Apman ka Badla

Apman ka Badla – महर्षि गौतम के पुत्र शरद्वान ने कठोर तपस्या के बल पर शस्त्रास्त्रों को प्राप्त किया था। उनके तप से भयभीत इन्द्र ने जानपदी नामक अप्सरा को उनके पास भेजा था। अप्सरा जानपदी को देख शरद्वान मुनि स्खलित हो गये। उनके वीर्य के एक भाग से एक कन्या का, दूसरे भाग से एक पुत्र की उत्पति हुई।

उन दोनों बालकों को जंगल में देख, राजा शान्तनु अपने महल में ले आये। उन्होंने बालिका का नाम कृपी व उस बालक का नाम कृप रखा। इधर शरद्वान ने तपोबल से यह ज्ञात कर कि उनके बच्चे हस्तिनापुर के राजा शान्तनु के पास हैं, तब उन्होंने उन्हें अपना गोत्र आदि बता दिया। शरद्वान मुनि का वही पुत्र बाद में शास्त्रों के ज्ञाता एक कृपाचार्य हुए और कृपी आचार्य द्रोणाचार्य की भार्या (पत्नी) बनी थी। महामुनि भारद्वाज बड़े ही तेजस्वी और महा विद्वान ऋषि थे।

एक बार उन्होंने अपने वंश बेल बढ़ाने के लिए देवताओं से पुत्र की कामना की। उस प्रार्थना के फलस्वरूप उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुई। उनका मन धृताची अप्सरा पर मोहित हो गया था, जिस कारण वे स्खलित हो गये। उन्होंने वीर्य को द्रोण कलश में रख दिया, उससे द्रोणाचार्य उत्पन्न हुए। पांचाल नरेश राजा पृषत भारद्वाज मुनि के घनिष्ठ मित्र थे। पृषत के भी एक पुत्र था जिसका नाम द्रुपद था।

राजा पृषत ने अपने पुत्र की प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा के लिए द्रुपद को भारद्वाज के आश्रम में भेज दिया। इस तरह द्रोण व द्रुपद एक साथ ही शिक्षित होने लगे। दोनों में घनिष्ठता भी हो गई। द्रोण के किशोर होने पर भारद्वाज ने उन्हें ऋषि अग्निवेश के पास शस्त्रास्त्र की शिक्षा प्राप्त करने के लिए भेजने का निश्चय किया। राजा पृषत के अनुरोध पर द्रुपद को भी द्रोण के साथ ऋषि अग्निवेश के पास भेज दिया गया। तब दोनों बाल सखा बड़ी लगन से शास्त्रास्त्र की शिक्षा प्राप्त करने लगे।

युवावस्था में राजा पृषत की मृत्यु के पश्चात् जहाँ द्रुपद पाँचाल नरेश बन अपने राज काज में व्यस्त हो गये। वहीं द्रोण अपने पिता भारद्वाज के स्वर्गवास के पश्चात् उनके आश्रम की देख रेख करने लगे। समय आने पर द्रोण ने कुरू वंश के कुलगुरू कृपाचार्य की बहन कृपी से विवाह कर गृहस्थ आश्रम में प्रवेश किया। कृपी ने एक पुत्र को जन्म दिया। पैदा होते ही बालक ने अश्व घोड़े के से स्वर में रूदन किया, जिस कारण उस बालक का नाम अश्वत्थामा रखा गया।

एक दिन द्रोण ने सुना महर्षि परशुराम अपनी समस्त अर्जित सम्पदा दान कर रहे हैं। द्रोण ने सोच विचार कर परशुराम के पास जाने का निश्चय किया। परशुराम जी ने द्रोण को सुयोग्य पात्र समझ अपने शस्त्र व उनके उपयोग की विद्या तथा मंत्रों को उन्हें प्रदान कर दिया। काफी समय बाद जब द्रोण वापस लौटे तो, उन्हें अपने परिवार की दशा देख बहुत दुःख हुआ। उनकी पत्नी बालक अश्वत्थामा को दूध के स्थान पर पिसे हुए चावल का घोल पिला रही थी। उनकी अनुपस्थिति में उनके आश्रम व परिवार की दशा अत्यन्त शोचनीय हो गई थी। अचानक द्रोण को अपने मित्र पांचाल नरेश द्रुपद का स्मरण हो आया। उन्हें विश्वास था कि उनका बाल सखा व भाई के समान द्रुपद ऐसे कठिन समय में उनकी सहायता अवश्य करेगा।

वे अपनी पत्नी व पुत्र के साथ द्रुपद के राज महल पर जा पहुँचे। उनके बालसखा द्रुपद ने अपनी राजसत्ता के अभिमान में लिप्त हो उन्हें दरिद्र, भिखारी और न जाने क्या-क्या अपमान भरे शब्द कहें। भरी सभा में द्रुपद द्वारा अपमानित होने पर द्रोण ने वहीं प्रतिज्ञा की- द्रुपद! तूने जिस मित्रता का उपहास उड़ाया है, तूने जिस तरह मेरा अपमान किया है, समय आने पर मैं तुझसे उसका बदला अवश्य लूंगा। इस प्रतिज्ञा के साथ द्रोण अपने परिवार के साथ हस्तिनापुर अपनी पत्नी के भाई कृपाचार्य के पास आ गये।

कृपाचार्य ने उनका हार्दिक स्वागत-सत्कार किया। कृपाचार्य कौरवों व पाण्डव कुमारों को वेद शास्त्रों का अध्ययन कराते थे। उस समय तक द्रोण ने अपने अद्भुत शस्त्रज्ञान की बात गुप्त रखी थी। वे अपने परिवार सहित कृपाचार्य के आश्रम में ही रह रहे थे। एक दिन कुरू कुमार मैदान में गेंद खेल रहे थे। सहसा उनकी गेंद गहरे कुंए में जा गिरी। गेंद को बाहर निकाले का कोई उपाय न था। द्रोण यह दृश्य देख रहे थे। उन्होंने अपने बाणों से उस गेंद को बाहर निकाल दिया।

