Draupadi ka cheer Haran – धर्मराज युधिष्ठिर के लिए श्री कृष्ण ने मयदानव से एक स्वर्ण तथा रत्न-जड़ित सभा भवन तैयार कराया था। वह सभा भवन पाण्डवों की राजधानी इन्द्रप्रस्थ में था। इन्द्रप्रस्थ स्वर्गपुरी के समान वैभवशाली व अति सुन्दर थी। धर्मराज युधिष्ठिर ने वहां राजसूय यज्ञ किया, यज्ञ में बड़े-बड़े राजा, महाराजा पधारे। दुर्योधन भी अपने मामा शकुनी के साथ इन्द्रप्रस्थ आया था।
यज्ञ समाप्त होने पर सभी आगन्तुक चले गये, किन्तु दुर्योधन अपने मामा के साथ वहीं रूक गया। एक दिन वह मयदानव द्वारा बनाये भवन की शोभा को देखने की अभिलाषा से सभा भवन में गया। वहां दुर्योधन को स्फटिक मणि जड़ित फर्श को देखकर जल का भ्रम हुआ और वह वस्त्र उठाकर चलने लगा। आगे गया तो रत्नमयी तालाब को फर्श समझकर उसके जल में गिर पड़ा। यह देख सभी स्त्रियां हंसने लगीं। तभी द्रौपदी बोली- वास्तव में, अन्धे के अन्धे पुत्रों ने ही जन्म लिया।
द्रौपदी का कटाक्ष दुर्योधन को सहन नहीं हुआ और वह तुरन्त हस्तिनापुर लौट गया। जब इस घटना का समाचार धर्मराज को मिला, तब उन्हें बड़ा दुःख हुआ, परन्तु भगवान् श्री कृष्ण प्रसन्न भाव से बोले- आज द्वेष का बीज इस यज्ञ द्वारा बोया गया है। अतः अब मैं अवश्य ही भूमि का भार उतारूंगा।
यह कहकर श्री कृष्ण भी द्वारिका चले गये। उधर दुर्योधन पाण्डवों के अतुल्य वैभव को देख ईष्र्या की अग्नि में जल रहा था। साथ ही द्रौपदी द्वारा कहे गये अपमानजनक शब्द उसके हृदय में विषाक्त शूल की भांति चुभ रहे थे। वह पाण्डवों को दर-दर का भिखारी बना देने की युक्ति सोचने लगा।
उसने अपने मनोभाव शकुनी के सामने भी प्रकट किये, तब शकुनी बोली- भांजे, तुम भीम, अर्जुन, नकुल व सहदेव जैसे महान् योद्धाओं पर कभी भी विजय प्राप्त नहीं कर सकोगे। अतः उन्हें जीतने का ऐसा उपाय होना चाहिये, जिससे वे अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग ही न कर सके। दुर्योधन शकुनी के षड्यंत्रकारी मस्तिष्क से भली-भांति परिचित था। उसने उत्साहित स्वर में पूछा- ऐसा कैसे होगा मामाश्री? होगा भांजे होगा |
शकुनी की आंखों में छल भरी चमक उभरी, वह बोला- तुम युधिष्ठिर को चौपड़ खेलने के लिए निमंत्रण भेजो। चैपड़ में खेले जाने वाले द्युत (जुए) में मैं छल -प्रपंच द्वारा उनकी समस्त सम्पत्ति दांव पर लगवा कर जीत लूंगा। मामा शकुनी की सलाह से दुष्ट बुद्धि दुर्योधन पाण्डवों के साथ चौपड़ खेलने का प्रस्ताव लेकर अपने पिता के पास पहुंचा। उसने उन्हें अपने इस प्रस्ताव के साथ-साथ पापपूर्ण उद्देश्य को भी स्पष्ट कर दिया।
दुर्योधन के उद्देश्य को जानकर, धृर्तराष्ट्र ने कहा- यदि ऐसा कार्य करोगे, तो धर्म, यश, कीर्ति का नाश हो जायेगा। इस पर दुर्योधन क्रोधित होकर आत्महत्या करने की धमकी देने लगा, तो पुत्रमोह के वशीभूत होकर धृतराष्ट्र ने उस दुष्ट के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। तब दुर्योधन ने प्रसन्न होकर पाण्डवों का राज्य हड़पने के अभिप्राय से विदुर जी को धर्मराज के पास चौपड़ खेलने का निमंत्रण ले जाने को कहा।
दुर्योधन का पापपूर्ण प्रस्ताव सुनकर विदुर जी ने समझ लिया कि अब कलयुग आने वाला है। उन्होंने उस प्रस्ताव का घोर विरोध किया और अपने बड़े भाई को समझाया कि जुआ खेलने से आपके पुत्रों और भतीजों में बैर-विरोध ही बढ़ेगा।
