हो और मैं नारायण। तुम मुझसे अभिन्न हो और मैं तुमसे। हम दोनों में कोई अन्तर नहीं है, हम दोनों एक हैं। अतः अब तुम मेरे साथ द्वारिका चलो। अर्जुन श्री कृष्ण के इस प्रिय निवेदन को ठुकरा न सके और उनके साथ द्वारिका चले गये। द्वारिका पहुंच अर्जुन ने अद्भुत सौन्दर्य की स्वामिनी सुभद्रा को देखा। सुभद्रा वासुदेव की पुत्री व श्री कृष्ण की बहन थी। अर्जुन सुभद्रा पर मोहित हो गये।

सुभद्रा ने भी मन-ही-मन अर्जुन को पति के रूप् में वरण कर लिया। श्री कृष्ण तो स्वयं भगवान थे। अन्तर्यामी होने से वे दोनों के हृदय की बात जान गये। एक दिन जब वासुदेव की पुत्री सुभद्रा पार्वती की पूजा करके द्वारिका लौट रही थी, तब श्री कृष्ण की आज्ञा से अर्जुन ने सुभद्रा को रथ पर बैठा लिया और सुभद्रा के साथ अपने नगर की ओर जाने लगे।

द्वारिका के क्षत्रियों को जैसे ही सुभद्रा हरण का पता चला, वे अर्जुन से युद्ध करने के लिए उद्धत हो उठे। उस समय श्री कृष्ण ने उन्हें उपदेश देकर युद्ध करने से रोका। किन्तु बलराम जी उनका विरोध करते हुए क्रोध में भर अपना हल उठाकर अर्जुन वध के लिए चल दिये । तब श्री कृष्ण ने उन्हें कठिनता से रोका। तत्पश्चात् द्वारिका में ही अर्जुन ने सुभद्रा का पाणिग्रहण किया।

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