यह देख सभी राजकुमार बहुत प्रसन्न हुए। जब इस बात का पता पितामह भीष्म को चला, तो वे तुरन्त समझ गए कि द्रोण ही कुरू कुमारों को शस्त्र विद्या सिखाने हेतु उपयुक्त आचार्य हैं। वे स्वंय द्रोण से मिलने गये तथा उनसे कुरू कुमारों को शस्त्र विद्या सिखाने का निवेदन किया। द्रोण ने इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया।

जिस दिन द्रोणाचार्य का अपने शिष्यों को शस्त्र विद्या सिखाने का प्रथम दिन था उन्होंने अपने सभी शिष्यों को सम्बोधित करते हुए कहा- हे शिष्यों! जब तुम शस्त्र विद्या में पारंगत हो जाओगे, तब मैं तुम्हें एक कार्य सौंपूंगा। मुझे वचन दो कि गुरूदक्षिणा के रूप में, तुम उसे पूर्ण करोगे। अपने गुरू के कथन पर सभी शिष्यों ने चुप्पी धारण कर ली, पर अर्जुन ने आगे बढकर कहा- आचार्य! मैं अर्जुन आपको वचन देता हूं, आप जो कहेंगें मैं उसे पूर्ण करूंगा।

अर्जुन का साहसिक उत्तर सुन द्रोण ने गद्गद् हो, अर्जुन को सीने से लगा लिया। उन्होंने उसी पल निश्चय किया कि वे अर्जुन को विश्व का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर व योद्धा बनायेंगें। समय अपनी अबाध गति से चल रहा था। वह दिन भी आ पहुंचा जब उनके सभी शिष्य युद्ध कला में पारंगत हो गए तब द्रोणाचार्य ने कहा- वह समय आ गया है तुम मुझे गुरूदक्षिणा दो। मैं चाहता हूं कि तुम पांचाल नरेश द्रुपद को युद्ध में परास्त कर उसे बंदी बना मेरे सामने ले आओ।

द्रोणाचार्य के आदेश पर कौरव-पाण्डव सभी राजकुमार अस्त्रों शस्त्रों से सुसज्जित रथ पर सवार हो पांचाल की ओर प्रस्थान कर गए। पाण्डवों को नीचा दिखाने की अभिलाषा में कौरवों ने आगे बढकर पांचाल पर आक्रमण कर दिया। किन्तु महापराक्रमी राजा द्रुपद के समक्ष कौरव सेना टिक न सकी। तब पाण्डव भाईयों ने अत्यन्त वीरता से द्रुपद और उसकी सेना का डटकर सामना किया।

अर्जुन ने अपने बाणों की वर्षा से द्रुपद का रथ तोड़कर नीचे गिरा दिया। इससे पूर्व की द्रुपद सम्भल पाता अर्जुन ने अपने एक ही बाण से द्रुपद का धनुष व उसका कवच छिन्न-भिन्न कर डाला। द्रुपद को बंदी बनाकर उसे पैदल ही घसीटते हुए अर्जुन ने उसे द्रोणाचार्य के समक्ष ला प्रस्तुत किया। द्रोणाचार्य को कई वर्षो से इस क्षण की प्रतिक्षा थी। वे द्रुपद से बोले- देखा राजन! मैंने कहा था न, मैं तुमसे एक दिन अपने अपमान का बदला अवश्य लूंगा।

आज मैंने अपना बदला ले लिया। अब तुम्हारा राज्य मेरा है और तुम मेरे अधीन हो। मैं चाहूँ तो तुम्हारी दुर्दशा कर सकता हूं। परन्तु मैंने तुम्हें सच्चे हृदय से अपना मित्र माना था, फिर मैं जाति से ब्राह्मण भी हूं। ब्राह्मण का धर्म है, क्षमा करना। अतः मैं तुम्हारा आधा राज्य लेकर आधा राज्य तुम्हें लौटाता हूं। द्रुपद ने प्रकट में द्रोणाचार्य को उनकी इस उदारता व मैत्रीभाव के प्रति धन्यवाद दिया, परन्तु मन ही मन प्रतिशोध की ज्वाला में दहकता वह वापस चला गया।

वह द्रोणाचार्य से प्रतिशोध लेने का उपाय सोचने लगा। एक ऋषि के कहने पर द्रुपद ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया। यज्ञ पूर्ण होने पर उसके अग्निकुण्ड से एक द्विय बालक प्रकट हुआ। उसी के साथ यह आकाशवाणी हुई- यह बालक द्रोणाचार्य का वध करेगा। द्रुपद ने उस बालक का नाम धृष्टद्युम्न रखा। उस बालक के बाद यज्ञकुण्ड से एक अति सुन्दर कन्या प्रकट हुई। साथ ही आकाशवाणी हुई – यह कन्या कौरवों के विनाश का कारण बनेगी क्योंकि कौरवों के विनाश के साथ ही द्रोणाचार्य का अन्त जुड़ा है।

द्रुपद ने उस कन्या का नाम द्रौपदी रखा। समय आने पर दोनों आकाशवाणी सत्य सिद्ध हुई। द्रौपदी ही कौरवों के लिए विनाशकारी महाभारत का युद्ध का कारण बनी तथा द्रुपद के पुत्र धृष्टद्युम्न के हाथों ही द्रोणाचार्य का वध हुआ। यह मिथ्या अभिमान व बदले की भावना ही थी जिसने बचपन के बाल सखाओं को शत्रु बना डाला था।

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