इससे किसी का हित नहीं होगा। अतः जुए का आयोजन करना उपयुक्त नहीं। इसमें दोनों पक्षों का अमंगल है। परन्तु नीतिज्ञ विदुर की तर्कपूर्ण बातों का धृतराष्ट्र व दुर्योधन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। यद्यपि विदुर जी को यह बात अच्छी नहीं लगी, किन्तु बड़े भाई की आज्ञा का उल्लंखन करना उन्होंने उचित नहीं समझा।
पाण्डवों के पास जाकर विदुर जी ने उन्हें सारी बात कह सुनायीं। महाराज युधिष्ठिर ने भी जुए को उचित न समझते हुए भी अपने पिता तुल्य ताऊजी की आज्ञा मानकर दुर्योधन का निमंत्रण स्वीकार कर लिया। दुर्योधन ने द्यूत का आयोजन एक विशाल सभा भवन में किया था।
भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य आदि अनेकों महारथियों के सामने द्यूत क्रीड़ा शुरू हुई। उस द्यूत में शकुनी ने अपनी कपट भरी चालों से धर्मराज युधिष्ठिर की समस्त धन-सम्पदा जीत ली। यहां तक क युधिष्ठिर ने एक-एक कर अपने सभी भाइयों को और स्वंय को दांव पर लगा दिया, किन्तु जीत छली शकुनी की ही हुई अन्त में दुर्योधन ने धर्मराज से कहा- धर्मराज! अभी तो द्रौपदी शेष है। दुर्योधन के वचनों को सुन विदुर क्रोधित होकर बोले- रे नीच! यह तेरी दुबुद्धि ही तेरे नाश का कारण बनेगी। मगर दुर्योधन पर विदुर के धर्मसंगत वचनों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। तत्पश्चात् धर्मराज ने द्रौपदी को भी दांव पर लगाकर हार दिया।
तभी दुर्योधन ने दुःशासन को आज्ञा दी- दुःशासन! तुम तत्काल द्रौपदी को बलपूर्वक खींचकर सभा में ले आओ। दुर्योधन की आज्ञा पाकर दुःशासन तुरन्त द्रौपदी के पास पहुंचा और उनके केश पकड़कर घसीटता हुआ सभी में ले आया।
दुर्योधन द्रौपदी से अपने अपमान का बदला लेना चाहता था। वजह यह थी कि द्रौपदी ने दुर्योधन को एक अन्धे का पुत्र अन्धा ही है, कहा था। जुए में द्रौपदी को जीत दुर्योधन ने द्रौपदी से व पाण्डवों से बदला लेने के लिए उसने राजसभा में दुःशासन द्वारा बुलाया था। दुष्ट दुःशासन द्रौपदी को बालों से घसीटता हुआ लाया था।
दुर्योधन ने दुःशासन को आज्ञा दी कि- द्रौपदी को निर्वस्त्र कर, मेरी जंघा पर बैठा दो। दुर्योधन की आज्ञा पाकर दुर्बुद्धि दुःशासन द्रौपदी को अपमानित करने हेतु उसकी साड़ी खींचने लगा। असहाय द्रौपदी ने तब श्री कृष्ण का स्मरण किया , श्री कृष्ण उस समय द्वारिका में थे।
वे वहां से तुरन्त दौड़े आये और धर्मरूप् से द्रौपदी के वस्त्रों में छिपकर उनकी लाज बचाई। भगवान की कृपा से द्रौपदी का चीर अनन्त गुणा बढ़ गया। दुःशासन उसे जितना खींचता, वह उतना ही बढ़ता जाता था। देखते-ही-देखते वहां वस्त्र का ढेर लग गया।
महाबली दुःशासन की प्रचण्ड भुजाएं थक गई, परन्तु साड़ी का छोर हाथ नहीं आया। उपस्थित सारे समाज ने भगवद् भक्ति एंव पतिव्रता का अद्भुत चमत्कार देखा। अन्त में दुःशासन लज्जित होकर बैठ गया। भक्त वत्सल प्रभु ने अपने भक्त की लाज रख ली।
किसी साधारण मानव द्वारा अपने भक्त की इस प्रकार आलौकिक ढंग से रक्षा सम्भव न थी | श्री कृष्ण तो साक्षात् भगवान थे। जब द्रौपदी का भरी सभा में अपमान हो रहा था, धर्मपाश में बंधे रहने के कारण युधिष्ठिर ने चूं तक नहीं की और चुपचाप सब कुछ सह लिया। कोई सामान्य मनुष्य भी अपनी आंखों के सामने अपनी पत्नी की इस प्रकार दुर्दशा होते नहीं देख सकता।
उन्हीं के भय से उनके भाई भी मौन धारण किये रहे और मन मारकर बैठे रहे। पाण्डव चाहते तो बलपूर्वक उस अमानुषी अत्याचार को रोक सकते थे, परन्तु यह सोचकर कि धर्मराज द्रौपदी को स्वेच्छा से दांव पर लगाकर हार गये हैं, वे चुप रहे!
जिस द्रौपदी को इनके सामने कोई आंख उठाकर भी नहीं देख सकता था, उस द्रौपदी की दुर्दशा इन्होंने अपनी आंखों से देखकर भी उसका प्रतिकार नहीं किया। युधिष्ठिर यह जानते थे कि शकुनी ने उन्हें कपट से जीता है, फिर भी युधिष्ठिर ने अपनी तरफ से धर्म का त्याग करना उचित नहीं समझा।
उन्होंने सब कुछ सहकर भी सत्य और धर्म की रक्षा को ही सर्वोपरि माना। धर्म प्रेम व सहनशीलता का इससे बड़ा उदाहरण जगत में मिलना कठिन है। जिस समय दुःशासन थककर एक तरफ जा बैठा, तभी भीम ने कहा- क्षत्रियों! यदि इस पापी दुःशासन का हृदय चीरकर इसका वध न करूं तो मुझे पुरूषों की गति न मिल।
यदि यशस्वी धर्मराज हमारे स्वामी न होते तो हम इन अत्याचारों को कभी सहन न करते। फिर भीम ने दुर्योधन से कहा- दुष्ट दुर्योधन! आज मैं भरी सभा में प्रतिज्ञा करता हूं कि तूने अपनी जिस जंघा पर द्रौपदी को बैठाने की आज्ञा दुःशासन को दी थी, तेरी उसी जंघा को मैं अपनी गदा से तोडूंगा। भीम की इन दोनों प्रतिज्ञाओं को सुन सभा भवन में सन्नाटा छा गया।
भीम की प्रतिज्ञा के बाद सभा भवन में छाये सन्नाटे को तोड़ती द्रौपदी बोली- और मैं भी आज प्रतिज्ञा करती हूं, मेरे जिन बालों से दुःशासन ने भरी सभा में मुझे घसीटा है, मैं इन्हें तब तक नहीं संवारूगी, जब तक दुःशासन व दुर्योधन के रक्त से इन्हें गीला न कर लूं।
फिर द्रौपदी ने सारे सभासदों को धिक्कारते हुए धर्म की दुहाई देकर पूछा- जब महाराज युधिष्ठिर ने स्वंय को हारकर पीछे मुझे दांव पर लगाया है, ऐसी दशा में उनका मुझे दांव पर लगाने का अधिकार था या नहीं? द्रौपदी के प्रश्न पर सब के सब सभासद मौन रह गये।
किसी से भी द्रौपदी के प्रश्न का उत्तर देते नहीं बना। अन्त में दुर्योधन के भाई विकर्ण ने उठकर सबसे द्रौपदी के प्रश्न का उत्तर देने का मौन भंग करने का अनुरोध किया तथा अपनी ओर से सम्मति प्रकट की- प्रथम तो द्रौपदी पांचों की स्त्री है। अतः अकेले युधिष्ठिर को उन्हें दांव पर लगाने का कोई अधिकार नहीं था।
दूसरे उन्होंने खुद को हारने के बाद द्रौपदी को दांव पर लगाया था। अतः यह भी उनकी अनाधिकार चेष्टा समझी जायेगी। विकर्ण की बात सुन विदुर ने उसका समर्थन किया और अन्य सभासदों ने भी उनकी प्रशंसा की।
परन्तु कर्ण ने उसे डांटते हुए बलपूर्वक बैठा दिया। इस प्रकार भरी सभा में दुःशासन द्वारा घसीटी जाने एंव अपमानित होने पर भी द्रौपदी की नैतिक विजय हुई थी। कोई भी उनकी बात का खण्डन न कर सका।
अन्त में विदुर के समझाने पर धृतराष्ट्र दुर्योधन को डांटा और द्रौपदी को प्रसन्न करने हेतु उनसे वर मांगने को कहा। तब इन्होंने वरदान के रूप में धृतराष्ट्र से सिर्फ यही मांगा कि- मेरे पांचों पतियों को दासत्व से मुक्त कर दिया जाये। धृतराष्ट्र ने कहा- बेटी! और भी कुछ मांग लो।
उस समय द्रौपदी ने जो उत्तर दिया, वह सर्वथा द्रौपदी के अनुरूप ही था। उससे उनकी निर्लोभता एंव धर्म प्रेम स्पष्ट झलकता था। इन्होंने कहा- महाराज! अधिक लोभ करना ठीक नहीं और कुछ मांगने की मेरी इच्छा भी नहीं है। मेरे पति स्वंय समर्थ हैं।
अब जब वे दासता से मुक्त हो गये हैं, तो शेष सब कुछ वे स्वंय कर लेंगे। महाभारत युद्ध में भीम ने अपनी प्रतिज्ञा अनुसार दुर्योधन की जंघा तोड़, उसके रक्त से द्रौपदी के केश संवारे थे।
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